Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 493
________________ धर्मध्यान ४८५ ६. निश्चय व्यवहार धर्मध्यान निर्देश को आरोपित करके, तथा उसमे ही एकाग्रताको प्राप्त होकर अन्य कुछ भी चिन्तवन न करे ।१४४। शरीर और मैं अन्य-अन्य है ।१४६) मैं सदा सत्, चित, ज्ञाता, द्रष्टा, उदासीन, देह परिमाण व आकाशवत अमूर्तिक हूँ।१५३॥ दृष्ट जगत न इष्ट है न द्विष्ट किन्तु उपेक्ष्य है ।१५७। इस प्रकार अपने आत्माको अन्य शरीरादिकसे भिन्न करके अन्य कुछ भी चिन्तवन न करे ।१५। यह चिन्ताभाव तुच्छाभाव रूप नहीं है, बल्कि समतारूप आत्माके स्वसंवेदनरूप है ।१६०। (ज्ञा./३१/ २०-३७)। द्र.टी./१८/२०४/११ मैं अनन्त ज्ञानादिका धारक तथा अनन्त सुखरूप हूँ, इत्यादि भावना अन्तरग धर्म ध्यान है। (पं.का./ता.वृ/१५०-१५१/ २१८/१)। नि. सा./ता. वृ./१५४/क. २६४ असारे संसारे कलिबिल सिते पापबहुले, न मुक्तिर्गेिऽस्मिन्ननयंजिननाथस्य भवति । अतोऽध्यात्म ध्यान कथमिह भवन्निर्मल धिया, निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम् । १२६४ असार संसारमें, पापसे भरपूर कलिकालका विलास होनेपर, इस निर्दोष जिननाथके मार्ग मे मुक्ति नहीं है। इसलिए इस कालमे अध्यात्मध्यान कैसे हो सकता है । इसलिए निर्मल बुद्धिवाले भवभयका नाश करनेवाली ऐसी इस निजात्मश्रद्धाको अंगीकृत करते हैं। १. परन्तु इस क हमें ध्यानका सर्वथा अभाव नहीं है। मो. पा./मू./७६ भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स। तं अप्पसहावट्ठिदे ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी १७६१ = इस भरतक्षेत्रमें दु.षमकाल अर्थात् पचमकालमें भी आत्मस्वभावस्थित साधुको धर्मध्यान होता है । जो ऐसा नहीं मानता वह अज्ञानी है । (र. सा./६०); (त. अनु./८२)। ज्ञा./४/३७ दुःषमत्वादयं कालः कार्यसिद्धेन साधकम् । इत्युक्त्वा स्वस्य चान्येषां कैश्चिद्ध्यानं निषिध्यते ॥३७॥= कोई-कोई साधु ऐसा कहकर अपने तथा परके ध्यानका निषेध करते हैं कि इस दुषमा पंचमकाल में ध्यानकी योग्यता किसीके भी नहीं है। (उन अज्ञानियों के ध्यानकी सिद्धि कैसे हो सकतो है ।)। ५. पंचमकालमें शुक्लध्यान नहीं पर धर्मध्यान अवश्य सम्भव है त. अनु./६३ अत्रेदानी निषेधन्ति शुक्लध्यानं जिनोत्तमा । धर्मध्यानं पुनः प्राहुः श्रेणिभ्यां प्राग्विवतिनाम् ।८३१ - यहाँ (भरत क्षेत्रमें ) इस (पंचम ) कालमें जिनेन्द्रदेव शुक्लध्यानका निषेध करते हैं परन्तु श्रेणीसे पूर्ववतियोंके धर्मध्यान बतलाते है । (द्र. सं /टी./५७/२३१/११) (पं.का./ता. वृ./१४६/२११/१७) । ६. निश्चय व्यवहार धर्मध्यान निर्देश १. निश्चय धर्मध्यानका लक्षण मो. पा./मू./८४ पुरिसायारो अप्पा जोई वरणाणदसणसमग्गा । जो ज्झायदि सो जोई पावहरो भवदि णिहदो।४।-जो योगी शुद्धज्ञानदर्शन समग्र पुरुषाकार आत्माको ध्याता है वह निर्द्वन्द्व तथा पापोंका विनाश करनेवाला होता है। द्र.सं./मृ./५५-५६ जं किंचिवि चितंतो णिरीहवित्ती हवे जदा साहू । लवधूण य एयत्तं तदाहू तं णिच्छय झाणं ५ मा चिठ्ठह मा जंपह मा चिंतह किवि जेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे झाण ५६। -ध्येयमें एकाग्र चित्त होकर जिसकिसी भी पदार्थ का ध्यान करता हुआ साधु जब निस्पृह वृत्ति होता है उस समय वह उसका ध्यान निश्चय होता है। हे भव्य पुरुषो! तुम कुछ भी चेष्टा मत करो, कुछ भी मत बोलो और कुछ भी मत विचारो, अर्थात काय, वचन व मन तीनोंकी प्रवृत्तिको रोको; जिससे कि तुम्हारा आत्मा अपने आस्मामें स्थिर होवे। आत्मामें लीन होना परमध्यान है ।