Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 440
________________ दिव्यध्वनि ५. दिव्यध्वनि अनक्षरात्मक नहीं होती , घ. १/१.१.५०/२०३/० तीर्थंकरवचनमनरवाइत एव तदेकम् । एकत्वान्न तस्य द्वैविध्यं घटत इति चेन्न तत्र स्यादित्यादि असत्यमोषवचनसत्त्वतरतस्य ध्वनेरक्ष नरत्वासिद्धे । प्रश्न- तीर्थकरके वचन अनक्षर रूप होनेके कारण ध्वनिरूप है, और इसलिए वे एक रूप हैं, और एक रूप होनेके कारण वे सत्य और अनुभय इस प्रकार दो प्रकारके नहीं हो सकते । उत्तर— नहीं, क्योंकि केवली के वचनमें 'स्यात्' इत्यादि रूपसे अनुभय रूप वचनका सद्भाव पाया जाता है, इसलिए केवलीकी ध्वनि अनक्षरात्मक है यह बात असिद्ध है । म.पु./२३/७३.. साक्षर एव च वर्णसमूहान्नैव विनार्थ गतिर्जगति स्यात् । -दिव्य ध्वनि अक्षररूप ही है, क्योंकि अक्षरोके समूह के बिना लोकमें अर्थका परिज्ञान नहीं हो सकता ॥७३॥ म.पु./१/११० यत्पृष्टमादितस्तेन तत्सर्वमनुपूर्वश । वाचस्पतिरनायासाद्भरतं प्रत्यनुबुधत् । ११०१ = भरतने जो कुछ पूछा उसको भगवान् ऋषभदेव बिना किसी कटके क्रमपूर्वक कहने लगे । २० ४३२ ५. दिव्यध्वनि सर्व भाषास्वमात्री है। स्व. स्तो./मू / ९७ तव वागमृतं श्रीमत्सर्व भाषा-स्वभावकम् । प्रीणयत्य मृतं यद्वत्प्राणिनो व्यापि संसदि |१२| = सर्व भाषाओ में परिणत होनेके स्वभावको लिये हुए और समवशरण सभा में व्याप्त हुआ आपका श्री सम्पन्न वचनामृत प्राणियोंको उसी प्रकार तृप्त करता है जिस प्रकार कि अमृत पान १९२ (क.पा १/११/१२६/९) (६.१ / १.१.५०/२८४/२) (चन्द्रप्रभ चरित / (८/१); (असार चिन्तामणि १/६२) ६. १/१.१.२/१२/२ योजनान्तरदूरसमीपस्थादव युत दिग्देवमनुयभाशकान्यूनाधिकभावातीतमयुर मनोहरगम्भीरविशदमागतिज्ञयसंपनः महावीरोऽयं एक याजन के भीतर दूर अथवा समीप बैठे हुए अठारह महाभाषा और सातसौ लघु भाषाओंसे युक्त ऐसे तिर्यच, मनुष्य, देवकी भाषा के रूप में परि होने वाली तथा न्यूनता और अधिकतामे रहित, मधुर, मनोहर. गम्भीर और विशद ऐसी भाषा अतिशयको प्राप्त श्री महावीर तीर्थंकर अर्थ कर्ता है । (क.पा.१/११/१५४/०२/३) (का /ता.वृ./१/४ पर उठ .. ध-१/४,१.१/६२/२ एवेहितो सासरियरवयण विणिइनसे चार अक्षौहिणी अक्षर-अक्षर भाषाओ संख्यातगुणी भाषाओं से भरी हुई तोर्थं करके मुखसे निकली दिव्यध्वनि (पं.का./ता../२/८/६ पर उद्धृत) द.पा./टी./२५/२/१२ ब च सर्वभाषात्मकं दिव्यध्वनि आधी सर्वभाषा रूप थी (३-१६/२४०/२) Jain Education International ६. दिव्यध्वनि एक भाषा स्वभावी है म.पु. / २३/७० एकतयोऽपि च सर्वनृभाषा । यद्यपि वह दिव्य ध्वनि एक प्रकारकी (अर्थात् एक भाषा रूप) थी तथापि भगवान् के माहात्म्यसे सर्व मनुष्यों की भाषा रूप हो रही थी। दिव्यध्वनि आधी मागधी भाषा व आधी सर्वभाषा रूप है 1 - द.पा./टी./३३/२०/१२ व भगवद्भाषाया मगधदेशभाषात्मक अव सर्व भाषात्मकं । तीर्थंकर की दिव्यध्वनि आधी मगध देशकी भाषा रूप और आधी सर्व भाषा रूप होती है (चन्द्रप्रभचरित/१०/१) (क्रि. क./३-१६/२४८/२) । २. दिव्यध्वनिका भाषात्मक व अभाषात्मकपना ८. दिव्यध्वनि बीजाक्षर रूप होती है -जो क.