Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 462
________________ द्रव्य ४५४ १. द्रव्यके भेद व लक्षण १. द्रव्यका लक्षण गुणपर्यायवान् द्रव्य होना है इस प्रकार कहनेवाले सूत्रकारने तीनों कालों में क्रमसे होनेवाली पर्यायो का आश्रय हो रहा द्रव्य कहा है। त. सू./२/३८ गुणपर्ययवद्गद्रव्यम् ।३८॥ गुण और पर्यायोवाला द्रव्य है। प्र. सा./त.प्र /३६ ज्ञेय तु वृत्तवर्तमानवतिष्यमाणविचित्रपर्यायपरम्परा(नि. सा.मू./8); (प्र. सा./मू./81) (पं. का./मू./१०) (न्या. वि./ प्रकारेण विधाकालकोटिस्पर्शित्वादनाद्यनन्तं द्रव्यं । =शेय-वर्तमू./९/११/४२८) (न.च./वृ./३७) (आ. प./६), (का.अ././ चुकी, वर्तरही और वत नेवाली ऐसी विचित्र पर्यायोके परम्पराके २४२).(त. अनु./१००) (पं.ध/पू./४३८)। प्रकारसे त्रिधा कालकोटिको स्पर्श करता हानेसे अनादि अनन्त स. सि./५/३८/३०६ पर उद्धृत-गुण इदि दब्यविहाण दव्व विकारो द्रव्य है। हि पज्जबो भणिदो। तेहि अणूणं दव्वं अजुपदसिद्ध हवे णिच्चं । - द्रव्यमें भेद करनेवाले धर्मको गुण और द्रव्यके विकारको पर्याय कहते ७. द्रव्यके अन्वय सामान्यादि अनेकों नाम है । द्रव्य इन दोनोंसे युक्त होता है। तथा वह अयुतसिद्ध और नित्य स.सि /१/३३/१४०/६ द्रव्यं सामान्यमुत्सर्ग अनुवृत्तिरित्यर्थः। द्रव्यका होता है। अर्थ सामान्य उत्सर्ग और अनुवृत्ति है। प्र. सा /त. प्र./२३ समगुण पर्यायं द्रव्यं इति बचनात् । 'युगपत् सर्व- पं.ध/पु./१४३ सत्ता सत्त्वं सद्वा सामान्यं द्रव्यमन्वयो वस्तु । अर्थो गुणपर्याये ही द्रव्य है' ऐसा वचन है। (प.घ./पू. ७३ )। विधिरविशेषादेकार्थवाचका अमी शब्दाः । सत्ता, सत् अथवा सत्त्व, पं.ध./पू. ७२ गुणपर्ययसमुदायो द्रव्यं पुनरस्य भवति वाक्यार्थ: = सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ और विधि ये नौ शब्द सामान्य-- गुण और पर्यायोंके समूहका नाम ही द्रव्य है और यही इस व्यके रूपसे एक द्रव्यरूप अर्थ के ही वाचक हैं । लक्षणका वाक्यार्थ है। 1. द्रव्यके छह प्रधान भेद पं.ध./पू./७३ गुणसमुदायो द्रव्यं लक्षण मेतावताऽप्युशन्ति बुधा । समगुणपर्यायो वा द्रव्यं कैश्चिन्निरूप्यते वृद्ध, गुणो के समुदायको _नि सा // जीवा पोग्गल काया धम्माधम्मा य काल आयासं । तच्चस्था द्रव्य कहते हैं; केवल इतनेसे भी कोई आचार्य द्रव्यका लक्षण करते इदि भणिदा जाणागुणपज्जएहि संजुत्ता ! =जीव, पुद्गल काय, है, अथवा कोई कोई वृद्ध आचार्यों द्वारा युगपत् सम्पूर्ण गुण और धर्म, अधर्म, काल और आकाश ये तत्त्वार्थ कहे हैं जो कि विविध पर्याय ही द्रव्य कहा जाता है। गुण और पर्यायोसे सयुक्त हैं। त.मू./५/१-३,३६ अजीबकाया धर्माधर्माकाशपुद्गला' ।। द्रव्याणि ॥२॥ ५. द्रष्यका लक्षण ऊध्वं व तिर्यगंश आदिका समूह जीवाश्च ।३। कालश्च ।। = धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये अजीयकाय है ।१। ये चारो द्रव्य है। जीव भी द्रव्य है ।३। काल भ्या वि./मू./१/११५/४२८ गुणपर्ययवद्रव्यं ते सहक्रमप्रवृत्तय । - गुण और पर्यायोवाला द्रव्य होता है और वे गुण पर्याय क्रमसे सह प्रवृत्त और भी द्रव्य है ।३।। (यो.सा./अ./२।१) (द्र,स./मू./१५।५०) । क्रमप्रवृत्त होते है। ९, द्रब्यके दो भेद संयोग व समवाय द्रव्य प्र.सा./त.प्र./१० वस्तु पुनरूतासामान्यलक्षणे द्रव्ये सहभावि विशेष ध.