________________
दर्शन
४०४
सूचीपत्र
१ । दर्शनोपयोग निर्देश १ दर्शनका आध्यात्मिक अर्थ ।
दर्शनका व्युत्पत्ति अर्थ। दर्शनोपयोगके अनेकों लक्षण १. विषय-विषयी सन्निकर्षके अनन्तर 'कुछ है' इतना
मात्र ग्रहण । २. सामान्यमात्र ग्राही। ३. उत्तरशानकी उत्पत्तिके लिए व्यापार विशेष । ४. आलोचना व स्वरूप संवेदन। ५. अन्तर्चित्प्रकाश। * निराकार व निर्विकल्प। --दे० आकार व विकल्प। स्वभाव-विभाव दर्शन अथवा कारण-कार्यदर्शन निदेश।
-दे० उपयोग/I/१॥ सम्यक्त्व व श्रद्धाके अर्थमें दर्शन।
-दे० सम्यग्दर्शन/I।।। सम्यक व मिथ्यादर्शन निर्देश। -दे० वह बह नाम । दर्शनोपयोग व शुद्धोपयोगमें अन्तर । -दे० उपयोग/I/२। शुद्धात्मदर्शनके अपर नाम। -दे० मोक्षमार्ग/२/५ । देव दर्शन निर्देश।
-दे० पूजा।
*
२
७. जैन दर्शन व बैदिक दशनोंका समन्वय
भले ही साम्प्रदायिकताके कारण सर्वदर्शन एक-दूसरेके तत्त्वोका खण्डन करते हों। परन्तु साम्यवादी जैन दर्शन सबका खण्डन करके उनका समन्वय करता है। या यह कहिए कि उन सर्वदर्शनमयी ही जैन दर्शन है. अथवा वे सर्वदर्शन जैनदर्शनके ही अंग है। अन्तर केवल इतना ही है कि जिस अद्वैत शुद्धतत्त्वका परिचय देनेके लिए वेद कर्ताओंको पाँच या सात दर्शनोकी स्थापना करनी पड़ी, उसीका परिचय देनेके लिए जनदर्शन नयोंका आश्रय लेता है। तहॉ वैशेषिक व नैयायिक दर्शनोके स्थानपर असद्भूत व सद्भभूत व्यवहार नय है। सांख्य व योगदशेनके स्थानपर शुद्ध व अशुद्ध द्रव्याथिकनय हैं। अद्वैतदर्शनके स्थानपर शुद्ध संग्रहनय है । इनके मध्यके अनेक विकल्पोंके लिए भी अनेको नय व उपनय है, जिनसे तत्त्वका सुन्दर व स्पष्ट परिचय मिलता है। प्ररूपणा करनेके ढंगमे अन्तर होते हुए भी, दोनों एक ही लक्ष्यको प्राप्त करते हैं। अद्वैतदर्शनकी जिस निर्विकल्प दशाका ऊपर वर्णन कर आये है वही जैनदर्शनकी कैवल्य अवस्था है। पूर्वमीमांसाके स्थानपर यहाँ दान व पूजा विधानादि, मध्य मीमांसाके स्थानपर यहॉ जिनेन्द्र भक्ति रूप व्यवहार धर्म तथा उत्तरमीमांसाके स्थानपर धर्म व शुक्लध्यान है। तहाँ भी धर्मध्यान तो उसकी पहली व दूसरी अवस्था है
और शुक्लध्यान उसकी तीसरी व चौथी अवस्था है। * सब एकान्तदर्शन मिलकर एक जैनदर्शन है
दे० अनेकांत/२॥ दर्शन उपयोग-जीवकी चैतन्यशक्ति दर्पणको स्वच्छत्व शक्तिवत है। जैसे-बाह्य पदार्थोंके प्रतिबिम्बोंके बिनाका दर्पण पाषाण है, उसी प्रकार ज्ञेयाकारोके बिनाकी चेतना जड है। तहाँ दर्पणकी निजी स्वच्छतावत् चेतनका निजी प्रतिभास दर्शन है और दर्पणके प्रतिबिम्बोंवत् चेतनामे पडे ज्ञयाकार ज्ञान है। जिस प्रकार प्रतिबिम्ब विशिष्ट स्वच्छता परिपूर्ण दर्पण है उसी प्रकार ज्ञान विशिष्ट दर्शन परिपूर्ण चेतना है। तहाँ दर्शनरूप अन्तर चित्प्रकाश तो सामान्य व निर्विकल्प है, और ज्ञानरूप बाह्य चित्प्रकाश विशेष व सविकल्प है। यद्यपि दर्शन सामान्य होनेके कारण एक है परन्तु साधारण जनों को समझानेके लिए उसके चक्षु आदि भेद कर दिये गये हैं। जिस प्रकार दर्पणको देखनेपर तो दर्पण व प्रतिबिम्ब दोनो युगपत दिवाई देते है, परन्तु पृथक्-पृथक् पदार्थों को देखनेसे वे आगेपीछे दिखाई देते हैं, इसी प्रकार आत्म समाधिमें लीन महायोगियोंको तो दर्शन व ज्ञान युगपत् प्रतिभासित होते है. परन्तु लौकिकजनोंको वे क्रमसे होते है। यद्यपि सभी संसारी जीवोंको इन्द्रियज्ञानसे पूर्व दर्शन अवश्य होता है. परन्तु क्षणिक व सूक्ष्म होनेके कारण उसकी पकड वे नहीं कर पाते। समाधिगत योगी उसका प्रत्यक्ष करते है। निज स्वरूपका परिचय या स्वसंवेदन क्योंकि दर्शनोपयोगसे ही होता है, इसलिए सम्यग्दर्शनमें श्रद्धा शब्दका प्रयोग न करके दर्शन शब्दका प्रयोग किया है। चेतना दर्शन व ज्ञान स्वरूप होनेके कारण ही सम्यग्दर्शनको सामान्य और सम्यग्ज्ञानको विशेष धर्म कहा है।
२
ज्ञान व दशनमें अन्तर दर्शनके लक्षणमें देखनेका अर्थ शान नहीं। अन्तर व बाहर चित्प्रकाशका तात्पर्य अनाकार व
साकार ग्रहण है। | केवल सामान्यग्राहक दर्शन और केवल विशेषग्राहक
शान हो, ऐसा नहीं है । ( इसमें हेतु)। केवल सामान्य का ग्रहण माननेसे द्रव्यका जानना ही
अशक्य है। अतः सामान्य विशेषात्मक उभयरूप ही अन्तरंग व
बाह्यका ग्रहण दर्शन व शान है। ज्ञान भी कथंचित् आत्माको जानता है।
-दे० दर्शन/२/६। ज्ञानको ही द्विस्वभावी नहीं माना जा सकता।
-दे० दर्शन// दर्शन व शानकी स्व-पर ग्राहकताका समन्वय । दर्शनमें भी कथंचित् बाह्य पदार्थका ग्रहण । दर्शनका विषय ज्ञानकी अपेक्षा अधिक है। दर्शन व शानके लक्षणोंका समन्वय । -दे० दर्शन/४/७ । दर्शन ओर अवग्रह शानमें अन्तर । दर्शन ब संग्रहनयमें अन्तर ।
३
दर्शन व ज्ञानकी क्रम व अक्रम प्रवृत्ति छद्मस्थोंको दर्शन व शान क्रमपूर्वक होते हैं और
केवलीको अक्रम।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org