१६॥ का.अ./मू./४८२ बज्जिय-सयलवियप्पो अप्पसरूवे मणं णिरु'धंतो। जं चिंतदि साणंदे तं धम्म उत्तमं झाणं ।४८२ -सकल विकल्पोंको छोड़कर और आत्मस्वरूपमें मनको रोककर आनन्दसहित जो चिन्तन होता है वही उत्तम धर्मध्यान है। त.अनु./श्लो.नं./ भावार्थ-निश्चयादधुना स्वात्मालम्बनं तन्निरुच्यते ।१४। पूर्व श्रुतेन संस्कार स्वात्मन्यारोपयेत्ततः । तत्रैकाग्र्यं समासाद्य न किंचिदपि चिन्तयेत्।१४४ा- अब निश्चयनयसे स्वात्मलम्बन स्वरूपध्यानका निरूपण करते हैं ।१४११ श्रुतके द्वारा आत्मामें आत्मसंस्कार २. व्यवहार धर्मध्यानका लक्षण त.अनु./१४१ व्यवहारनमादेवं ध्यानमुक्त पराश्रयम् । इस प्रकार व्यवहार नयसे पराश्रित धर्मध्यानका लक्षण कहा है। (अर्थात् धर्मध्यान सामान्य व उसके आज्ञा अपाय विचम आदि भेद सब व्यवहार ध्यानमें गर्मित हैं ।) ३. निश्चय ही ध्यान सार्थक है व्यवहार नहीं प्र.सा./१६३-१६४ देहा वा दविणा वा सुदुक्खा वाधसत्तु मित्तजणा। जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगअप्पगो अप्पा ॥१६३। जो एवं जाणिताज्झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा । साकारोऽनाकारः क्षपयति स मोहदुर्गन्थिम् ।१६४= शरीर, धन, सुख, दुःख अथवा शत्रु, मित्रजन ये सब ही जीवके कुछ नहीं है, ध्रुव तो उपयोगात्मक आत्मा है ।१६३। जो ऐसा जानकर विशुद्धात्मा होता हुआ परम आत्माका ध्यान करता है, वह साकार हो या अनाकार, मोहदुर्ग्रन्थिका क्षय करता है। ति.प./६/२१,४० दसणणाणसमग्गं झाणं णो अण्णदव्यसंसत्तं । जायदि 'णिज्जरहेदू सभावसहिदस्स साहुस्स १२१॥ ज्झाणे जदि णियादा णाणादो णावभासदे जस्स । झाणं होदि ग तं पुण जाण पमादो, हू मोहमुच्छा वा ४० = शुद्ध स्वभावसे सहित साधुका दर्शन-ज्ञानसे परिपूर्ण ध्यान निर्जराका कारण होता है, अन्य द्रव्योंसे संसक्त बह निर्जराका कारण नहीं होता ।२१। जिस जीवके ध्यानमें यदि ज्ञानसे निज आत्माका प्रतिभास नहीं होता है तो वह ध्यान नहीं है। उसे प्रमाद, मोह अथवा मूर्छा ही जानना चाहिए ।४०। (त.अनु./१६६) आराधनासार/८३ यावद्विकल्प' कश्चिदपि जायते योगिनो ध्यानयुक्तस्य । तावन्न शून्यं ध्यान, चिन्ता वा भावनाथवा ८३ -जब तक ध्यानयुक्त योगीको किसी प्रकारका भी विकल्प उत्पन्न होता रहता है. तक तक उसे शून्य ध्यान नहीं है,या तो चिन्ता है या भावना है। (और भी दे० धर्म्यध्यान/३/१) ज्ञा./२८/१६ अविक्षिप्तं यदा चेतः स्वतत्त्वाभिमुखं भवेत्। मनस्तदैव निर्विघ्ना ध्यान सिद्धिरुदाहृता ।१६। = जिस समय मुनिका चित्त क्षोभरहित हो आत्मस्वरूपके सम्मुख होता है. उस काल ही ध्यानकी सिद्धि निर्विघ्न होती है। प्र.सा./त.प्र./१६४ अमुना यथोदितेन विधिना शुद्धात्मानं धु वमधिगच्छतस्तस्मिन्नेव प्रवृत्ते' शुद्धात्मत्वं स्यात् । ततोऽनन्तशक्तिचिन्मात्रस्य परमस्यात्मन एकाग्रसंचेतनलक्षणं ध्यानं स्यात् । -इस यथोक्त विधि के द्वारा जो शुद्धात्माको ध्र ब जानता है, उसे उसी में प्रवृत्तिके द्वारा शुद्धात्मत्व होता है, इसलिए अनन्त शक्तिवाले चिन्मात्र परम आत्माका एकाग्रसंचेतन लक्षण ध्यान होता है (प्र.सा./त.प्र./१९८), (नि.सा./ता.व./११६) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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