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दर्शन
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२. ज्ञान ब दर्शनमें अन्तर
ऐसा नही है, जिससे कि सकल पदार्थोंका ज्ञान सामान्य धर्म केवल दर्शनका विषय हो जाय । क्योंकि ऐसा माननेसे, ज्ञान दर्शनकी क्रमप्रवृत्ति धाली संसारावस्थामे द्रव्यके ज्ञानका अभाव होनेका प्रसग आता है। कैसे -ज्ञान तो द्रव्यको न जान सकेगा, क्योंकि सामान्य रहित केवल विशेष में ही उसका व्यापार परिमित हो गया है। दर्शन भी द्रव्यको नही जान सकता, क्योंकि विशेषोसे रहित केवल सामान्यमें उसका व्यापार परिमित हो गया है। केवल संसारावस्थामें ही नहीं किन्तु केवलीमें भी द्रव्यका ग्रहण नहीं हो सकेगा, क्योकि, एकान्तरूपी दुरन्तपथमें स्थित सामान्य व विशेषमें प्रवृत्त हए केवलदर्शन और केवलज्ञानका (उभयरूप) द्रव्यमात्रमें व्यापार मानने में विरोध आता है। एकान्ततः पृथक सामान्य व विशेष तो होते नहीं है, जिससे कि वे क्रमशः केवलदर्शन और केवलज्ञानके विषय हो सकें। और यदि असत्को भी प्रमेय मानोगे तो गधेका सींग भी प्रमेय कोटिमें आ जायेगा, क्योंकि अभावकी अपेक्षा दोनोंमें कोई विशेषता नही रही। प्रमेयके न होने पर प्रमाण भो नही रहता, क्योंकि प्रमाण तो प्रमेयमूलक ही होता है । (क.पा./१/१-२०/६३२२/३५३/१; ६३२४/३५६/१) ५. सामान्य विशेषात्मक उभयरूप ही अन्तरंग ग्रहण दर्शन और बाह्यग्रहण ज्ञान है घ.१४१,१,४/१४७/२ ततः सामान्यविशेषात्मकबाह्यार्थग्रहणं ज्ञानं
तदात्मकस्वरूपग्रहणं दर्शनमिति सिद्धम् । - अत सामान्य विशेषास्मक बाह्यपदार्थको ग्रहण करनेवाला ज्ञान है और सामान्य विशेषात्मक स्वरूपको ग्रहण करनेवाला दर्शन है यह सिद्ध हो जाता है। (क.पा./१/१-२०/६३२५/३५६/६) ध.१/१,१,१३१/३८०/३ अन्तरड गार्थोऽपि सामान्य विशेषात्मक इति ।
तद्विधिप्रतिषेधसामान्ययोरुपयोगस्य क्रमेण प्रवृत्त्यनुपपत्तेरक्रमेण तत्रोपयोगस्य प्रवृत्तिरङ्गीकर्तव्या। तथा च न सोऽन्तरङ्गोपयोगोऽपि दर्शनं तस्य सामान्य विशेषविषयत्वादिति चेन्न, सामान्यविशेषात्मकस्यात्मन' सामान्यशब्दवाच्यत्वेनोपादानात् । - अन्तरंग पदार्थ मी सामान्य विशेषात्मक होता है, इसलिए विधि सामान्य और प्रतिषेध सामान्यमें उपयोगको क्रमसे प्रवृत्ति नहीं बनती है, अत' उनमें उपयोगकी अक्रमसे प्रवृत्ति स्वीकार करना चाहिए । अर्थात दोनोका युगपत् ही ग्रहण होता है। प्रश्न-इस कथनको मान लेने पर वह अन्तरंग उपयोग दर्शन नहीं हो सकता है, क्योंकि ( यहाँ) उस अन्तरंग उपयोगको सामान्य विशेषात्मक पदार्थको विषय करनेवाला मान लिया गया है (जब कि उसका लक्षण केवल सामान्यको विषय करना है ( दे०-दर्शन/१/३/२)। उत्तर-नहीं, क्योंकि, यहाँ पर सामान्य विशेषात्मक आत्माका सामान्य शब्दके वाच्यरूपसे ग्रहण किया है। (विशेष दे० आगे दर्शन/३)
