Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 458
________________ देव विमान देवव्रत देव विमान-१. देवोंके विमानोंका स्वरूप -दे० विमान । २. या देव विमानों में चैत्य चैत्यालयका निर्देश-दे० चेत्य/चैत्यालया। देवसुत-भाविकालीन छठे तीर्थकर हैं। अपरनाम देवपुत्र व जय देव-दे० तीर्थंकर/५। दवसन-१. पंचस्तप संघकी गुर्वावलीके अनुसार-दे०इतिहास । आप वीरसेन (धवलाकार ) के शिष्य थे। समय-ई. ०२०-७० (म. पु./प्र./३१ ५ पन्नालाल)-दे० इतिहास /७/७ । २. माथुर संधी आ० विमल गणो के शिष्य तथा अमितगति प्र० के गुरु । कृतियेंदर्शनसार, भावसंग्रह, अाराधनासार, नयचक्र, आलापपद्धति, तत्वार्थसार, ज्ञानसार, धर्म संग्रह, सावय धम्मदोहा । समय-कि. १०-१०१२ (ई० ६३३-६५५) । दर्शनसार का रचनाकाल वि०६१०। (ती०/२/३६६)। (दे० इतिहास/७/१९)। (जै०/२/३18)। ३. पं० परमानन्द जी के अनुसार सुलोचना चरित्र के कर्ता देवसेन ही भावसंग्रह के कर्ता थे, देवसेन द्वि० नहीं। समय-वि. ११३२-१९९२ (ई०१०७५-१९३५) । (ती./२/३६८.४/१५१) ४. ह.पु./१०/१६ भोजकवृष्णिका पुत्र उग्रसेनका छोटा भाई था । ४. वरांगचरित /सर्ग| श्लोक ललितपुरके राजा थे, तथा वरांगके मामा लगते थे (१६/१३) । वरांगको युद्धमें विजय देख उसके लिए अपना आधा राज्य व कन्या प्रदान की (१६/३०)। देवागम स्तोत्र-दे०-आप्तमीमांसा देवारण्यक-उत्तर कुरु, देव कुरु व पूर्व विदेहके वनखण्ड-दे० लोक /३/६१४॥ देवीदास-आप झाँसी निवासी एक प्रसिद्ध हिन्दी जैन कवि थे। कवि वृन्दावनके समकालीन थे। हिन्दीके ललित छन्दों में निबद्ध आपकी निम्न रचनाएँ उपलब्ध हैं-१ प्रवचनसार; २ परमानन्द विलास; ३. चिद्विलास वचनिका; ४ चौबीसी पूजापाठ। समयआपने प्रवचनसार ग्रन्थ वि. १८२४ मे लिखा था। वि. १८१२-१८२४ (ई. १७५५-१७६७) (वृन्दावन विलास/प्र.१४ प्रेमी जी) (हि.जै.सा.इ./ २१८ कामता)। देवंद्र-आप नन्दिसंघके देशीयगणकी गुर्वावली (-दे० इतिहास) के अनुसार गुणनन्दिके शिष्य तथा वसुनन्दिके गुरु थे /श.सं./७८२ के ताम्रपत्रके अनुसार मान्यखेटके राजा अमोघवर्ष द्वारा एक देवेन्द्र आचार्यको दान देनेका उल्लेख मिलता है। सम्भवतः यह वही हों। समय- शक.७८०-८२०; वि. ६१५-६५: (ई.८५८-८४८) (म.पु./प्र. ४१ प. पन्नालाल) (प.व.२/प्र.१० H.L. Jain)-दे० इतिहास/७/५ । देवंद्र काति-नन्दिसंघ सुरत शाखा के आद्य भट्टारक । समय-वि.१४५०-१४६६ (ई. १३९३-१४४२) । दे० इतिहास/७/४ । २. कथाकोष आदि के रचयिता सांगानेर के भट्टारक । समय-वि. १९४०-१६०२ (भद्रबाहु चरित्र /प्र०४/-उदयलाल)। ३. कल्याण मन्दिर तथा विषापहार पूजा के रचयिता कारजाशाखा के भट्टारक। समय-वि.