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धर्मध्यान
होता है और दोनो श्रेणियों आदिके दो सुध्यान होते है। (रा.वा./१/३०/२/६३३/३)
घ. १३/२,४,२६/०४/१० असंजदसम्माविदिह संजदास जनमत संजदसंजदासंजदपमत्त अप्पमत सजद अब संजद अणियहि जद-मपरायस्ययोग सामसु धम्मज्झाणस्स पत्ती होदि त्ति जिणावएसादो । ३. असंयम्य संयतासंयत प्रमत्तस्यत, अमतसंयत सपक उपशामक अपूर्वकरणसंयत, क्षपक व उपशामक अनिवृत्तिकरणसंयत, क्षपक व उपशामक सूक्ष्मसाम्परायसयत जोवोंके धर्मध्यानकी प्रवृत्ति होती है; ऐसा जिनदेवका उपदेश है । ( इससे जाना जाता है। कि धर्मध्यान कषाय सहित जीवोके होता है और शुक्लध्यान उपशान्त या क्षीणकषाय जीवोके ) ( स सि./६/३७/४५३/४ ); (रा.वा / ६/३७/२/६३२/३२) ।
५. धर्मध्यानके स्वामित्व सम्बन्धी शंकाएँ
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२. मिध्यादृष्टियों को भी तो धर्मध्यान देखा जाता है रा.जा./हिं/१/३६/७०० प्रश्न- मिध्यादृति अन्यमती तथा भद्रपरिणामी व्रत, शील, संयमादि तथा जीवनिकी दयाका अभिप्रायकरि तथा भगाइको सामान्य भक्ति कर धर्मवृद्धि चित एकाग्रकरि चिन्तयन करें] है, तिनिके शुभ धर्मध्यान कहिये कि नाहीं उत्तर
मोक्षमार्गका प्रकरण है । तातै जिस ध्यान ते कर्मकी निर्जरा होय सो ही यहाँ गिणिये है । सो सम्यग्दृष्टि बिना कर्मको निर्जरा होय नाहीं । मिथ्यादृष्टिके शुभध्यान शुभबन्ध हीका कारण है। अनादि ते कई बार ऐसा ध्यानकरि शुभधर्म बान्धे है. परन्तु निर्जरा मिना मोक्षमार्ग नाहीं ताते मिथ्याका ध्यान मोक्षमार्गमे सराह्य नाही (र.आ./प. सदासुखदास पृ. ११५) ।
म.पु. / २१/१५५ का भाषाकारकृत भावार्थ-धर्मध्यानको धारण करने के लिए कमसे कम सम्यग्दृष्टि अवश्य होना चाहिए। मन्दकषायी मिथ्यादृष्टि जीवोंके जो ध्यान होता है उसे शुभ भावना कहते है । २. प्रमत्तजनोंको ध्यान कैसे सम्भव है। रा.वा./१/३६/१३/६३२/१७ कश्चिदाह - धर्म्यमप्रमत्तसंयत्तस्यैवेति तन्न; किं कारणम् । पूर्वेषा विनिवृत्तिप्रसङ्गात् । असंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासयत प्रमत्तसंयतानामपि धर्मध्यानमिष्यते सम्यक्त्वप्रभवत्वात् । प्रश्न- धर्मध्यान तो अप्रमत्तस्यतोके हो होता है। उत्तर-नही, क्योंकि ऐसा मानने से पहले के गुणस्थानोंगे धर्मध्यानका निषेध प्राप्त होता है । परन्तु सम्यक्त्वके प्रभावसे असयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्त संतजनों में भी धर्मध्यान होना इष्ट है। २. कषाय रहित जीवोंमें ही ध्यान मानना चाहिए
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रा.वा /६/३६/१४/६३२/२१ कश्विदाह-उपशान्त क्षीणपाययोश्च धर्म्यध्यानं भवति न पूर्वेषामेवेति तन्त्र कि कारण शुस्ताभावप्रसाद] उपशान्तीपादयोर्हि शुक्तध्यानमिष्यते तस्याभावः प्रसज्येत । प्रश्न-उपशान्त व क्षीणकषाय इन दो गुणस्थानों में धर्म्यध्यान होता, इससे पहिले गुणस्थानोंमे बिलकुल नही होता उचर नहीं, क्योंकि, ऐसा मानने सुध्यानके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है उपशान्त व क्षीण पायगुणस्थानमे गुरुध्यान होना इष्ट है ।
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३. धर्मध्यान व अनुप्रेक्षादिमें अन्तर
१. ध्यान, अनुप्रेक्षा, भावना व चिन्तामें अन्वर भ.आ./ १७९०/१५४३ ( धर्मध्यान/९/९/२) - धर्मध्यान आयेय है और अनुप्रेक्षा उसका आधार है । अर्थात् धर्मध्यान करते समय अनुप्रेक्षाका चिन्तन किया जाता है (भ.आ./मू./१०१४१
१५४५ ) ।