पा १/१.१/६६६/१२६/२ अगं तत्थगम्भबीजपदघडियसरीरा अनन्य पदार्थोंका वर्णन करती है, जिसका शरीर बीजपदोसे गढ़ा गया है । ध. ६/४,१.४४/१२७/१ संखितसर यम तत्थावगम हे दाग लिंगसंगयं बीजपदं नाम तेमिया बीजपदार्थ युवासंगम्यमाणमद्वारससत्तसप्रभास कुभास सरुवाणं परूषओ अत्थकतारो णाम । संक्षिप्त शब्द रचना से सहित व अनन्त अर्थोक ज्ञानके हेतुभूत अनेक चिह्नोंसे सहित बीजपद कहलाता है । अठारह भाषा व सात सौ कुभाषा स्वरूप द्वादशांगात्मक उन अनेक बीजपदोका प्ररूपक अर्थकर्ता है । (ध. ६/४.१.५४ / २५६/७) ९. दिव्यध्वनि मेघ गर्जना रूप होती है म पृ./२३/६६ दिव्यमहाध्वनिरस्य मुखाब्जान्मेघरवानुकृतिर्निरगच्छत् । - भगवान्मुख रूपी कमलरी बादलो की गर्जनाका अनुकरण करने वाली अतिशय युक्त महादिव्यध्वनि निकल रही थी । १०. दिव्यध्वनि अक्षर अनक्षर उमयस्वरूप थी क.पा./१/११/१६६/१२६/२ अक्खराणवरखरप्पिया । = ( दिव्यध्वनि ) अक्षर अनक्षरात्मक है । ११. दिव्यध्वनि अर्थ निरूपक है ति./४/१०५ छद्दव्वणवपयत्थे पचट्ठी काय सत्ततच्चाणि । णाणाविहदूहि दिव्वणी भणइ भव्जाण । ६०५ | - यह दिव्यध्वनि भव्य जीवोंको छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्त्वोंका नाना प्रकारके हेतुओ द्वारा निरूपण करतो है ० (क. पा./१/१९/३१/ १२६/२) पं.का./ता.वृ./२/८/६ स्पष्ट तसदी वस्तुकधन जो दिव्यध्वनि उस उसकी अभीष्ट वस्तुका स्पष्ट कथन करनेवाली है । १२. श्रोताओ की भाषारूप परिणमन कर जाती है ६.५/५०/१५ जनानामापि तद्वृत्तं नानापात्रगुणाश्रयम् । सभाय दृश्यते नानादिव्यधावनी |१२| जिस प्रकार आकाशसे बरसा पानी एक रूप होता है, परन्तु पृथिवी पर पड़ते ही वह नाना रूप दिखाई देने लगता है, उसी प्रकार भगवान्की वह वाणी यद्यपि एक रूप थी तथापि सभाने सब जीव अपनी अपनी भाषामें उसका भाव पूर्णत समझते थे । (म.पु /१/१८७) म.पु/२२/०० क्योऽपि च सर्वनृभाषा सोन्टरनेटहूश्च कुमालाः । अप्रतिपत्तिमपास्य च एवं बोधयति स्म जिनस्य महिम्ना 1001 = यद्यपि वह दिव्यध्वनि एक प्रकारकी थी तथापि भगवाद के माहात्म्यसे समस्त मनुष्योंकी भाषाओं और अनेक कुभाषाओंको अपने अन्तर्भूत कर रही थी अर्थात् सर्वकी अपनी-अपनी भाषारूप परिणमन कर रही थी, और लोगोंका अज्ञान दूर कर उन्हें तलों बोध करा रही थी ७०। (क. पा. १/११/३५४ /७२/४ ) (ध.१/१,१.५०/२८४/२) (पै.का./ता.वृ./१/४/4) गो. जी / जी. प्र. / २२७ / ४८८ / १५ अनक्षरात्मकत्वेन श्रोतृश्रोत्र प्रदेशप्राप्तिसमयपर्यंतदनन्तरच श्रोताभिप्रेतार्थेषु संशयादिनिराकरणेन सम्यग्ज्ञानजनन सुनने वाले कर्ण प्रदेशको यावत् प्राप्त न होइ तावत् काल पर्यंत अनक्षर ही है ...जब सुनने वाले कर्णविषै प्राप्त हो है तत्र अक्षर रूप होइ यथार्थ वचनका अभिप्राय रूप संवादको दूर करे है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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