Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 434
________________ दान ४२६ ४. दानका महत्त्व व फल ५. सत्पात्रको दान देना सम्यग्दृष्टिको मोक्षका कारण है अमि श्रा./११/१०२,१२३ पानाय विधिना दत्वा दानं मृत्वा समाधिना । अच्युतान्तेषु कल्पेषु जायन्ते शुद्धदृष्टयः 1१०२। निषेव्य लक्ष्मी मिति शर्मकारिणी प्रथीयसी द्वित्रिभवेषु कल्मषम् । प्रदह्यते ध्यानकृशानुनाखिल श्रयन्ति सिद्धि विधुतापदं सदा १२३। - पात्रके अर्थि दान देकरि समाधि सहित मरकै सम्यग्दृष्टि जीव है ते अच्युतपर्यंत स्वर्गनिविर्षे उपजै हैं ।१०२। ( अमि, श्रा./१०२) या प्रकार सुग्वकी करनेवाली महान् लक्ष्मी को भोगके दोय तीन भवनिविर्षे समस्त कमनिको ध्यान अग्निकरि जरायके ते जीव आपदारहित मोक्ष अव स्थाकौं सदा सेवे हैं ।१२३। (प.प्र./टी./२/१११-४/२३१/१५) ।। वसु /श्रा./२४६-२६६ बदाउगा सुदिट्ठी अणुमोयणेण तिरिया वि । णियमेणुववज्जति य ते उत्तमभागभूमोसु २४६। जे पुण सम्माइट्ठी विरयाविरया वितिविहपत्तस्स। जायंति दाणफलओ कप्पेसु महड्ढिया देवा ॥२६॥ पडिबुद्धिऊण चइऊण णिव सिरि संजमं च चित्तूण । उप्पाइऊण णाणं केई गच्छति णिव्वाणं १२६८१ अण्णे उ सुदेवत्तं सुमाणुसत्तं पुणो पुगो लहिऊण । सत्तट्ठमवेहि तओ तरंति कम्मवखर्य णियमा ।२६६। बदायुष्क सम्यग्दृष्टि अर्थात् जिसने मिथ्यात्व अवस्थामै पहिले मनुष्यायुको बाँध लिया है, और पोछे सम्यग्दर्शन उत्पन्न किया है, ऐसे मनुष्य पात्रदान देनेसे और उक्त प्रकारके ही तिथंच पात्र दानको अनुमोदना करनेसे नियमसे वे उत्तम भोगभूमियोमें उत्पन्न होते है ।२४६। जो अविरत सम्यग्दृष्टि और देशसंयत जोव हैं, वे तीनों प्रकारके पात्रोको दान देनेके फलसे स्वर्गों में महद्धिक देव होते है ।२६॥ (उक्त प्रकारके सभी जीव मनुष्योमें आकर चक्रवर्ती आदि होते है। ) तब कोई वैराग्यका कारण देखकर प्रतिबुद्ध हो, राज्यलक्ष्मीको छोड़कर और संग्रमको ग्रहण कर कितने हो केवलज्ञानको उत्पन्न कर निर्वाणको प्राप्त होते हैं। और क्तिने हो जीव सुदेवत्व और समानुषत्वको पुन: पुन' प्राप्त कर सात आठ भवमें नियमसे कर्मक्षयको करते हैं (२६८-२६६)। ६. सत्पात्र दान मिथ्यादृष्टिको सुभोगभूमिका कारण है म.पु/8/८५ दानाद दानानुमोदाद्वा यत्र पात्रसमाश्रितात् । प्राणिनः सुखमेधन्ते यावज्जोवमनामयाः 11 - उत्तम पात्रके लिए दान देने अथवा उनके लिए दिये हुए दानकी अनुमोदनामे जीव जिस भोगभूमिमें उत्पन्न होते हैं उसमे जोवन पर्यन्त नीरोग रहकर सुख से बढते रहते है। अमि. श्रा./६२ पात्रेभ्यो य' प्रकृष्टेभ्यो मिथ्यादृष्टि प्रयच्छति । स याति भोगभूमोषु प्रकृष्टासु महोदयः १६२॥ -जो मिथ्यादृष्टि उत्कृष्ट पात्रनिके अर्थि दान देय है सो महाद है उदय जाका ऐसा उत्कृष्ट भीम भूमि को जाय है। (वसु. श्रा./२४५) बसु. श्रा./२४६-२४७ जा मज्झिमम्मि पत्तम्मि देह दाणं खु बामदिही वि। सो मज्झिमासु जीवो उप्पज्जइ भोयभूमीसु ॥२४६॥ जो पुण जहण्णपत्तम्मि देइ दाणं तहाविहो विणरो। जायइ फलेण जहण्णसु भोयभूमीसु सो जोवो ॥२४७॥ = अर जो मिथ्यादृष्टि भी पुरुष मध्यमपात्र में दान देता है वह जीव मध्यम भोगभूमिमें उत्पन्न होता है ॥