६. दर्शन व ज्ञानकी स्व-पर ग्राहकताका समन्वय नि.सा./मू./१६१-१७१ णाणं परप्पयासं दिट्ठी अप्पप्पयासया चेव ।
अप्पा सपरपयासो होदि त्ति हि मण्णदे जदि हि १६१३ णाणं परप्पयासं तइया णाणेण दंसणं भिण्णं ।ण हव्वदि परदव्वगर्य दसणमिदि बण्णिदं तम्हा ॥१६॥ अप्पा परप्पयासो तइया अप्पेण दंसणं भिण्णं । ण हवदि परदव्यगयं दंसणमिदि पण्णिदं तम्हा ।१६३। णाणं परप्पयासं ववहारणयएण दसणं तम्हा। अप्पा परप्पयासो ववहारणयएण सणं तम्हा ।१६४। णाणं अप्पपयासं णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा। अप्पा अप्पपयासो णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा ॥१६॥ = एकान्तसे ज्ञानको परप्रकाशक, दर्शनको स्वप्रकाशक तथा आत्माको स्वपरप्रकाशक यदि कोई माने तो वह ठीक नहीं है, क्योकि वैसा मानने में विरोध आता है ।१६१ ज्ञानको एकान्तसे
परप्रकाशक माननेपर वह दर्शनसे भिन्न ही एक पदार्थ बन बैठेगा, क्योंकि दर्शनको बह सर्वथा परद्रव्यगत नहीं मानता ।१६। इसी प्रकार ज्ञानकी अपेक्षा आत्माको एकान्तसे परप्रकाशक माननेपर भी वह दर्शनसे भिन्न हो जायेगा, क्योंकि दर्शनको वह सर्वथा परद्रव्यगत नहीं मानता ।१६३। ( ऐसे ही दर्शनको या आरमाको एकान्तसे स्वप्रकाशक मानने पर वे ज्ञानसे भिन्न हो जायेंगे, क्योंकि ज्ञानको वह सर्वथा स्वप्रकाशक न मान सकेगा। अतः इसका समन्वय अनेकान्त द्वारा इस प्रकार किया जाना चाहिए, कि -) क्योंकि व्यवहारनयसे अर्थात् भेद विवक्षासे ज्ञान व आत्मा दोनों परप्रकाशक है. इसलिए दर्शन भी पर प्रकाशक है। इसी प्रकार, क्योंकि निश्चयनयसे अर्थात् अभेद विवक्षासे ज्ञान व आत्मा दोनों स्वप्रकाशक हैं इसलिए दर्शन भी स्वप्रकाशक है।१६। (तात्पर्य यह कि दर्शन, ज्ञान व आत्मा ये तीनों कोई पृथक्-पृथक स्वतन्त्र पदार्थ तो हैं नहीं जो कि एकका धर्म दूसरेसे सर्वथा अस्पृष्ट रहे। तीनों एक पदार्थस्वरूप होनेके कारण एक रस हैं। अत' ज्ञान ज्ञाता शेयको अथवा दर्शन द्रष्टा दृश्यको भेद विवक्षा होनेपर तीनों ही परप्रकाशक है तथा उन्हीं में अभेद विवक्षा होने पर जो ज्ञान है, वही ज्ञाता है, वही ज्ञेय है, वही दर्शन है, वही द्रष्टा है और वही दृश्य है। अतः ये तीनों ही स्वप्रकाशक है।) (अथवा-जब दर्शनके द्वारा आत्माका ग्रहण होता है, तब स्वतः ज्ञानका तथा उसमें प्रतिबिम्बित पर पदार्थोका भी ग्रहण कैसे न होगा, होगा ही।) (दे० आगे शीर्षक नं०७); ( केवलज्ञान/६/8) (दे० अगले दोनों उद्धरण भी) ध.