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दान
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४.दानका महत्त्व व फल
क्रिया कोष/१९८६ जानौ गृद्ध समान ताके सुतदारादिका। जो नहीं करे ।१७१ जो भव्यात्मा अपने द्रव्यको सात क्षेत्रोमे विभाजित करता है वह
सुदान ताके धन आमिष समा ।१६८६। जो दान नहीं करता है पंचकल्याणक्से सुशोभित त्रिभुवनके राज्यसुखको प्राप्त होता है ।१८। उसका धन मांसके समान है, और उसे खाने वाले पुत्र स्त्री आदिक । माता, पिता, पुत्र, स्त्री, मित्र आदि कुटुम्ब परिवारका सुख और गिद्ध मण्डलीके समान है।
धन-धान्य, वस्त्र-अलंकार, हाथी, रथ, महल तथा महाविभूति आदि
का सुख एक सुपात्र दानका फल है ।१६। सात प्रकार राज्यके अंग, ४. दान देनेसे ही जीवन व धन सफल है
नवविधि, चौदह रत्न, माल खजाना, गाय, हाथी, घोड़े, सात प्रकार का.अ./मू./१४,१५-२० जो संचिऊण लच्छि धरणियले संठवेदि अइ
की सेना, षट् खण्डका राज्य और छयानवे हजार रानी ये सर्व सुपात्र दूरे । सो पुरिसो त लच्छि पाहाण-सामाणिय कुणदि ।१४। जो बड्ड
दानका ही फल है ।२०। उत्तम कुल, सुन्दर स्वरूप, शुभ लक्षण, माण-लच्छि अणवरयं देदि धम्म-कज्जेसु । सो पंडिएहि थुव्वदि
श्रेष्ठ बुद्धि, उत्तम निर्दोष शिक्षा, उत्तमशील, उत्तम उत्कृष्ट गुण, तस्स वि सयला हवे लच्छी।११। एवं जो जाणित्ता विहलिय-लोयाण
अच्छा सम्यक्चारित्र, उत्तम शुभ लेश्या, शुभ नाम और समस्त धम्मजुत्ताणं । णिरवेक्रतो तं देदि हु तस्स हवे जीवियं सहलं ॥२०॥
प्रकारके भोगोपभोगकी सामग्री आदि सर्व सुखके साधन सुपात्र दान- जो मनुष्य लक्ष्मीका संचय करके पृथिवीके गहरे तलमे उसे गाड़
के फलसे प्राप्त होते हैं ।२१।।
र. क. पा./मू./११५-११६ उच्चैर्गोत्रं प्रणतेोंगो दानादुपासनात्पूजा। देता है, वह मनुष्य उस लक्ष्मीको पत्थरके समान कर देता है ।१४। जो मनुष्य अपनी बढती हुई लक्ष्मीको सर्वदा धर्मके कामों में देता है,
भक्तेः सुन्दररूपं स्तवनारकीर्तिस्तपोनिधिषु ॥११५। क्षितिगतमिव उसको लक्ष्मी सदा सफल है और पण्डित जन भी उसकी प्रशंसा
वटवीजं पात्रगतं दानमल्पमति काले । फलति च्छायाविभव बहुकरते हैं ।१६। इस प्रकार लक्ष्मीको अनित्य जानकर जो उसे निर्धन
फल मिष्ट शरीरभृतां ।११६।-तपस्वी मुनियोंको नमस्कार करनेसे धर्मात्मा व्यक्तियोंको देता है और बदलेमे प्रत्युपकारकी वांछा नहीं
उच्चगोत्र, दान देनेसे भोग, उपासना करनेसे प्रतिष्ठा, भक्ति करनेसे करता, उसोका जीवन सफल है ।२०।
सुन्दर रूप और स्तवन करनेसे कीर्ति होती है ।११५॥ जीवोंको
पात्रमें गया हुआ थोडा-सा भी दान समयपर पृथ्वीमें प्राप्त हुए बट ५. दानको परम धर्म कहनेका कारण
बीजके छाया विभव वाले वृक्षकी तरह मनोवांछित बहुत फलको
फलता है ।११६। (पं.वि./२/८-११) । पं. वि./२/१३ नानागृहव्यतिकराजितपापपुजैः खञ्जीकृतानि गृहिणो
पु.सि.उ /१७४ कृतमात्मार्थं मुनये ददाति भक्तमिति भावितस्त्यागः। न तथा व्रतानि। उच्चै, फलं विदधतीह यथै कदापि प्रीत्याति शुद्ध
अरतिविषादविमुक्तः शिथिलितलोभो भवत्यहिसैव ।१७४ - इस मनसा कृतपात्रदानम् ॥१३॥ = लोकमें अत्यन्त विशुद्ध मन वाले
अतिथि स विभाग बतमें द्रव्य अहिंसा तो परजीवोका दुःख दूर करने गृहस्थके द्वारा प्रीति पूर्वक पात्रके लिए एक बार भी किया गया दान
के निमित्त प्रत्यक्ष ही है, रहो भावित अहिसा वह भी लोभ कषायके जैसे उन्नत फलको करता है वैसे फलको गृहकी अनेक झंझटोंसे
त्यागकी अपेक्षा समझनी चाहिए। उत्पन्न हुए पाप समूहोंके द्वारा कुबड़े अर्थात शक्तिहीन किये गये गृहस्थके बत नहीं करते हैं ।१३।।
