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देव
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II देव (गति)
ति.प./३/९३०-१३१ असुरादिभवणसुरा सब्वे ते होंति कायपविचारा।
वेदस्सुदोरणाए अनुभवणं माणुससमाणं ।१३०। धाउविहीणत्तादो रेदविणिग्गमणमत्थि ण हु ताणं । सकप्प सुहं जायदि वेदस्स उदीरणाविगमे १३१॥ =वे सब असुरादि भवनवासी देव (अर्थात् काय प्रविचार वाले समस्त देव) कायप्रविचारसे युक्त होते हैं तथा वेद नोकषायकी उदीरणा होनेपर वे मनुष्यों के समान कामसुखका अनुभव करते हैं। परन्तु सप्त धातुओंसे रहित होनेके कारण निश्चय से उन देवोंके वीर्यका क्षरण नहीं होता। केवल वेद नोकषायकी उदीरणा शान्त होनेपर उन्हें संकल्प सुख होता है।
३. सम्यक्त्वादि सम्बन्धी निर्देश व शंका-समाधान
१. देवगतिमें सम्यक्त्वका स्वामित्व ष, खं १/१,२/सू.१६६-१७१/४०५ देवा अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्भा
इट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्टि त्ति ।१६६। एवं जाव उवरिम-गेवेज-विमाण-वासिय-देवा त्ति ।१६७। देवा असंजदसम्माइट्ठिठाणे अस्थि खइयसम्माइट्ठी वेदयसम्माइट ठी उवसमसम्माइटिठ त्ति ।१६८। भव गवासिय-वाणवेंतर-जोइसिय-देवा देवीओ च सोधम्मीसाण-कम्पवासीय-देवीओ च असंजइसम्माइट्ठि-ठाणे खड्यसम्माइट्ठी णस्थि अवसेसा अस्थि अवसेसियाओ अस्थि ।१६।। सोधम्मीसाण-प्पहुडि जाव उवरिम-उवरिम-गेवज-विमाण-वासियदेवा असंजदसम्माइटिट्ठाणे अत्थि खझ्यसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उबसमसम्माइट्ठी ।१७०१ अणुदिस-अणुत्तर-विजय-वइजयंतजयंतावराजिदसवसिद्धि - विमाण - वासिय - देवा असंजदसम्माइदिठाणे अस्थि खायसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी ।१७१। - देव मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यावृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि होते है ।१६६। इस प्रकार उपरिम वेयकके उपरिम पटल तक जानना चाहिए ।१६७। देव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदगसम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते है ।१६८६ भवनवासी, वाणव्यन्तर और ज्योतिषी देव तथा उनकी देवियाँ और सौधर्म तथा ईशान कल्पवासी देवियों असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं होते है या नहीं होती हैं। शेष दो सम्यग्दर्शनोंसे युक्त होते हैं या होती है ।१६। सौधर्म और ऐशान कल्पसे लेकर उपरिम ग्रैवेयकके उपरिम भाग तक रहने वाले देव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमे क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदग सम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं ।१७०। नव अनुदिशों में और विजय, वैजयन्त, और जयन्त, अपराजित तथा सर्वार्थ सिद्धि इन पाँच अनुत्तरोंमे रहने वाले देव असंयत सम्यग्दृष्टिगुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदगसम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं ।१७१।
२. देवगतिमें गुणस्थानोंका स्वामित्व प.ख./१/११/./पृष्ठ देवा चदुसु हाणेसु अस्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि त्ति । (२८१२२५) देवा मिच्छाइट्ठि-सासणसम्भाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठि-ठाणे 'सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता ६४ सप्मामिच्छाइटिट्ठाणे णियमा पजता ।१५॥ भवणवासिय-वाणवेंतर-जोइसिय-देवा देवीओ सोधम्मीसाण-कप्पवासिय-देवीओ च मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइटि-ट्ठाणे सिया पज्जत्ता, सिया अप्पज्जत्ता, सिया पज्जत्तिओ सिया अपज्जत्तिओ १६ सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे णियमा पजत्त णियमा पज्जत्तियाओ। सोधम्मीसाण-प्पहुडि जाव उवरिम-उबरिम गेबज्जं ति विमाणवासिय-देवेसु मिच्छाइटि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठिाणे सिया पज्जत्ता मिया अपज्जत्ता ।६८) सम्माइट्ठिाणे णियमा पज्जत्ता ६ अणुदिस-अणुत्तर-विजय