६/१,६-१,१६/३४/४ तस्मादात्मा स्वपरावभासक इति निश्चेतव्यम् । तत्र स्त्रावभासः केवलदर्शनम्, परावभासः केवलज्ञानम् । तथा सति कथं केवलज्ञानदर्शनयोः साम्यमिति इति चेन्न, शेयप्रमाणज्ञानात्मकात्मानुभवस्य ज्ञानप्रमाणत्वाविरोधात । - इसलिए (उपरोक्त व्याख्याके अनुसार ) आत्मा ही (वास्तवमे ) स्व-पर अवभासक है, ऐसा निश्चय करना चाहिए। उसमें स्वप्रतिभासको केवल दर्शन कहते हैं
और पर प्रतिभासको केवलज्ञान कहते हैं। (क.पा.१/१-२०/६३२६/ ३५८/२): (ध.७/२,१,१६/१६/१०) प्रश्न-उक्त प्रकारकी व्यवस्था मानने पर केवलज्ञान और केवलदर्शनमें समानता कैसे रह सकेगी। उत्तर-नहीं, क्योकि, ज्ञेयप्रमाण ज्ञानात्मक आत्मानुभवके ज्ञानको प्रमाण होनेमें कोई विरोध नहीं है । (ध.१/१,१,१३५/३८५/७) द्र.सं./टी./४४/१८६/१४अत्राह शिष्यः-यद्यात्मग्राहक दर्शनं, परगाहक ज्ञानं भण्यते, तहि यथा नैयायिकमते ज्ञानमात्मानं न जानाति; तथा जैनमतेऽपि ज्ञानमात्मानं न जानातीति दूषणं प्राप्नोति । अत्र परिहारः। नैयायिकमते ज्ञानं पृथग्दर्शनं पृथगिति गुणद्वयं नास्ति; तेन कारणेन तेषामात्मपरिज्ञानाभावदूषणं प्राप्नोति। जैनमते पुमनिगुणेन परद्रव्यं जानाति, दर्शनगुणेनात्मानं च जानातीत्यारमपरिज्ञानाभावदूषणं न प्राप्नोति। कस्मादिति चेत्-यथैकोऽप्यग्निर्दहतीति दाहक', पचतीति पाचको, विषयभेदेन द्विधा भिद्यते। तथैवाभेदेनयेनै कमपि चैतन्यं भेदनयविवक्षायां यदात्मग्राहकत्वेन प्रवृत्तं तदा तस्य दर्शनमिति संज्ञा, पश्चात् यच्च परद्रव्यग्राहकत्वेन प्रवृत्त्रं तस्य ज्ञानसंज्ञे ति विषयभेदेन द्विधा भिद्यते ।-प्रश्न-यदि अपनेको ग्रहण करनेवाला दर्शन और पर पदार्थको ग्रहण करनेवाला ज्ञान है, तो नैयायिकोंके मतमें जैसे ज्ञान अपनेको नहीं जानता है, वैसे ही जेनमतमे भी 'ज्ञान आत्माको नही जानता है ऐसा दूषण आता है ! उत्तर-नैयायिकमतमें ज्ञान और दर्शन दो अलग-अलग गुण नहीं माने गये हैं, इसलिए उनके यहाँ तो उपरोक्त दूषण प्राप्त हो सकता है; परन्तु जैनसिद्धान्तमें 'आत्मा' ज्ञान गुणसे तो पर पदार्थको जानता है, और दर्शन गुणसे आत्माको जानता है, इस कारण यहाँ वह दूषण प्राप्त नहीं होता। प्रश्न-यह दूषण क्यों नहीं होता ! उत्तर-जैसे कि एक ही अग्नि दहनगुणसे जलाता होनेसे दाहक
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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