Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 454
________________ देव II देव (गति) कारण समझकर नित्य ही महान् अनन्तगुणो विशुद्धि पूर्वक उसे करते हैं ।२२८। पुराने देवोके उपदेशसे मिथ्यादृष्टि देव भी जिन प्रतिमाओंको कुनाधिदेवता मानकर नित्य ही नियमसे भक्ति पूर्वक जिनेन्द्रार्चन करते हैं ।२२।। (ति.प./4/५८८-५८६); (त्रि.सा./ ५५२-५५३)। ४. देवोंके शरीरकी दिव्यता ति.प./३/२०८ अद्विसिरारुहिरवसामुत्तपुरीसाणि केसलोमाइं। चम्म डमंसप्पहुडी ण होइ देवाण संघडणे ।२०८। देवोंके शरीरमें हड्डी, नस, रुधिर, चर्बी, मूत्र, मल, केश, रोम, चमड़ा और मांसादिक नहीं होता। (ति प./८/५६८)। ध. १४/५.६,६१/८१/८ देव...पत्तेयसरीरा बुच्चति एदेसिं णिगोदजीवेहि सह सबंधाभावादो। -देव...प्रत्येक शरीरवाले होते हैं, क्योकि इनका निगोद जीवोंके साथ सम्बन्ध नहीं होता। ज. प./११/२५४ अट्ठगुणमहिडीओसुहबिउरुग्वणविसेससंजुत्तो । समचउरंससुसंढिय संघदणेसु य असंघदणो ।२१४।अणिमा, महिमादि आठ गुणों व महा-द्धिसे सहित. शुभ विक्रिया विशेषसे संयुक्त, समचतुरस्र शरीर संस्थानसे युक्त, छह संहननोंमें संहननसे रहित, (सौधर्मेन्द्रका शरीर ) होता है। वो.पा./टी./३२/१८/१५ पर उद्धृत-देवा...आहारो अस्थि णत्थि नीहारोश निक्कुंचिया होति ।११-देवोंके आहार होता है, परन्तु निहार नही होता, तथा देव मुंछ-दाढीसे रहित होते है। इनके शरीर निगोद से रहित होते हैं। ५. देवोंका दिव्य आहार ति.प./१५१ उवहिउत्रमाणजीवीव रिससहस्सेग दिव्वअमयमयं । भुजदि मणसाहारं निरूवमयं तुढिपुष्टि कर ५१॥ ( तेसु कबलासणं स्थि । ति.प./६/८७)-देवोके दिव्य, अमृतमय, अनुपम और तुष्टि एवं पुष्टिकारक मानसिक आहार होता है ५५१। उनके कवलाहार नहीं होता। (ति.प./६/८७)। ६. देवोंके रोग नहीं होता ति.प./३/२०६ बण्णरसगंधफासे अइसयवेकुबदिब्बखंदा हि। णेदेसु रोयवादिउवठिदी कम्माणुभावेण ।२०६-चूंकि वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्शके विषयमें अतिशयको प्राप्त क्रियक दिव्य स्कन्ध होते हैं, इसलिए इन देवोंके कर्म के प्रभावसे रोग आदिकी उपस्थिति नहीं होती।२०६३ (ति.प./८/५६६)। ७. देवगति में सुख व दुःख निर्देश ति.प./३/१४१-२३८ चमरिंदो सोहम्मे ईसदि वइरोयणो य ईसाणे। भूदाणंदे वेणू धरणाणं दम्मि वेणुधारि त्ति ।१४१। एदे अठ्ठ सुरिदा अण्णोण्णं बहुबिहाओ भूदीओ। दळूण मच्छरेणं ईसंति सहावदो केई ।१४२॥ विविहरतिकरणभाविद विसुद्धबुद्धीहि दिव्वरूवेहिं । णाणविकुचणं बहुविलाससंपत्तिजुत्ताहिं ।२३१। मायाचारविवज्जिदपकिदिपसण्णाहिं अच्छाराहि समं । णियणियविभूदिजोग्ग संकल्पवसंगदं सोक्रवं ।२३२॥ पडपडहप्पहुदींहि सत्तसराभरणमहुरगीदेहि। वरललितणच्चणेहिं देवा भुजति उवभोग्ग ।२३३। ओहि पि विजाणतो अण्णोण्णुप्पण्णपेम्ममूलमणा। कार्मधा ते सव्वे गर्द पि कालं ण याणं ति ।२३४॥ वररयणकंचणाए विचित्तसयलुज्जलम्मि पासादे। कालागुरुगंधड्ढे रागणिधाणे रमंति सुरा ।२३। सयणाणि आसणणि मउवाणि विचित्तरूवरइदाणि । तणुमणवयणाणंदगजणणाणि होति देवाणं ।२३६। फासरसरूवसधुणिगंधेहि वडियाणि सोक्वाणि। उब जंता देवा तित्ति ण लह ति णिमिसपि ।२३। दीवेसु गदिदेसं भोगरिखदीए वि गंदणवणेसुं। वरपोक्खरिणीं पुलिणस्थलेषु कोडं ति राएण १२३८-चमरेन्द्र सौधर्मसे ईर्षा करता है, वैरोचन ईशानसे, बेणु भूतानन्दसे और वेणुधारी धरणानन्दसे । इस प्रकार ये आठ सुरेन्द्र परस्पर नाना प्रकारकी विभूतियोंको देखकर मात्सर्य से, व कितने ही स्वभावसे ईर्षा करते है ।