३. धर्मध्यान व अनुप्रेक्षा आदिमें अन्तर
घ. १३/५.४.२६/गा १२/६४ परिमाणं तं
चित्तं । तं होइ भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिन्ता | १२| | जो परिणामोकी स्थिरता होती है उसका नाम ध्यान है, और जो चित्तका एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ मे चलायमान होना है वह या तो भावना है, या अनुप्रेक्षा है या चिन्ता है | १२| ( म. पु. / २१/१ ) | ( दे. शुक्लध्यान / १/४) ।
रा.मा./१/३६/१२/६३२ / ९४ स्यादेतत्-अनुप्रेक्षा अपि धर्मध्यानेऽन्तर्भअन्तीति पृथगामुपदेोऽमर्थक इतिः सन्नः किं कारणम्। ज्ञानप्रवृत्तिविकल्पत्वात । अनित्यादिविषयचिन्तन यदा ज्ञानं तदा अनुप्रेक्षाव्यपदेशो भवति, यदा तत्रैकाग्र चिन्तानिरोधस्तदा धर्म्यध्यानम् प्रश्न- अनुप्रेक्षाओंका भी ध्यानमें ही अन्तर्भाव हो जाता है, अत: उनका पृथक् व्यपदेश करना निरर्थक है ? उत्तर - नहीं, क्योकि, ध्यान व अनुप्रेक्षा ये दोनों ज्ञानप्रवृत्ति के विकल्प है। जब अनित्यादि विषयो में बार-बार चिन्तनधारा चालू रहती है तब वे ज्ञानरूप है और जब उनमे एकाग्र चिन्तानिरोध होकर चिन्तनधारा केन्द्रित हो जाती है, तब वे ध्यान कहलाती हैं ।
झा / २२/१६ एकाग्रचिन्तनिरोधो यस्तानमाननापरा अनुप्रेक्षार्यचिन्ता वा तज्ज्ञैरभ्युपगम्यते ॥ १६ ॥ - ज्ञानका एक ज्ञेयमें निश्चल ठहरना ध्यान है और उससे भिन्न भागना है, जिसे विजन अनुप्रेक्षा या अर्थचिन्ता भी कहते हैं।
भा. पा. टी./१८/२२६ / १ एकस्मिन्निष्टे वस्तुनि निश्चला मतिर्ध्यानम् । आर्त रौद्रधर्मापेक्षया तु मतिश्चञ्चला अशुभा शुभा वा सा भावना कथ्यते, चित्तं चिन्तनं अनेकनययुक्तानुप्रेक्षणं ख्यापनं श्रुतज्ञानपदालोचन वा कथ्यते न तु ध्यानम् । किसी एक इष्ट वस्तुमें मतिका निश्चल होना ध्यान है। आर्त रोह और धर्मध्यानको अपेक्षा अर्थात इन तीनों ध्यान में मति चंचल रहती है उसे वास्तव में अशुभ या शुभ भावना कहना चाहिए। अनेक नययुक्त अर्थका पुन - पुन, चिन्तन करना अनुप्रेक्षा, ख्यापन श्रुतज्ञानके पदोकी आलोचना कहलाता है, ध्यान नहीं ।
२. अथवा अनुप्रेक्षादिको अपायविचय धर्मध्यानमें गर्मित समझना चाहिए
म.पु. २९/९४२ पायप्रतिकारचिन्हो पायानुचिन्तनम्। अत्रैवान्तर्गत ध्येयं अनुप्रेक्षादित १४११ अथवा उन उपायों (दुखों) के. दूर करनेकी चिन्तासे उन्हें दूर करनेवाले अनेक उपायोका चितवन करना भी अपायविचय कहलाता है। बारह अनुप्रेक्षा तथा दशधर्म आदिका चिन्तयन करना इसी अपायविचय नामके धर्मध्यानमें शामिल समझना चाहिए ।
३. ध्यान व कायोत्सर्ग में अन्तर
घ. १३/५.४.२०/८/३ व्यस्स णिसम्णस्स पिण्णस्स वा साहुस्स साहि सह परिवागो काउसग्गो पाम पे उफाणस्तो णिवददि मारहाणुखास मादचित्तस्स नि काओस्सग्गुबतीदो एक पवि स्थित या बैठे हुए कायोत्सर्ग करनेवाले साधुका कषायों के साथ शरीरका त्याग करना कायोत्सर्ग नामका तपःकर्म है। इसका ध्यानमें अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि जिसका बारह अनुप्रेक्षाओं के चितवनमें बिस लगा हुआ है. उसके भी कामोत्सर्गकी उत्पत्ति देखी जाती है। इस प्रकार तपःकर्म का कथन समाप्त हुआ।
४. माला जपना आदि ध्यान नहीं
रा. वा./६/२०/२४/६२०/९० स्याम्म रान कि कारण ध्यानातिकमा क्रियते ध्यानमेव न स्याद्वैयग्रबाद ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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मात्रकालपरिमगमं व्यानमिति मात्राभिर्यादि कायम - प्रश्न - समयमात्राओंका
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