Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 463
________________ द्रव्य ४५५ ३. षद्रव्य विभाजन द्रव्यको स्वद्रव्य कहते हैं। जिस प्रकार शुद्धात्मद्रव्यमें दिखाया गया उसी प्रकार यथासम्भव सर्वपदार्थोमे भी जानना चाहिए। पं.ध/पू./७४,२६४ अयमत्राभिप्रायो ये देशा सदगुणास्तदंशाश्च । एकालापेन समं द्रव्यं नाम्ना त एव निःशेषम् ।७४। एका हि महासत्ता सत्ता वा स्यादवान्तराख्या च। पृथकप्रदेशवत्वं स्वरूपभेदोऽपि नानयोरेव ।२६४१ =देश सवरूप अनुजीवीगुण और उसके अंश देशांश तथा गुणांश हैं। वे ही सब युगपतएकालापके द्वारा नामसे द्रव्य कहे जाते हैं 1७४। निश्चयसे एक महासत्ता तथा दूसरी अवान्तर नामकी सत्ता है। इन दोनों ही में पृथक् प्रदेशपना नहीं है तथा स्वरूपभेद भी नहीं है। २. द्रव्य निर्देश व शंका समाधान १. एकान्त पक्षमें द्रव्यका लक्षण सम्मव नहीं रा.वा./५/२/१२/४४१/१ द्रव्यं भव्ये इत्ययमपि द्रव्यशब्दः एकान्तवादिनां न संभवति, स्वतोऽसिद्धस्य द्रव्यस्य भव्यार्थासंभवात् । संसर्गवादिनस्तावत् गुणकर्म "सामान्यविशेषेभ्यो द्रव्यस्यात्यन्तमन्यत्वे खरविषाणकल्पस्य स्वतोऽसिद्धत्वात न भवनक्रियाया. क्तृत्वं युज्यते।... अनेकान्तबादिनस्तु गुणसन्द्रावो द्रव्यम्, द्रव्यं भव्ये इति चोत्पद्यत. पर्यायिपर्याययोः कथं चिद्भ दोपपत्ते रित्युक्तं पुरस्तात्। -एकान्त अभेद वादियों अथवा गुण कर्म आदिसे द्रव्यको अत्यन्त भिन्न माननेवाले एकान्त संसर्गवादियोंके हॉ द्रव्य ही सिद्ध नहीं है जिसमें कि भवन क्रियाकी कल्पना की जा सके। अतः उनके हॉ 'द्रव्यं भव्ये' यह लक्षण भी नहीं बनता ( इसी प्रकार 'गुणपर्ययवद् द्रव्य' या 'गुणसमुदायो द्रव्यं' भी वे नहीं कह सकते-दे० द्रव्य१/४)अनेकान्तवादियोंके मत में तो द्रव्य और पर्यायमें कथंचित् भेद होनस गुणसन्द्रावो द्रव्यं' और 'द्रव्यं भव्ये' (अथवा अन्य भी) लक्षण बन जाते हैं। ज्ञान भी सम्भव है। तथा ज्ञानमें भी ज्ञेयाकाररूपसे वे विद्यमान रहती हैं, इसलिए कोई विरोध नहीं है)। ३. षद्रव्योंकी संख्याका निर्देश गो, जी./मू./५८८/१०२७ जीवा अणं तसंखाणं तगुणा पुग्गला हु तत्तो दु । धम्मतियं एक्केक्कं लोगपदेसप्पमा कालो।५८८- द्रव्य प्रमाणकरि जीवद्रव्य अनन्त हैं, बहुरि तिनितें पुद्गल परमाणु अनन्त हैं, बहुरि धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य और आकाशद्रव्य एक-एक ही हैं, जातै ये तीनों अखण्ड द्रव्य हैं। बहुरि जैते लोकाकाशके (असंख्यात) प्रदेश हैं तितने कालाणु हैं । (त. सू./१६)। १. षद्रव्यों को जाननेका प्रयोजन प.प्र./मू./२/२७ दुक्खहँ कारणु मुणिवि जिय दव्वहँ एहु सहाउ। होयवि मोवरवहँ मग्गि लहु गम्मिज्जइ परलोउ ।२७ = हे जीव परद्रव्योंके ये स्वभाव दुःखके कारण जानकर मोक्षके मार्ग में लगकर शीघ ही उत्कृष्टलोकरूप मोक्षमें जाना चाहिए । न. च. वृ./२८४ में उदधृत-णियदव्यजाणण8 इयरं कहियं जिणेहि छहब्वं । तम्हा परबद्दव्वे जाण गभावोण होइ सण्णाणं । न. च. वृ./१० णायव्वं दवियाणं लक्खणसंसिद्धिहेउगुणणियरं। तह पज्जायसहावं एयंतविणासणछा वि।१०।-निजद्रव्यके ज्ञापनार्थ ही जिनेन्द्र भगवान्ने षट् द्रव्योंका कथन किया है। इसलिए अपनेसे अतिरिक्त पर षद्रव्यों को जाननेसे सम्यग्ज्ञान नहीं होता। एकान्तके विनाशार्थ द्रव्योके लक्षण और उनकी सिद्धिके हेतुभूत गुण व पर्याय स्वभाव है, ऐसा जानना चहिए । का. आ. म./२०४ उत्तमगुणाणधामं सबदब्याण उत्तम दव्यं । तच्चाण परमतच्चं जीव जाणेह णिच्छयदो ।