Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 444
________________ दुःपक्व ४३६ ह.पु./३४/११६ जघन्य व उत्कृष्ट आयुकी अपेक्षा सर्वत्र बेला होता है। तहाँ-सात नरकोंके ७ पर्याप्त-अपर्याप्तके २, पर्याप्त-अपर्याप्त मनुष्यके २; सौधर्म-ईशान स्वर्गका १, सनत्कुमारसे अच्युत पर्यन्तके १९, नवग्रैवेयकके 8 नव अनुदिशका १; पाँच अनुसरोंका एक । इस प्रकार ३४ बेले । बीचके ३४ स्थानों में एक एक पारणा। छा-दे० जुगुप्सा। दुग्धरसी व्रत-व्रत विधान सं./१०२ भाद्रपद शुक्ला १२ को केवल दूधका आहार ले। सारा समय धर्मध्यानमें व्यतीत करे। इस प्रकार १२ वर्ष पर्यन्त करे। जाप्य-नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । दुग्यशुद्धि-दे० भक्ष्याभक्ष्य/३। दुगंधा-पा.पु./२४/श्लोक-सुबन्धी नामक वैश्यकी पुत्री थी (२४-२५)। इसके स्वाभाविक दुर्गन्धके कारण इसका पति जिनदत्त इसे छोड़ कर भाग गया (४२-४४)। पीछे आर्यिकाओंको आहार दिया तथा उनसे दीक्षा धारण कर ली (६४-६७) । घोर तपकर अन्तमें अच्युत स्वर्गमें देव हुई (६८-७१)। यह द्रौपदीका पूर्वका दूसरा भव है।-दे० द्रौपदी। दुर्ग-१. भरत क्षेत्र पश्चिम आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४; २. विजयार्धकी उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । दुर्गाटबी-त्रि.सा./भाषा/६७६ पर्वतकै उपरि जो होइ सो दुर्गाटवी मोहसे युक्त होनेके कारण प्रमत्त, अपनी उत्पत्तिके बहुतसे कारणोंकी रापेक्षा रखनेसे निकृष्ट, क्रमपूर्वक पदार्थोंको विषय करनेके कारण व्युच्छिन्न और ईहा आदि पूर्वक होनेसे दुःखरूप कहलाता है ।२८१॥ १. दुःखका कारण जीवके औदयिक भाव पं.ध./उ./३२० नावाच्यता यथोक्तस्य दुःखजातस्य साधने। अर्थाद बुद्धिमात्रस्य हेतोरौद यिकत्वतः १३२० - वास्तवमें सम्पूर्ण अबुद्धि पूर्वक दुखों का कारण जीवका औदयिक भाव ही है इसलिए उपर्युक्त सम्पूर्ण अबुद्धि पूर्वक दुःखके सिद्ध करने में अवाच्यता नहीं है। * दुःखका सहेतुकपना-दे० विभाव/३ । ५. क्रोधादि माव स्वयं दुःखरूप हैं ल.सा./मू-/७४ जीवणिबद्धा एए अधुव अणिच्चा तहा असरणा य। दुक्रवा दुवखफला त्तिय णादण णिवत्तए तेहि ७४! -यह आस्रव जीवके साथ निबद्ध है, अध व है, अनित्य है तथा अशरण है और वे दुःखरूप हैं, दुःख ही जिनका फल है ऐसे हैं-ऐसा जानकर ज्ञानी उनसे निवृत्त होता है। ६. दुःख दूर करनेका उपाय स.श./मू./४१ आत्मविभ्रम दुःखमात्मज्ञानात्प्रशाम्यति। नायतास्तत्र निर्यान्ति कृत्वापि परमं तपः ॥४१॥ -शरीरादिकमें आत्म बुद्धिरूप विभ्रमसे उत्पन्न होनेवाला दुःख-कष्ट शरीरादिसे भिन्नरूप आरम स्वरूपके करनेसे शान्त हो जाता है। अतएव जो पुरुष भेद विज्ञान के द्वारा आरमस्वरूपकी प्राप्तिमें प्रयत्न नहीं करते वे उत्कृष्ट तप करके भी निर्वाणको प्राप्त नहीं करते।