१४१-१४२। (त्रि.सा/२१२); (भ.आ./मू./१५६८-१६०१) वे देव विविध रतिके प्रकटीकरणमें चतुर, दिव्यरूपोसे युक्त, नाना प्रकारकी बिक्रिया व बहुत विलास सम्पत्तिसे सहित स्वभावसे प्रसन्न रहनेवाली ऐसीअप्सराओके साथ अपनी-अपनी विभूतिके योग्य एवं संकल्पमात्रसे प्राप्त होनेवाले उत्तम पटह आदि वादित्र एवं उत्कृष्ट सुन्दर नृत्यका उपभोग करते हैं ।२३१-२३३। • कामांध होकर बीते हुए समयको भी नहीं जानते है। · सुगन्धसे व्याप्त रागके स्थान भूत प्रासादमें रमण करते हैं। ।२३४-२३।। देवों के शयन और आसन मृदुन्न, विचित्र रूपसे रचित, शरीर एवं मनको आनन्दोत्पादक होते है ।२३६। ये देव स्पर्श, रस, रूप, सुन्दर शब्द और गंधसे वृद्धिको प्राप्त हुए सुखौंको अनुभव करते हुए क्षणमात्र भी तृप्तिको प्राप्त नहीं होते है ।२३७। ये कुमारदेव रागसे द्वीप, कुलाचल, भोगभूमि, नन्दनवन और उत्तम बावड़ी अथवा नदियोके तटस्थानो में भी क्रीडा करते हैं ।२३। त्रि.सा./२१६ अट्ठगुणि डिविसिट्ठणाणामणि भूसणेही दित्तंगा। भुजंनि भोगमिट्ठ सग्गपुवतवेण तत्थ मुरा ।२१६।' (ति प./८/५६०-५६४)। =तहाँ जे देव हैं ते अणिमा, महिमादि आठ गुण ऋद्धि करि विशिष्ट है, अर नाना प्रकार मणिका आभूषणनि करि प्रकाशमान हैं अंग जिनका ऐसे है। ते अपना पूर्व कीया तपका फल करि इष्ट भोगकों भोग4 हैं ।२१॥ ..देवोंके गमनागमनमें उनके शरीर सम्बन्धी नियम ति.प./८/५६५-५६६ गब्भावयारपहूदिसु उत्तरदेहासुराणगच्छति । जम्मण ठाणेसु सुहं मूलसरीराणि चेट्छति ।५६५ णवरि विसेसे एसो सोहम्मीसाणजाददेवाणं । बच्चंति मूलदेहा णियगियकप्पामराण पासम्मि । १६६-गर्भ और जन्मादि कल्याणकों में देवोके उत्तर शरीर जाते हैं, उनके मूल शरीर सुख पूर्वक जन्म स्थानमें रहते हैं ।५६५विशेष यह है कि सौधर्म और ईशान कल्पमें हुई देवियों के मूलशरीर अपने अपने कल्पके देवोंके पासमें जाते हैं ।५६६। घ. ४/१.३.१५/७६/8 अप्पणो ओहिखेत्तमेत्तं देवा विउव्वं ति त्ति जं आइरियवयणं तण्ण घडदे । - देव अपने अपने अवधिज्ञानके क्षेत्र प्रमाण विक्रिया करते हैं, इस प्रकार जो अन्य आचार्योंका वचन है, वह घटित नहीं होता। ९. ऊपर-ऊपरके स्वर्गों में सुख अधिक और विषय सामग्री हीन होती जाती है त.सू./४/२०-२१ स्थितिप्रभावसुखा तिलेश्याविशृद्धीन्द्रियावधिविषयतोऽधिका ।२० गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः १२३ = स्थिति, प्रभाव, सुख, ध ति, लेश्याविशुद्धि, इन्द्रिय विषय और अवधिविषयकी अपेक्षा ऊपर-ऊपरके देव अधिक हैं ।२० गति, शरीर, परिग्रह और अभिमानकी अपेक्षा ऊपर-ऊपरके देव हीन हैं ।२१॥ १०. ऊपर-ऊपरके स्वर्गों में प्रविचार भी हीन-हीन होता है और उसमें उनका वीर्यक्षरण नहीं होता त.सू /४/- कायप्रविचारा आ ऐशानात् ॥७शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनप्रवीचारा ।। परेऽप्रवीचार। -(भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष और ) ऐशान तकके देव काय प्रबीचार अर्थात शरीरसे विषयसुख भोगने वाले होते है।। शेष देव, स्पर्श, रूप, शब्द और मनसे विषय सुख भोगने वाले होते हैं। बाकीके सब देव विषय सुखसे रहित होते हैं ।। (मू.आ /११३६-११४४); (घ.१/१,१,६८/३३८/५), (ति.प./ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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