पं.वि./२/१५-४४ प्रायः कुतो गृहगते परमात्मबोधः शुद्धात्मनो भुवि यतः प्र/टो./२/१११.४/२३१/१५ कस्मात स एव परमो धर्म इति चेव, निर
पुरुषार्थसिद्धिः । दानात्पुनर्ननु चतुर्विधत. करस्था सा लीलयैव कृतन्तरविषयकषायाधीनतया आर्तरौद्रध्यानरताना निश्चयरत्नत्रय
पात्रजनानुषं गात् ।१॥ कि ते गुणा' किमिह तत्सुखमस्ति लोके सा लक्षणस्य शुद्धोपयोगपरमधर्मस्यावकाशो नास्तीति । प्रश्न
किं विभूतिरथ या न वशं प्रयाति। दानवतादिजनितो यदि मानवश्रावकोंका दानादिक हो परम धर्म कैसे है। उत्तर-वह ऐसे है, कि
स्य धर्मो जगत्त्रयवशीकरण कमन्त्रा' ।१६। सौभाग्यशौर्य सुखरूपये गृहस्थ लोग हमेशा विषय कषायके अधीन है, इससे इनके आर्त,
विवेकिताद्या विद्यावपुर्धनगृहाणि कुले च जन्म । संपद्यतेऽखिल मिदं रौद्र ध्यान उत्पन्न होते रहते हैं, इस कारण निश्चय रत्नत्रयरूप
किल पात्रदानात तस्मात् किमत्र सतत क्रियते न यत्नः ।। शुद्धोपयोग परमधर्मका तो इनके ठिकाना ही नहीं है। अर्थात् अब
=जगत में जिस आत्मस्वरूपके ज्ञानसे शुद्ध आत्माके पुरुषार्थकी काश ही नहीं है।
सिद्धि होतो है, वह आत्मज्ञान गृहमें स्थित मनुष्यों के प्रायः कहाँसे होती है। अर्थाद नहीं हो सकती। किन्तु वह पुरुपार्थकी सिद्धि
पात्र जनोमे किये गये चार प्रकारके दानसे अनायास ही हस्तगत हो ४. दानका महत्त्व व फल
जाती है ।१५। यदि मनुष्यके पास तीनों लोकोंको वशीभूत करने१. पात्र दान सामान्यका महत्त्व
के लिए अद्वितीय वशीकरण मन्त्रके समान दान एवं व्रतादिसे
उत्पन्न हुआ धर्म विद्यमान है तो ऐसे कौनसे गुण हैं जो उसके र.सा./१६-२१ दिण्णइ सुपत्तदाणं विससतो होइ भोगसग्ग मही।
वशमे न हो सकें, तथा वह कौन-सी विभूति है जो उसके अधीन णिबाणसुहं कमसो णिविट्ठ जिणवरिदेहि ।१६। खेत्तविसमे काले
न हो अर्थात धर्मात्मा मनुष्यके लिए सब प्रकारके गुण, उत्तम वविय सुवीयं फलं जहा विउलं । होइ तहा तं जाणइ पत्तविसेसेसु
सुख और अनुपम विभूति भी स्वयमेव प्राप्त हो जाती है ।१६। दाणफलं ॥१७॥ इह णियसुवित्तवीयं जो ववइ जिणुत्त सत्तखेत्तेसु । सो विहुवणरज्जफलं भुज दि कल्लाणपंचफलं ।१८। मादुपिदुःपुत्तमित्तं
सौभाग्य, शूरवीरता, सुख, सुन्दरता, विवेक, बुद्धि, आदि विद्या,
शरीर, धन, और महल तथा उत्तम कुलमें जन्म होना यह सब कलत्त-धणधण्णवत्थु वाहण विसयं । संसारसारसोक्वं जाणउ सुपत्तदाणफल ।१६। सत्तंगरज णवणि हिभंडार सडंगवलचउद्दहरयणं । छण्णव
निश्चयसे पात्रदानके द्वार ही प्राप्त होता है। फिर हे भव्य जन ! दिसहसिच्छिविहउ जाणउ सुपत्तदाणफलं ।२०। सुकलसुरूवसुलक्षण
तुम इस पात्रदानके विषयमें क्यों नही यत्न करते हो।४४। सुमइ सुसिकरवा सुसील सुगुण चारित्त। मुहलेसं सुहणामं सुहसादं सुपत्तदाणफलं ।२१। -सुपात्रको दान प्रदान करनेसे भोगभूमि तथा
२. आहार दानका महत्व स्वर्गके सर्वोत्तम सुखकी प्राप्ति होती है। और अनुक्रमसे मोक्ष सुख- र. क. श्रा/मू./११४ गृहकर्माणि निचितं कर्म विमाटि स्खलु गृहविको प्राप्ति होती है ।१६। जो मनुष्य उत्तम खेतमें अच्छे बीजको बोता मुक्तानां । अतिथीनां प्रतिपूजा रुधिरमलं धावते वारि ।११४। - जैसे है तो उसका फल मनवांछित पूर्ण रूपसे प्राप्त होता है। इसा प्रकार जल निश्चय करके रुधिरको धो देता है, तैसें ही गृहरहित अतिउत्तम पात्र में विधिपूर्वक दान देनेसे सर्वोत्कृष्ट सुखकी प्राप्ति होती है थियोंका प्रतिपूजन करना अर्थात् मवधाभक्ति-पूर्वक आहारदान
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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