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धर्म
अस्थिसम्यक्त्वसे रहित ध्यानके असंख्यात गुणश्रेणीरूप कर्मनिर्जरा के कारण न होनेसे 'ज्ञानध्यान' यह संज्ञा वास्तविक नहीं है। स. सा. / . / २०१ भोगनिमित्तं शुभकर्म मात्रमवृतार्थमेवभोगके निमित्त शुभकर्ममात्र जो कि बतार्थ हैं (उनकी ही अभव्य श्रद्धा करता है ) ।
जन. प./१६/१०६ व्यवहारमभूतार्थं प्राणो भूतार्थ-विमुखजनमोहाय । केवलमुपयुञ्जानो व्यजनवारयति स्वार्थादि । भूतार्थ से विमुख रहनेवाले व्यक्ति मोहवश अभूतार्थ व्यवहार क्रियाओंमें ही उपयुक्त रहते हुए, स्वर रहित व्यञ्जनके प्रयोगवत् स्वार्थ से भ्रष्ट हो जाते हैं । पं. ध. /उ. / ४४४ नापि धर्मः क्रियामात्रं मिथ्यादृष्टेरिहार्थत' । - मिथ्यादृष्टि केवल क्रियारूप धर्मका पाया जाना भी धर्म नहीं हो सकता । पं. ०९० न धर्मस्तद्विना क्यचित्। सम्यग्दर्शनके बिना कहीं भी वह ( सागार या अनगार धर्म ) धर्म नहीं कहलाता ।
५. सम्यक्त्व रहित धर्म परमार्थसे अधर्म व पाप है
म. सा./आ./२००/क. १३७ सम्यग्दृष्टि स्वयमहं जातु बंधो न मे स्यादित्युत्तानोत्पुलकत्रदना रागिणोऽप्याचरन्तु । आलम्बन्त समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा, आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिता' | १३०| यह मैं स्वयं सम्बन्द है, मुझे कभी बन्ध नहीं होता. ऐसा मानकर जिनका मुख गर्नसे ऊँचा और पुलकित हो रहा है, ऐसे रागी जीव भले ही महाव्रतादिका आचरण करें तथा समितियोंकी उत्कृष्टताका आलम्बन करे, तथापि वे पापी ही हैं, क्योंकि वे आत्मा
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और अनात्माके ज्ञानसे रहित होनेसे सम्यक्त्व रहित हैं । पं. घ. /उ. ४४४ नापि धर्मः क्रियामात्र निष्यादृप्टेरिहार्थतः । नित्य रागादिसद्भावादयुताधर्म एव स १४४४ मिध्यादृष्टि सदा रागादि भावोंका सद्भाव रहनेसे केवल कियारूप धर्मका पाया जाना भी भारत में धर्म नहीं हो सकता, किन्तु व अधर्म ही है।
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६. सम्यक्त्व रहित धर्म वृथा व अकिंचित्कर है
स. सा./मू./१५२ परमट्ठम्हि दु अठिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेई । यं सव्वें भाव भाव मिति सन् १९५२ - परमार्थ में अस्थित जो जीव तप करता है और व्रत धारण करता है, उसके उन सब तप और व्रतको सर्वज्ञ देव बाल तप और बालवत कहते हैं । मो.पा./मू./६६ किं काहिदि बहिकम्मं किं काहिदि बहुविहं च खवणं तु । किं काहिदि आदावं आदसहावस्स विवरीदो | ६६ - आत्मस्वभावसे विपरीत क्रिया क्या करेगी, अनेक प्रकारके उपवासादि तप भी क्या करेंगे, तथा आतापन योगादि कायक्लेश भी क्या करेगा। भ.आ./मू./गा. नं. ३ जे वि अहिंसादिगुणा मरणे मिच्यत्तकडुनिदा होति । ते तस्स कडुगदोद्धियगदं च दुद्ध हवे अफला ॥५७॥ तह मिच्छन्त कडु गिदे जीवै तवणाणचरणविरियाणि । णासंति वंतमिच्छसम्मिय सफलाणि जायंति ॥ ७३४ | घोडगलिंडसमाणस्स तस्स अब्भंतरम्मि कधिदस्स | अहिरकरणं किं से काहिदि नगदिकरणस्स । | १३४७| अहिंसा आदि आत्माके गुण हैं, परन्तु मरण समय ये मिध्यात्वसे युक्त हो जायें तो कड़वी तुम्बी में रखे हुए दूधके समान पर्थ होते हैं। मिध्यात्वके कारण विपरीत, श्रद्धानी बने हुए इस जीव तप, ज्ञान, चारित्र और वीर्य से गुण नष्ट होते हैं, और मिथ्यात्व रहित तप आदि मुक्तिके उपाय हैं । ७३४१ घोड़ेकी लीद दुर्गन्धयुक्त रहती है परन्तु बाहरसे वह स्निग्ध कान्तिसे युक्त होती है। अन्दर भी वह वैसी नहीं होती। उपर्युक्त दृष्टान्तके समान किसी पुरुषका मुनिका आचरण ऊपरसे अच्छा-निर्दोष दीख पड़ता है परन्तु उसके अन्दरके विचार कषायसे मलिन - अर्थात् गन्दे रहते है । यह बाह्याचरण उपवास, अवमोटर्यादिक तप उसकी कुछ उन्नति नहीं करता है क्योंकि इन्द्रिय कषायरूप,
