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धर्मध्यान
प्र.सा./त.प्र./२४३ यो हि न खलु ज्ञानात्मानमात्मानमेकमग्रं भावयति सोऽवश्यं ज्ञेयभूतं द्रव्यमन्यदासीदति । तथाभूतश्च बध्यत एव न तु मुच्यते । जो वास्तवमे ज्ञानात्मक आत्मारूप एक अग्रको नही भाता, वह अवश्य ज्ञेयभूत अन्य द्रव्यका आश्रय करता है और ऐसा होता हुआ को ही प्राप्त होता है, परन्तु मुख नहीं होता। नि.सा./ता.३/१४४ यख व्यावहारिकधर्मध्यानपरिणतः व्रत एव चरणकरणप्रधान,किन्तु स निरपेक्षतपोधन. साक्षान्मोक्षकारणं स्वामाश्रयावश्यक कर्म निश्चयत परमावश्यमिश्रान्तरूपं निश्चयधर्मध्यानं शुक्लध्यानं च न जानीते, अतः परद्रव्यगतत्वादन्यवश इत्युक्त णो वास्तवमे व्यावहारिक धर्मध्यानमे परिणत रहता है. इसलिए चरणकरणप्रधान है; किन्तु वह निरपेक्ष तपोधन साक्षात् मोक्षके कारणभूत स्वात्माश्रित आवश्यककर्मको, निश्चयसे परमारमव विभावरूप निश्चयधर्मध्यानको तथा शुक्लध्यानको नही जानता इसलिए परद्रव्यमे परिणत होनेसे उसे अन्यवश कहा गया है
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४. व्यवहार ध्यान कथंचित् अज्ञान है।
एतेन कर्मबन्धविषयचिन्ता प्रबंधात्मक विशुद्धधर्मस.सा./आ./१११ ध्यानान्धबुद्धयो बोध्यन्ते। इससे कर्मबन्धने चिन्ताप्रबन्धस्वरूप विशुद्ध धर्मध्यानसे जिनकी बुद्धि अन्धी है, उनको समझाया है ।
५. व्यवहार ध्यान निश्चयका साधन
प्र.सं./टी./४१ / २०१/४ निश्चयध्यानस्य परम्परया कारणभूतं यो पयोगलक्षणं व्यवहारध्यानम्। निश्चयध्यानका परम्परासे कारण जो भोपयोग लक्षण व्यवहारध्यान है (द्र.सं./टी./२३/२२१/२)
९. निश्चय व व्यवहार ध्यान में साध्यसाधकपनेका समन्वय
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घ. १३/२४,२६/२१/६७ मिसमं हि समारोहह दव्वाणो जहा पुरिसो मुताबिकवाली वह कागव समारुह 19 जिस प्रकार कोई पुरुष नसेनी (सीडी) आदि द्रव्यके आलम्बनसे नियमभूमिपर भी आरोहण करता है, उसी प्रकार ध्याता भी सूत्र आदि तम् उत्तम ध्यानको प्राप्त होता है (भ.आ./वि./१००० १६८१/१२) शा./२३/२४] अभियानासना वेशविशेषविवशात्मनाम् योज्यमानमपि स्वस्मिनचेतः कुरुते स्थितिम् ॥२॥ लक्ष्यं लक्ष्यसंबन्धाय स्थूला सूक्ष्मं विचिन्तयेत् । सालम्बाच्च निरालम्बं तत्त्ववित्तत्त्वमजसा 181 - आत्मा के स्वरूपको यथार्थ जानकर अपने मे जोडता हुआ भी अविद्याकी वासनासे विवश है आत्मा जिनका उनका चित्त स्थिरताको नहीं धारण करता है ॥२॥ तक्ष्य सम्बन्धसे अलक्ष्यको अर्थात् इन्द्रियगोचरके सम्बन्धसे इन्द्रियातीत पदार्थोंको तथा स्थूलके आलम्बनसे सूक्ष्मको चिन्तवन करता है। इस प्रकार सालम्ब ध्यानसे निरालम्बके साथ तन्मय हो जाता है |४| ( और भी दे० चारित्र /०/१०)
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पं.का/ता.वृ./१५२/२२०/६ अयमत्र भावार्थ - प्राथमिकानां चित्तस्थिरीकरणार्थ विषयाभिलाषरूपध्यानवञ्चनार्थ च परम्परया मुक्तिकारण पचपरमेष्यादिपव्यं ध्येयं भवति इतरध्यानाभ्यासेन चिचे स्थिरे जाते सति निजात्मस्वरूपमेव ध्येयं इति परस्परसापेक्षनिश्चयव्यवहारनयाभ्यां साध्यसाधकभाव ज्ञात्वा ध्येयविषये विवादो
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६. निश्चय व्यवहार धर्मध्यान निर्देश