२०४। -जीव ही उत्तमगुणोंका धाम है, सब द्रव्यों में उत्तम द्रव्य है और सब तत्त्वों में परमतत्त्व है, यह निश्चयसे जानो। पं. का./ता. वृ /१५/३३/१६ अत्र षट् द्रव्येषु मध्ये...शुद्धजीवास्तिकायाभिधानं शुद्वात्मद्रव्यं ध्यातव्यमित्यभिप्राय' छह द्रव्यों में से शुद्ध जीवास्तिकाय नामवाला शुद्धात्मद्रव्य ही ध्यान किया जाने योग्य है, ऐसा अभिप्राय है। द्र. सं./टी./अधिकार २ की चूलिका/पृ.७१/८ अत ऊवं पुनरपि षट् द्रव्याणा मध्ये हेयोपादेयस्वरूपं विशेषेण विचारयति । तत्र शुद्धनिश्चयनयेन शक्तिरूपेण शुद्धबुदै कस्वभावत्वात्सर्वे जीवा उपादेया भवन्ति । व्यक्तिरूपेण पुन' पञ्चपरमेष्ठिन एव । तत्राप्यर्हत्सिद्धद्वयमेव । तत्रापि निश्चयेन सिद्ध एव । परमनिश्चयेन तु...परमसमाधिकाले सिद्धसदाश' स्वशुद्धारमैवोपादेय. शेषद्रव्याणि हेयानीति तात्पर्यम् । तदनन्तर छह द्रव्यों में से क्या हेय है और क्या उपादेय इसका विशेष विचार करते हैं। वहाँ शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा शक्तिरूपसे शुद्धबुद्ध एक स्वभावके धारक सभी जीव उपादेय हैं, और व्यक्तिरूपसे पंचपरमेष्ठी ही उपादेय है। उनमें भी अर्हन्त और सिद्ध ये दो ही उपादेय हैं । इन दो में भी निश्चयनय की अपेक्षा सिद्ध ही उपादेय हैं। परम निश्चयनयसे परम समाधिके काल में सिद्ध समान निज शुद्धात्मा ही उपादेय है। अन्य द्रव्य हेय है ऐसा तात्पर्य है। २. द्रव्यमें त्रिकाली पर्यायोंका सद्भाव कैसे सम्भव है श्लो.वा.२/१/५/२६६/१ नन्वनागतपरिणामविशेष प्रति गृहीताभिमुख्य द्रव्य मिति द्रव्यलक्षणमयुक्तं, गुणपर्ययवद्रव्यमिति तस्य सूत्रितत्वात, तदागमविरोधादिति कश्चित, सोऽपि सूत्रानभिज्ञः। पर्ययवद्द्रव्यमिति हि सूत्रकारेण वदता त्रिकालगोचरानन्तक्रमभाविपर्यायाश्रितं द्रव्यमुक्तम्। तच्च यदानागतपरिणामविशेष प्रत्यभिमुख तदा वर्तमानपर्यायाक्रान्तं परित्यक्तपूर्वपर्यायं च निश्चीयतेऽन्यथानागतपरिणामाभिमुख्यानुपपत्तेः रखरविषाणादिवत् ।-निक्षेपप्रकरणे तथा द्रव्यलक्षणमुक्तम् । = प्रश्न - भविष्यमें आनेवाले विशेष परिणामों के प्रति अभिमुखपनेको ग्रहण करनेवाला द्रव्य है' इस प्रकार द्रव्यका लक्षण करनेसे 'गुणपर्ययवद्रव्यं' इस सूत्रके साथ विरोध आता है। उत्तर-आप सूत्रके अर्थ से अनभिज्ञ हैं । द्रव्यको गुणपर्यायवान् कहनेसे सूत्रकारने तीनों कालोंमें क्रमसे होनेवाली अनन्त पर्यायोका आश्रय हो रहा द्रव्य कहा है। वह द्रव्य जब भविष्यमें होनेवाले विशेष परिणामके प्रति अभिमुख है, तम वर्तमाबकी पर्यायोंसे तो घिरा हुआ है और भूतकाल की पर्यायको छोड़ चुका है, ऐसा निर्णीतरूपसे जाना जा रहा है । अन्यथा खरविषाणके समान भविष्य परिणामके प्रति अभिमुखपना न बन सकेगा। इस प्रकारका लक्षण यहाँ निक्षेपके प्रकरणमें किया गया है । ( इसलिए) क्रमश.ध. १३१५.५,७०/३७०/११ तीदाणागयपज्जायाणं सगसरूवेण जीवे संभवादो। -(जिसका भविष्यमें चिन्तवन करेंगे उसे भी मन:पर्ययज्ञान जानता है ) क्योंकि, अतीत और अनागत पर्यायौंका अपने स्वरूपसे जीवमें पाया जाना सम्भव है। (दे० केवलज्ञान/१२)-(पदार्थ में शक्तिरूपसे भूत और भविष्यत्की पर्याय भी विद्यमान हो रहती है, इसलिए, अतीतानागत पदार्थोंका ३. षटद्रव्य विभाजन १. चेतनाचेतन विभाग प्र. सा./मू./१२७ दव्यं जीवमजीवं जीवो पुण चेदणोवोगमओ। पोग्गलदव्बप्पमुहं अचेदणं हवदि य अज्जीवं द्रव्य जीव और अजीवके भेदसे दो प्रकार हैं। उसमें चेतनामय तथा उपयोगमय जीव है और जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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