४।। आ.अनु./१८६-९८७ हानेः शोकस्ततो दुःख लाभाद्रागस्ततः सुखम् । तेन हानावशोकः सत् सुरखी स्यात्सर्वदा सुधी.१८६.. मुखं सकलसंन्यासो मख सकलसंन्यासो दुवं तस्य विपर्ययः ।१८७१ - इष्ट वस्तुकी हानिसे शोक और फिर उससे दुःख होता है. तथा फिर उसके लाभसे राग तथा फिर उससे मुख होता है। इसलिए बुद्धिमान पुरुषको इष्टकी हानिमें शोकसे रहित होकर सदा सुखी रहना चाहिए १८६। समस्त इन्द्रिय विषयोंसे विरक्त होनेका नाम मुख और उनमें आसक्त होनेका नाम ही दुःख है । (अतः विषयोंसे विरक्त होनेका उपाय करना चाहिए)।१८७। * असाताके उदयमें औषध भादि भी सामथ्यहीन हैं -दे० कारण/III/१/४। दुःपक्व-आहारमें एक दोष-दे० भोगोपभोग /५ दुशासन-पा.पु./सर्ग/श्लोक धृतराष्ट्रका गान्धारीसे पुत्र था।(८/१२) भीष्म तथा द्रोणाचार्यसे क्रमसे शिक्षा तथा धनुर्विद्या प्राप्त की (८/२०८)। पाण्डवोंसे अनेकों बार युद्ध किया (१६/११)। अन्तमें भीम द्वारा मारा गया ।(२०/२६६)। -अनर्थदण्डका एक भेद-दे० अनर्थदण्ड । दुःस्वर-दे० स्वर। इंदभुक-एक ग्रह-दे० ग्रह। दुखमा-अपरनाम दुषमा-दे० काल/४ । दुखहरण व्रत-इस व्रतकी विधि दो प्रकार से वर्णन की गयी हैलघु व बृहत् । लघु विधि-एक उपवास एक पारण क्रमसे १२० उपवास पूरे करे । जाप्य नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य (व्रत विधान सं./ ६२) (वर्द्धमान पुराण)। दुर्दर-१. कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे० व्युत्सर्ग/१, २. भरतक्षेत्र मध्य आर्यखण्डके मलयगिरिके निकटस्थ एक पर्वत-दे० मनुष्य/४। दुर्धर-विजयार्धकी उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । दुर्भग-दे० सुभग । दुर्भाषा-दे० भाषा। दुमुख-यह सप्तम नारदे थे। अपरनाम चतुमुख । विशेष -दे० शलाका पुरुष/६। टुर्योधन-पा.पु./सर्ग/श्लोक-धृतराष्ट्रका पुत्र था (८/१८३)। भीष्म तथा द्रोणाचार्यसे क्रमसे शिक्षण प्राप्त किया (८।२०८)। पाण्डवों के साथ अनेकों बार अन्यायपूर्ण युद्ध किये। अन्तमें भीम द्वारा मारा गया (२०/२६४)। दुविनीत-यह पूज्यपाद द्वितीयके शिष्य थे। गंग वंशी राजा अविनीतके पुत्र थे। समय-बि. ५३५-५७० (ई०४७८-५९३); (स.सि./प्र.६५ पं. फूलचन्द्र); (स.श./.१० पं. जुगलकिशोर); (द.सा./ प्र.३८ प्रेमी)। दुषमा-अपरनाम दुखमा-दे० काल/४ । दुष्पक्व-आहारमें एक दोष-दे० भोगोपभोग/५ दुष्प्रणिधान-सामायिक व्रतका एक अतिचार-दे० सामायिक/३। दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण-दे० अधिकरण । दूत-१. आहारका एक दोष-दे० आहार/II/४ । २. यसतिकाका एक दोष-दे० वस्तिका। दूध शुद्धि-दे० भक्ष्याभक्ष्य/३। दूरस्थ-दे० दूरार्थ। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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