Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 443
________________ ४३५ 1 शंखपद्मादिक आकारसे उनके शरीरपर दाह करना, तकलीफ देना, कान नाक छेदना, अंडका नाश करना इत्यादिक दुःख तिर्यग्गति में भोगने पड़ते हैं । १२८२। इस पशुगतिने नाना प्रकारके रोग, अनेक तरहकी वेदनाएँ तथा नित्य चारों तरफसे भय भी प्राप्त होता है । अनेक प्रकारके बावसे रगड़ना ठोकना इत्यादि दुःखोंकी प्राप्ति हु पशुगति प्राप्त हुई थी । ९५०५ मनुष्यगतिने अपराध होनेपर राजाfare धनापहार होता है यह दंडन दुःख है। मस्तक के केशका मुण्डन करवा देना, फटके लगवाना, घर्षणा अर्थात् आक्षेप सहित दोषारोपण करने से मनमें दुख होता है। परिमोष अर्थात् राजा धन छुटाता है। चोर द्रव्य हरण करते हैं तब धन हरण दुःख होता है। भार्याका जबरदस्ती हरम होनेपर घर जलने से धन नष्ट होने इत्यादिक कारणोंसे मानसिक दुख उत्पन्न होते हैं । १५६२ | मानी देव अन्य ऋद्धिशाली देवोंको देखकर जिस घोर दुःखको प्राप्त होता है वह मनुष्य गतिके दुःखों की अपेक्षा अनन्तगुणित है। ऋद्धिशाली देवोंको देखकर उसका गर्न शतशः चूर्ण होनेसे वह महाष्टी होता है | १६६६ (भा पा./मू./१५) । भा.पा./मू./१०-१२ खतावणालणवेण विपाणिरोहं च । पोखि भावरहि तिरियईए चिरं कालं ॥१०॥ सुरभितमे सुरचार विओयकाले य माणसं ति । संयतोसि महाजस दुखं सुहभावणार हिओ | १२| हे जीम से तियंचगति विस्वनन, उत्तापन, ज्वलन, वेदन, व्युच्छेदन, निरोधन इत्यादि दुख बहुत काल पर्यन्त पाये। भाव रहित भया संता । हे महाजस । ते देवलोक विषै प्यारी राका वियोग काल विषै वियोग सम्बन्धी दुःख तथा इन्द्रादिक बड़े द्धिधारी निकं आपके होन मानना ऐसा मानसिक दुख, ऐसे तीव्र दुःख शुभ भावना केरि रहित भये सन्ते पाया ॥ १२ ॥ २. संशीसे असंज्ञी जीवोंमें दुःखकी अधिकता T दुःख R घ. / / ३४१ महत्संहिनां दुःख स्वयं चासंहिनां न वा । यतो नीच पदादुच्चै पदं श्रेयस्तथा भतम् । ३४१ | यदि कदाचित यह कहा जाये कि सही जीवोंको बहुत दुख होता है, और अशी जीवोंको बहुत थोड़ा दुःख होता है, तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि नीच पदसे वैसा अर्थात् संज्ञो कैसे ऊँच पद श्रेष्ठ माना जाता है । ३४१ | इसलिए सैनीसे असैनीके कम दुःख सिद्ध नहीं हो सकता है किन्तु उल्टा असैनीको ही अधिक दुःख सिद्ध होता है। (पं.ध. /उ./ ३४१-३४४) । २. संसारी जीवोंको अबुद्धि पूर्वक दुःख निरन्तर रहता है पं. ध. /उ. / ३१८-३१६ अस्ति संसारि जीवस्य नूनं दुःखमबुद्धिजम् । सुखस्यादर्शन स्वस्य सर्वतः कथमन्यथा ॥३१८ सोमो दुख मस्ति नूनमबुद्धिज अवश्य कर्ममदस्य नै रन्तयोंदयारितः ॥११परपदार्थ में ति संसारी जीवोंके सुखके अदर्शनमें भी निश्चयसे अपूर्व दुःख कारण है क्योंकि यदि ऐसा न होता तो उनके आत्माके सुखका अदर्शन कैसे होता क्यों होता इसलिए निश्चय करके कर्मबद्ध संसारी जीवके निरन्तर कर्मके उदय आदिके कारण अवश्य ही अबुद्धि पूर्वक दुख है, ऐसा अनुमान किया जाता है ३१६ ★ लौकिक सुख वास्तवमें दुःख है—० ४. शारीरिक दुःखले मानसिक दुःख बड़ा का. ज./मू./१० सारीरिय दुखादो मानस का हवेह अवर मानस - हि विसया वि दुहावा हंति ६० शारीरिक से मानसिक दुःखमड़ा होता है। क्योंकि जिसका मन दुखी है उसे निष्य भी दुःखदायक लगते हैं॥५०॥ Jain Education International सुख । । ५. शारीरिक दुःखोंकी गणना का. अ./टी./२८८/२०७ शारीरं शरीरोद्भवं शीतोष्ण तृषापञ्चकोटचष्टषष्टिक्षनवनवतिसहस्रपञ्च तचतुरशीतिव्याध्यादि शरीरसे उत्पन्न होनेवाला दुख शारीरिक कहलाता है। भूख प्यास. शीत उष्णके कष्ट तथा पाँच करोड़ अड़सठ लाख निन्यानवे हजार पाँच सौ चौरासी व्याधियों से उत्पन्न होनेवाले शारीरिक दुःख होते हैं । ३. दु:ख कारणादि ३. दुःखके कारणादि १. दुःखका कारण शरीर व बाह्य पदार्थ यवनां स. श./मू./१५ मूलं संसारदुःखस्य देह एवात्मधीस्तत' । प्रविशेदन्तर्म हिरव्यापृतेन्द्रिय |१५| इस जड शरीर में आत्मबुद्धिका होना ही संसारके दुःखों का कारण है। इसलिए शरीरमें आत्मव्यकी मिथ्या कल्पनाको छोडकर बाह्य विषयों में इन्द्रियोंकी प्रवृत्तिको रोकता हुआ अन्तरंग प्रवेश करे १५० आ. अनु. ११५ आदौ तनोर्जननमत्र हतेन्द्रियाणि सन्ति तानि विषया विषयाश्च माने । हानिप्रयासभयपापकुयोनिदा स्युर्मूल ततस्तनुरनर्थ परं पराणाम् । १६५ = प्रारम्भमें शरीर उत्पन्न होता है, इस शरीर से दृष्ट इन्द्रियों होती है, वे अपने-अपने विषयोंको चाहती हैं और वे विषय मानहानि, परिश्रम, भय, पाप एवं दुर्गतिको देने बाले है। इस प्रकार से समस्त अनर्थोंकी परम्पराका मूल कारण वह शरीर ही है ।९६३॥ ज्ञा. / ७ /११ भवोद्भवानि दुःखानि यानि यानीह देहिभिः । सह्यन्ते तानि तान्युच्चैर्व पुरादाय केवलम् ।१११ - इस जगत् में संसारसे उत्पन्न जो जो दुख जीवोंको सहने पड़ते हैं, वे सब इस शरीर के ग्रहणसे हो सहने पडते हैं । इस शरीर से निवृत्त होनेपर फिर कोई भी दुख नहीं है। |११| (शा./७/१०) । २. दुःखका कारण ज्ञानका ज्ञेयार्थ परिणमन . . / . / २७८-२७९ नूनं यत्परतो ज्ञानं प्रत्यर्थं परिणामि यत् । व्याकु मोहमदुखमन २०८ सिद्ध दुरयमस्य स्वतः झापा सद्भावे सहबुभुत्सादिमा २७ - निश्चयसे जो ज्ञान इन्द्रियादिके अवलम्बनसे होता है और जो ज्ञान प्रत्येक अर्थ के प्रति परिणमनशील रहता है अर्थात प्रत्येक अर्थ के अनुसार परिणामी होता है वह ज्ञान व्याकुल तथा राग-द्वेष सहित होता है इसलिए वास्तव में वह ज्ञान दुःखरूप तथा निष्प्रयोजनके समान है | २७८ ॥ प्रत्यर्थ परिणामी होनेके कारण ज्ञानमें व्याकुलता पाथी जाती है इसलिए ऐसे इन्द्रियजन्य ज्ञान दुखपना अच्छी तरह सिद्ध होता है क्योंकि जाने हुए पदार्थ के सिवाय अन्य पदार्थोंके जाननेकी इच्छा रहती है । २०६ ३. दुःखका कारण क्रमिक ज्ञान 4 प्र.सा./त.प्र./६० खेदस्यायतनानि चातिकर्माणि न नाम के परिणाममात्रम् । घातिकर्माणि हि परिच्छेद्यमर्थं प्रत्यात्मानं यतः परिणामयति, ततस्तानि तस्य प्रत्यर्थं परिणम्य परिणम्य श्राम्यतः खेदनिदानहीं प्रतिपद्यन्ते खेदके कारण भातिकर्म है, केवल परिगमन मात्र नहीं मेघातिकर्म प्रत्येक पदार्थ के प्रति परिणति हो हो कर थकने वाले आत्मा के लिए खेद के कारण होते हैं । प्र.सा./ता.वृ./६०/७९/१२ क्रमकरणव्यवधानग्रहणे खेदो भवति । इन्द्रियज्ञान क्रमपूर्वक होता है, इन्द्रियोंके आश्रयसे होता है, तथा प्रकाशादिका आश्रय ले कर होता है, इसलिए दुःखका कारण है। पं. ध. /उ. / २८१ प्रमत्तं मोहयुक्तत्वान्निकृष्टं हेतुगौरवात् । व्युच्छिन्नं क्रमाकृच्छ्र चेहाथ पक्रमात् २८१ हजा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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