वहजयंत-जयंतावराजितसम्वसिद्धि-बिमाण-वासिय-देवा असजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता ।१००। (६४१००/३३५) -मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यावृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थानोमे देव पाये जाते है ।२८॥ देव मिथ्या दृष्टि सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें पर्याप्त भी होते है और अपर्याप्त भी होते है।६४ा देव सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें नियमसे पर्याप्तक होते हैं । भवनवासी वाणव्यन्तर और ज्योतिषी देव और उनकी देवियाँ तथा सौधर्म और ईशान कल्पवासिनी देवियाँ ये सब मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें पर्याप्त भी होते है, और अपर्याप्त भी।६६। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें पूर्वोक्त देव नियमसे पर्याप्तक होते हैं ( गो जी./जी.प्र./७०३/११३७/९) और पूर्वोक्त देवियाँ नियमसे पर्याप्त होती हैं ।१७। सौधर्म
और ईशान स्वर्ग से लेकर उपरिम ग्रैवेयकके उपरिम भाग तक विमानवासी देवों सम्बन्धी मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें जीव पर्याप्त भी होते है और अपर्याप्त भी होते हैं ।१८) सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में देव नियमसे पर्याप्त होते है । नत्र अनुदिशमें और विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि इन पाँच अनुत्तर विमानो में रहनेवाले देव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं ।१००। [इन विमानोंमे केवल असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान ही होता है, शेष नहीं। ध.३/१,२,७२/२८२/१], (गो.जी./जी,प्र/७०३/ ११३७/८)। ध.४/१,५.२६३/४६३/६ अंतोमुहूत्तूणड्ढाइ जसागरोवमेसु उप्पण्णसम्मादिहिस्स सोहम्मणिवासिस्स मिच्छत्तगमणे संभवाभावादो । =अन्तर्मुहूर्त कम अढाई सागरोपमको स्थिति वाले देवोंमें उत्पन्न हुए सौधर्म निवासी सम्यग्दृष्टिदेवके मिथ्यात्वमें जानेकी सम्भावना
का अभाव है। गो.क./जी.प्र./५५१/७५३/१ का भावार्थ-सासादन गुणस्थानमे भवनत्रिकादि सहस्रार स्वर्ग पर्यन्तके देव पर्याप्त भी होते है, और अपयप्ति भी होते है। ३. अपर्याप्त देवोंमें उपशम सम्यक्त्व कैले सम्मव है ध.२/१,१/१५६/४ देवासंजदसम्माइट ठीणं कधमपजतेकाले उवसम
सम्मत्तं लभदि । बुच्चदेवेदगसम्मत्तमुक्सामिय उसमसेढिमारुहिय पुणो ओदरियपमत्तापमत्तसंजद-असंजद-संजदासंजद-उसमसम्माइट्ठि-ट्ठाणेहि मज्झिमतेउलेस्सं परिणमिय काल काऊण सोधम्मीसाण-देवेसुप्पण्णाणं अपज्जत्तकाले उबसमसम्मत्तं लब्भदि । अध ते चेव .. सणक्कुमार माहिदे...ब्रह्म-बह्मोत्तर-लोतव-का विट्ठसुक्क महासुक्क...सदारसहस्सारदेवेसु उप्पज्जंति । अध उवसमसेदि चढिय पुणो दिण्णा चेव मज्झिम-सुक्कलेस्साए परिणदा संता जदि कालं क्रेति तो उवसमसम्मत्तेण सह आणद-पाणद-आरणच्चुद-णवगेवज विमाणवासिय देवेसुप्पज्जति: पुणो ते चेव उक्कस्स-सुक्कलेस्सं परिणमिय जदि काल कर ति तो उवसमसम्मत्तेण सह णवाणुदिसपंचाणुत्तर विमाणदेवेसुप्पज्जति । तेण सोधम्मादि-उचरिमसव्वदेवासजदसम्माइट्ठीणमपज्जत्तकाले उवसमसम्मत्त लम्भदि त्ति। -प्रश्न-असंयत सम्यग्दृष्टि देवों के अपर्याप्त काल में औपशमिक सम्यक्त्व कैसे पाया जाता है। उत्तर-वेदक सम्यक्त्वको उपशमा करके और उपशम श्रेणीपर चढ़कर फिर वहाँसे उतरकर प्रमत्त संयत, अप्रमत्त संयत, असंयत, संयतासंयत, उपशम सम्यग्दृष्टि गुण स्थानोंसे मध्यम तेजोलेश्याको परिणत होकर और मरण करके सौधर्म ऐशान कल्पवासी देवोमें उत्पन्न होने वाले जीवोके अपर्याप्त कालमें औपशमिकसम्यक्त्व पाया जाता है। तथा उपर्युक्त गुणस्थानवर्ती ही जीव ( यथायोग्य उत्तरोत्तर विशुद्ध लेश्यासे मरण करें तो)
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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