१/१,१,९/१०/६ दबं दुबिह, संजोगदव्वं समवायदव्वं चेदि । (नाम लक्षणेषु गुणेषु क्रमभावि विशेषलक्षणेषु पर्यायेषु व्यवस्थितमुत्पादत्यय निक्षेपके प्रकरण में) द्रव्य-निमित्तके दो भेद हैं-संयोगद्रव्य और धौव्यमयास्तित्वेन निवर्तितनिवृत्तिमच्च । = वस्तु तो ऊर्ध्वता समवायद्रव्य। सामान्यरूप द्रव्यमे, सहभावी विशेषस्वरूप गुणो में तथा क्रमभावी विशेषम्वरूप पर्यायोंमे रहो हुई और उत्पादव्ययधौव्यमय अस्तित्वसे १०. संयोग व समवाय द्रव्यके लक्षण बनी हुई है। प्र.सा./त.प्र./६३ इह खलु यः कश्चन परिच्छिद्यमान पदार्थ. स सर्व एव ध.१/१.१,१/१७/६ तत्थ संजोयदव्यं णाम पुध पुध पसिद्धाणं दव्वाण संजोगेण णिप्पण। समवायदव्वं णाम जं दव्वम्मि समवेदं ।... विस्तारायत-सामान्यसमुदायात्मना द्रव्येणाभिनिवृतत्वाद द्रव्यमय । संजोगदव्य णिमित्त णाम दंडी छत्ती मोली इच्चेवमादि । समवायमाम इस विश्वमे जो कोई जाननेमे आनेवाला पदार्थ है, वह समस्त ही णिमित्तं णाम. गलगंडो काणो कुंडो इच्चेवमाइ। - अलग-अलग विस्तारसामान्य समुदायात्मक (गुणसमुदायात्मक) और आयतसामान्य_ सत्ता रखनेवाले दव्योके मेल से जो पैदा हो उसे संयोग द्रव्य कहते समुदायात्मक (पर्यायसमुदायात्मक) द्रव्यसे रचित होनेसे द्रव्यमय है। हैं। जो द्रव्य में समवेत हो अर्थात् कथंचित तादात्म्य रखता हो उसे समवायव्य कहते हैं। दण्डी, छत्री, मौली इत्यादि संयोगद्रव्य ६. द्रव्यका लक्षण त्रिकाली पर्यायोंका पिंड निमित्तक नाम है; क्यों कि दण्डा, छत्री, मुकुट इत्यादि स्वतन्त्र ध.१/१,१,१३६/गा.१६६/१८६ एय दबियम्मि जे अत्थपज्जया वयण सत्तावाले पदार्थ हैं और उनके संयोगसे दण्डी, छत्री, मौली इत्यादि पज्जया यावि । तीदाणागयभूदा ताव दियं तं हवइ दव्वं १६६। नाम व्यवहार में आते है। गलगण्ड, काना, कुबड़ा इत्यादि समवाय -एक द्रव्यमें अतीत अनागत और 'अपि' शब्दसे वर्तमान पर्यायरूप द्रव्यनिमित्तक नाम हैं, क्योंकि जिसके लिए गलगण्ड इस नामका जितनी अर्थ पर्याय और व्यंजनपर्याय है, तत्प्रमाण वह द्रव्य होता उपयोग किया गया है उससे गलेका गण्ड उससे भिन्न सत्तावालाहै। (ध.३/१,२,१/गा.४/६) (ध.६/४,१,४५/गा.६७/१८३) (क.पा.१/१,१४/ नहीं है । इसी प्रकार काना, कुबडा आदि नाम समझ लेना चाहिए। गा.१०८/२५३) (गो.जी/मू /५८२/१०२३) । आप्स. मी/१०७ नयोपनयकान्तानां त्रिकालानां समुच्चयः। अविष्व ११. स्व व पर द्रव्यके लक्षण ग्भावसंबन्धो द्रव्यमेकमनेकधा।१०७/-जो नैगमादिनय और उनकी प्रसा./ता वृ./११५/१६१/१० विवक्षितप्रकारेण स्वद्रव्यादिचतुष्टयन शाखा उपशाखारूप उपनयो के विषयभूतः त्रिकालवर्ती पर्यायोका तच्चतुष्टयं, शुद्धजीव विषये कथ्यते । शुद्धगुणपर्यायाधारभूतं शुद्धात्मअभिन्न सम्बन्धरूप समुदाय है उसे द्रव्य कहते है । (धः३/१,२,१/गा. द्रव्यं द्रव्यं भण्यते ।...यथा शुद्धात्मद्रव्ये दर्शितं तथा यथासंभवं ३/५); (घ.६/४,१,४५/गा.६६/१८३) (ध.१३/५,५.५६/गा.३२/३१०)। सर्व पदार्थेषु द्रष्टव्यमिति। = विवक्षितप्रकारसे स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, श्लो.वा.२/१/३/६३/२६९/३ पर्ययवद्रव्यमिति हि सूत्रकारैण बदता स्वकाल और स्वभाव, ये चार बातें स्वचतुष्टय कहलाती हैं। तहाँ त्रिकालगोचरानन्तक्रमभाविपरिणामाश्रियं द्रव्यमुक्तम् । -- पर्यायवाला शुद्ध जीवके विषयमें कहते हैं । शुद्ध गुणपर्यायोंका आधारभूत शुद्धात्म जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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