३. निश्चयधर्मकी कथंचित् प्रधानता
अन्तरंग मलिन परिणामोंसे उसका अभ्यन्तर तप नष्ट हुआ है, जैसे बगुला ऊपरसे स्वच्छ और ध्यान धारण करता हुआ दीखता परन्तु अन्तरंग में मत्स्य मारनेके गन्दे विचारोंसे युक्त ही होता है
यो सा./यो./३९ बतउसंजमुसीलु जिय ए सव्व
अकत्थु । जांब
ण जाणइ इक्क परु सुद्धउ भाउ पवित्तु ॥ ३१। जब तक जीवको एक परमशुद्ध पवित्रभावका ज्ञान नहीं होता, तब तक व्रत, तप, संयम और फीस मे सम कुछ भी कार्यकारी नहीं है।
आ. अनु./९५ शमबोधवृतपसां पाषाणस्येव गौरवं पुंसः पूज्यं महामणेरिव सदेव सम्यक्त्वयुक्त्यम् ॥१५॥ - पुरुषके सम्यसे रहित | शान्ति ज्ञान, चारित्र और तप इनका महत्त्व पत्थरके भारीपन के समान व्यर्थ है । परन्तु वही उनका महत्त्व यदि सम्यक्त्वसे सहित है तो मूल्यवान् मणिके महत्व के समान पूज्य है ।
पं. वि./१/५० अन्यस्यतान्तरहशं किमु लोकभक्त्या मोहं कृशीकुरुत किंवा कृमेन एतद्वयं यदि न कि बहुभिर्नियोगे, लेकि किमपरे प्रचुरैस्तपोभिः ॥५०॥ हे मुनिजन । सम्यग्ज्ञानरूप अभ्यन्रनेत्रका अभ्यास कीजिए। आपको लोकभक्तिसे क्या प्रयोजन है । इसके अतिरिक्त आप मोहको कृश करें। केवल शरीरको कृश करनेसे कुछ भी लाभ नहीं है। कारण कि यदि उक्त दोनों नहीं हैं तो फिर उनके बिना बहुत यम नियमोरी, कायक्लेशों से और दूसरे प्रपुर तपोंसे कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता ।
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ब्र. सं./टी./ ४१/१६६/७ एवं सम्यक्त्वमाहात्म्येन शानतपश्चरणमतोपशमध्यानादिकं मिध्यात्वरूपमपि सम्बन्धवति तदभावे विषयुक्तदुग्धमिव सर्व वृथेति ज्ञातव्यम् । सम्यक्त्वके माहात्म्यसे मिथ्याज्ञान, तपश्चरण, व्रत, उपशम तथा ध्यान आदि हैं वे सम्यक् हो जाते हैं । और सम्यक्ess fair fवष मिले हुए दूधके समान ज्ञान तपश्चरमादि सब वृथा हैं, ऐसा जानना चाहिए।
३. निश्चयधर्मकी कथंचित् प्रधानता
१. निश्चय धर्म ही भूतार्थ है
स.सा./आ./२७५ ज्ञानमात्रं भूतार्थं धर्मं न श्रद्धते । = अभव्य व्यक्ति ज्ञानमात्र भूतार्थ धर्म की श्रद्धा नहीं करता ।
२. शुभ अशुभसे अतीत तीसरी भूमिका हो वास्तविक धर्म है
प्र.सा./मू./१०१ परिणामो पुग्यं असुहो पाव ति भणियम परिणामो दो दुक्खयकारणं समये परके प्रति शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है और दूसरेके प्रति प्रवर्तमान नहीं है ऐसा परिणाम, आगममें दुःख क्षयका कारण कहा है । (प.प्र./२/७१)
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स. श. / ८३ अपुण्यमवतैः पुण्यं वर्तेर्मोक्षस्तयोर्व्ययः । अवतानीव मोक्षार्थी मतान्यपि ततस्त्यजेत्। हिसादि अमतोंसे पाप तथा अहिंसादि मतों से पुण्य होता है। पुण्य व पाप दोनों कर्मोंका विनाश मोक्ष है। अतः मुमुक्षुको अबतकी भाँति बतोंको भी छोड़ देना चाहिए। (मो.सा./पो./१२) (बा.बनु./१०१) (ज्ञा./१२/००) यो.सा./अ./१/७२ सर्वत्र य' सदोदास्ते न च द्वेष्टि न च रज्यते । प्रत्यास्यानावतिकान्तः स दोषाणामचेतः ॥७२॥ जो महानुभाव सर्वत्र उदासी भाव रखता है, तथा न किसी पदार्थ में द्वेष करता है। और न राग, वह महानुभाव प्रत्याख्यानके रहित हो जाता है।
द्वारा समस्त दोषों से
दे० चारित्र /४/१ (प्रत्याख्यान व अप्रत्याख्यानसे अतीत अप्रत्याख्यानरूप तीसरी भूमिका ही अमृतकुम्भ है)
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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