न कर्तव्य । प्राथमिक जनोंको चित्त स्थिर करनेके लिए तथा विषयाभिलाषरूप दुर्ध्यानसे बचनेके लिए परम्परा मुक्ति के कारणभूत पंच परमेष्ठी आदि परद्रव्य ध्येय होते है । तथा दृढतर ध्यानके अभ्यास द्वारा चित्तके स्थिर हो जानेपर निजशुद्ध आत्मस्वरूप ही ध्येय होता है । ऐसा भावार्थ है । इस प्रकार परस्पर सापेक्ष निश्चय व्यवहारनयोके द्वारा साध्यसाधक भावको जानकर ध्येयके विषयमें विवाद नहीं करना चाहिए। (इ.सं./टी./५३/२२३/१२), (१.प्र./टी./२/ ३३ / ९६४/२)
पं. का./ता.वृ./१२०/२१७/१४ पदार्थ जीव.. सरागस
परमेष्ठिभवत्यादिरूपेण पराश्रितधर्म्यध्यानव हिरड सहकारित्वेनानन्तज्ञानादिस्वरूपोऽहमित्यादिभावनास्वरूपमात्माश्रितं धर्म्यध्यानं प्राप्य आगमकथितक्रमेणासं यतसम्यग्दृष्टमादिगुणस्थानचतुष्टयमध्ये वापि गुणस्थाने दर्शनमोहादिक सम्यवत्वं कृत्वा तदनन्तरमपूर्वक रणादिगुणस्थानेषु प्रकृतिपुरुष निर्मश वियोतिरूपप्रथम ध्यान मनुभूय... मोहक्षपणं कृत्वा भावमोक्षं प्राप्नोति । अनादिकाल से अशुद्ध हुआ यह जीव सरागसम्यग्दृष्टि होकर पंचपरमेष्ठी आदिकी भक्ति आदि रूपसे पराश्रित धर्म्यध्यानके बहिरंग सहकारी पनेसे में अनन्त ज्ञानादि स्वरूप 'ऐमे आत्माश्रित धर्मध्यानको प्राप्त होता है. तत्पश्चात् आगम कथित क्रमसे असंयत सम्यग्दृष्टि आदि अप्रमत्तसंयत पर्यन्तके चार गुणस्थानोंसे किसी एक गुणस्थानमें दर्शनमोहका क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है । तदनन्तर अपूर्वकरण आदि गुणस्थानोंमें प्रकृति व पुरुष ( कर्म व जीव ) सम्बन्धी निर्मल विवेक ज्योतिरूप प्रथम शुक्लध्यानका अनुभव करने के द्वारा वीतराग चारित्रको प्राप्त करके मोहका क्षय करता है, और अन्तमें भारमोक्ष प्राप्त कर लेता है।
७. निश्चय व व्यवहार ध्यानमें निश्चय शब्दकी आंशिक प्रवृत्ति
प्र.सं./टी./२४-३६/२२४/६ निश्चयशब्देन तु प्राथमिकापेक्षया व्यवहाररत्नश्वानृतनिश्चयो प्राह्म निष्पन्नयोगपुरुषापेक्षा तुझीपयोग लक्षण विवक्षितेदेश शुद्धनिश्चयो ग्राह्यः विशेषनिश्चयः पुनरग्रे वक्ष्यमाणस्तिष्ठतीति सूत्रार्थः ॥ ५५॥ ' मा चिट्ठह...।' इदमेवात्मसुखरूपे तन्मयत्वं निश्चयेन परमुकुटध्यानं भवति । 'निश्चय' शब्द से अभ्यास करनेवाले पुरुषकी अपेक्षासे व्यवहार रत्नत्रयके अनुकूल निश्चय ग्रहण करना चाहिए और जिसके ध्यान सिद्ध हो गया है उस पुरुषकी अपेक्षा शुद्धयोगरूप विवक्षित एकदेशसुद्ध निश्चय ग्रहण करना चाहिए। विशेष निश्चय आगेके सूत्र में कहा है, कि मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिको रोककर आत्मा के सुखरूपमें तन्मय हो जाना निश्चयसे परम उत्कृष्ट ध्यान है। (विशेष दे० अनुभव / ५ / ७) ८. निरीह मावसे किया गया सभी उपयोग एक आत्म उपयोग ही है
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.../८६१-८६ अस्ति ज्ञानोपयोगस्य स्वभावमहिमोदयः आत्मपरोभय कारभामकश्च प्रदीपन 1०६१। निर्विशेषाद्यथात्मानमिव शेय नमेति च राधा सुनिश्चि धर्मादीनवगच्छति ॥८६॥ स्वस्मिन्नेबोपयुक्त वामपयुक्त स एव हि परस्मिन्नुपयुक्त या नोपयुक्तः स एव हि स्वस्मिन्नेवोपयुक्तोऽपि नोकर्या समस्तुतः उपयुक्त परत्रापि नापकर्षाय तत्वतः ॥ २६४॥ तस्मात् स्वस्थितयेऽन्यस्मादेकाकारचिकीर्षया । मासीदसि महाप्राज्ञ सार्थमर्थमवै हि भोः । ८६ - निजमहिमासे ही ज्ञान प्रदोषवत स्व पर व उभयका युगपत् अव - भासक है । ८६१। वह किसी प्रकारका भी भेदभाव न करके अपनी तरह ही अपने विषयभूत मूर्त व अमूर्त धर्म अधर्मादि द्रव्योंको भी
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