________________
धर्मध्यान
४७७
सूचोपत्र
धर्मध्यानका फल पुण्य व मोक्ष तथा उसका समन्वय धर्मध्यानका फल अतिशय पुण्य ।
धर्मध्यानका फल सवर, निर्जरा व कर्गक्षय । ३ | धर्मध्यानका फल मोक्ष । धर्मध्यानकी महिमा ।
-दे० ध्यान/२। | क ही धर्मध्यानसे मोहनीयका उपशम व क्षय दोनों
कैसे सम्भव है ? पुण्यात्रव व मोक्ष दोनों होनेका समन्वय । परपदार्थोके चिन्तवनसे कर्मक्षय कैसे सम्भव है ?
*
"
| धर्मध्यान व उसके भेदोंका सामान्य निर्देश
धर्मध्यान सामान्यके लक्षण।
धर्मध्यानके चिह्न। ३ | धर्मध्यान योग्य सामग्री। धर्मध्यान योग्य मुद्रा, आसन, क्षेत्र, पीठ व दिशा।
-दे० कृति कर्म/३॥ धर्मध्यान योग्य काल।
-दे० ध्यान/३॥ धर्मध्यानकी विधि ।
-दे० ध्यान/३ । धर्मध्यान सम्बन्धी धारणाएँ। -दे० पिडस्थ । धर्मध्यानके भेद आशा, अपाय आदि व बाह्य आध्या
त्मिक आदि। आशा, विचय आदि १० ध्यानाके लक्षण । संस्थान विचय धर्मध्यानका स्वरूप । संस्थान विचयके पिंडस्थ आदि भेदोंका निर्देश । पिडस्थ आदि ध्यान। -दे० वह वह नाम । बाह्य व आध्यात्मिक ध्यानका लक्षण । धर्मध्यानमे सम्यक्त्व व मावों आदिका
*
.
*
"
पंचमकालमें भी धर्मध्यानको सफलता १ यदि ध्यानसे मोक्ष होता है तो अब क्यों नहीं
| होना? २ | यदि इस कालमें मोक्ष नहीं तो ध्यान करनेसे क्या
प्रयोजन । ३ | पंचग काली भी अध्यात्म व्यानका कयचित् सद्भाव
व असद्भाव। परन्तु इस कालमें भी ध्यानका सर्वथा अभाव नहीं है। चमकालमें शुक्लध्यान नहीं पर धर्मध्यान अवश्य सम्भव है।
निर्देश
*
निश्चय व्यवहार धर्मध्यान निर्देश
धर्मध्यानमें आवश्यक शानकी सीमा।
-दे० ध्याता/१। धर्मध्यानमे विषय परिवर्तन क्रम । धर्मध्यानमें सम्भव भाव व लेश्याएँ । धर्मध्यान योग्य ध्याता। -दे० ध्याता/२,४ । सम्यग्दृष्टिको ही सम्भव है। --दे० ध्याता/२,४ । मिथ्यादृष्टिको सम्भव नहीं। गुणस्थानोंकी अपेक्षा स्वामित्व । साधु व श्रावकको निश्चय ध्यानका कथंचित् विधि, निषेध।
-दे० अनुभव/५॥ धर्मध्यानके स्वामित्व सम्बन्धी शंकाएँ१. मिथ्यादृष्टिको भी तो देखा जाता है। २. प्रमत्त जनोको ध्यान कैसे सम्भव है ।
३. कषायरहित जीवोंमें ही मानना चाहिए । * | धर्मध्यानमें संहनन सम्बन्धी चर्चा । -दे० संहनन ।
साधु व थानकके योग्य शुद्धोपयोग।-दे० अनुभव । निश्चय धर्मध्यानका लक्षण । निश्चय धर्मध्यान योग्य ध्येय व भावनाएँ।-दे० ध्येय । व्यवहार धर्मध्यानका लक्षण। वाह्य व आध्यात्मिक ध्यानके लक्षण ।
-दे० धर्मध्यान/१ । व्यवहार ध्यान योग्य अनेको ध्येय ।-दे० ध्येय । सब ध्येयोमें आत्मा प्रधान है।-दे. ध्येय । परम ध्यानके अपर नाम ।-दे० मोक्षमार्ग/111 निश्चय ही न्यान सार्थक है व्यवहार नहीं। व्यवहार यान कथंचित् अज्ञान है । व्यवहार ध्यान निश्चयका साधन है। निश्चय त्याहार ध्यान साध्य सावकपनेका
समन्वय। ७। निश्चय व व्यवहार ध्यान में निश्चय' शब्दकी आंशिक
प्रवृत्ति । निरीह भावसे किया गया सभी उपयोग एक आत्मो
पयोग ही है। सविकल्प अवस्थासे निर्विकल्पावस्थामें चढनेका क्रम ।
----दे० धर्म ६/४।
धर्मध्यान व अनुप्रेक्षादिमें अन्तर
न्यान, अनुप्रेक्षा, भावना व चिन्तामें अन्तर । अथवा अनुप्रेक्षादिको अपायविचयमें गर्भित समझना
चाहिए। ध्यान व कायोत्सर्गमें अन्तर । माला जपना आदि ध्यान नहीं है। प्राणायाम, समाधि आदि ध्यान नहीं ।
-दे० प्राणायाम। धर्मध्यान व शुक्लध्यानमें कथंचित् भेदाभेद ।
५
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org