१७७८-१७८६। (ती./३/४४८)। ४, कालिका पुराण के रचयिता मराठी कवि जो संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा गुजराती भाषा में भी दक्ष थे। (ती./४/३२१)। देवेंद्र सूरि-कर्मविपाक, कर्मस्तव, बन्धस्वामित्व, षडशीति, शतक तथा इन पांचों की स्वोपज्ञ रीका के रचयिता गुरु जगच्चन्द्र सुरि। समय-वि. श०१३ के अन्त से वि०१३२७ तक । (जै०१/४३६) । देश--१.देशका लक्षण १. देश सामान्य ध.१३/५,५,६३/३३५/३ अंग-मंग-कलिग-मगधादओ देसो णाम । - अंग, बंग, कलिग और मगध आदि देश कहलाते है। २. देश द्रव्य पं.प./पू./१४७ का भावार्थ-स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल तथा स्थभाष इन सबके समुदायका नाम देश है। ३. देश अवयव रा. वा./७/२/१/५३५/१८ कुतश्चिदवयवाद दिश्यत इति देश प्रदेशः, एकदेश इत्यर्थः । कहीं पर देश शब्द अवयव अर्थ में होता है। जैसे--देश अर्थात् एक भाग । ध.१३/५.३.१८/१८/६ एगस्स दब्वस्स देसं अवयवं। =एकद्व्य का देश अर्थात अवयव। गो.क./जी.प्र./७८५/१५१/५ देशेन लेशेन एकमसंयम दिशति परिहरतीति देशैकदेश देशसंयतः। -देश कहिए लेश किचित एक जु है असंयम ताको परिहारे है ऐसा देशैकदेश कहिए देशसंयत । ४. देशसम्यक्त्व ध.१३/५,५०५६/३२३/७ देसं सम्मेत्तं । -देशका अर्थ सम्यक्त्व है। २. एकदेश लक्षण पं.ध./प्र./ नामैक्देशेन नामग्रहणं । = नामके एकदेश ग्रहणसे पूर्ण देश का ग्रहण हो जाता है, उसे एकदेश न्याय कहते हैं। देशक्रम-दे० क्रम/११ देशघाती प्रकृति-अनुभाग/४। देशघाती स्पर्धक-दे० स्पर्धक । देशचारित्र-दे० संयतासंयत । देशनालब्धि-दे० लब्धि/३। देशप्रत्यक्ष-दे० प्रत्यक्ष/१ । देशभूषण-प.पु/३६/श्लोकवंशधर पर्वतपर ध्यानारूढ थे (३३)। पूर्व वैरसे अग्निप्रभ नाम देवने घोर उपसर्ग किया (१५), जो कि वनवासी रामके आनेपर दूर हुआ (७३)। तदनन्तर इनको केवलज्ञान हो गया (७५)। देशविरत-देविरताविरत । देशवत-१. देशव्रतका लक्षण र.क.श्रा./१२-६४ देशवकाशिकं स्यात्कालपरिच्छेदनेन देशस्य। प्रत्यह मणुव्रताना प्रतिसंहारो विशालस्य ।। गृहहारिग्रामाणां क्षेत्रनदीदावयोजनानां च । देशावकाशिकस्य स्मरन्ति सीम्नां तपोवृद्धाः ।१३। संवत्सरमृतुरयनं मासचतुर्मासपक्षमसं च। देशावकाशिकस्य प्राहू कालावधि प्राज्ञाः।१४। -दिग्वतमें प्रमाण किये हुए विशाल देशमें कालके विभागसे प्रतिदिन त्याग करना सो अणुबतधारियोंका देशावकाशिक बत होता है ।१२। तपसे वृद्धरूप जे गणधरादिक हैं, वे देशावका शिकवतके क्षेत्रकी मर्यादा अमुक घर, गली अथवा कटकछावनी ग्राम तथा खेत, नदी, वन और किसी योजन तककी स्मरण करते हैं अर्थात कहते हैं ।।३। गणधरादिक ज्ञानी पुरुष देशावका शिक व्रतकी एक वर्ष, दो मास, छह मास, एक मास, चार मास, एक पक्ष और नक्षत्र तक कालकी मर्यादा कहते हैं ६४ा (सा-ध-/१/२५) (ला.सं./६/१२२) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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