२४६॥ और जो जोय तथाविध अर्थाद उक्त प्रकारका मिथ्या दृष्टि भो मनुष्य जघन्य पात्र में दानको देता है, वह जीव उस दानके फलसे जघन्य भोग भूमियोमें उत्पन्न होता है ॥२४॥ ७. कुपात्र दान कुभोग भूमिका कारण है प्र. सा./मू-/२५६ छात्यविहिदवत्थुसु वदणियमझयण झाणदाणरदो। ण लहदि अपुषभावं भावं सादप्पगं लहदि। -जो जीव छद्मस्थविहित बरतुओंमें ( देव, गुरु धर्मादिकमें ) व्रत-नियम-अध्ययन ___ ध्यान-दानमे रत होता है वह मोक्षको प्राप्त नहीं होता, (किन्तु) सातात्मक भावको प्राप्त होता है ॥२६॥ ह. पु./9/११५ कुपात्रदानतो भूत्वा तिर्यञ्चो भोगभूमिषु । संभुञ्जतेऽन्तरं द्वीपं कुमानुषकुलेषु वा ॥११॥ -कुपात्र दानके प्रभाव से मनुष्य, भोगभूमियों में तिर्यञ्च होते हैं अथवा कुमानुष कुलोमे उत्पन्न होकर अन्तर द्वीपोंका उपभोग करते हैं ।११५॥ अमि.श्रा./८४-८८ कुपात्रदानतो याति कुत्सिता भोगमेदिनीम् । उप्ते कः कुत्सिते क्षेत्रे सुक्षेत्रफलमश्नुते ।८४येऽन्तरद्वीपजाः सन्ति ये नरा म्लेच्छरवण्डजाः । कुपात्रदानतः सर्वे ते भवन्ति यथायथम् ॥८॥ वर्यमध्यजधन्यासु तिर्यश्चः सन्ति भूमिषु । कुपात्रदान वृक्षोत्थ भुज्जते तेऽखिला' फलम् ॥८६॥ दासीदासद्विपम्लेच्छसारमेयादयोऽत्र ये। कुपात्रदानतो भोगस्तेषां भोगवता स्फुटम् ॥८७॥ दृश्यन्ते नीचजातीन ये भोगा भोगिनामिह । सर्वे कुपात्रदानेन ते दीयन्ते महोदया।८८॥ =कुपात्रके दानत जीव कुभोगभूमिको प्राप्त होय है. इहाँ दृष्टांत क है है-खोटा क्षेत्रवि बीज बोये संते सुक्षेत्रके फलको कौन प्राप्त होय, अपितु कोई न होय है ॥४॥ (वसु. श्रा./२४८ )। जे अन्तरद्वीप लवण समुद्रवि वा कालोद समुद्र विषै छयानचें कुभोग भूमि के टापू परे है, तिनविषै उपजे मनुष्य हैं अर म्लेच्छ खण्ड विर्षे उपजै मनुष्य हैं ते सर्व कुपात्र दानत यथायोग होय है ॥८५॥ उत्तम, मध्यम, जघन्य भोग भूमिन विर्ष जे तिर्यच है ते सर्व कुपात्र दान रूप वृक्षत उपज्या जो फल ताहि खाय है ॥८६॥ इहां आर्य स्खण्डमें जो दासी, दास, हाथी, म्लेच्छ, कुत्ता आदि भोगवंत जीव हैं तिनको जो भोगै सो प्रगटपने कुपात्र दानते हैं, ऐसा जानना ॥८७॥ इहाँ आर्य खण्ड विषै नीच जातिके भोगी जीवनिके जे भोग महाउदय रूप देखिये है ते सर्व कुपात्र दान करि दीजिये है ॥८॥ ८. अपात्र दानका फल अत्यन्त अनिष्ट है प्र. सा./मू./२५७ अविदिदपरमत्थेसु य विसयकसायाधिगेसु पूरिसेस । जुठं कदं व दत्तं फलदि कुदेवेसु मणुवेसु ॥२५७॥ -जिन्होने परमार्थको नही जाना है, और जो विषय कषायमें अधिक है, ऐसे पुरुषों के प्रति सेवा, उपकार या दान कुदेवरूपमें और कुमानुष रूपमें फलता है ॥२७॥ ह. पु./७/११८ अम्बु निम्बद्रुमे रौद्रं कोद्रवे मद कृद्ध यथा । विर्ष व्यालमुखे क्षीरमपात्रे पतितं तथा ॥११८॥ - जिस प्रकार नीमके वृक्षमें पड़ा हुआ पानी कडुवा हो जाता है, कोदो में दिया पानी मदकारक हो जाता है, और सर्प के मुख में पडा दूध विष हो जाता है, उसी प्रकार अपात्रके लिये दिया हुआ दान विपरीत फलको करनेवाला हो जाता हे ॥११८॥ (अमि. श्रा./ह-६) (वसु श्रा/२४३)। वसु. श्रा/२४२ जह उसरम्मि खित्त पडण्णनीयं ण कि पि रहेइ । फला वज्जियं वियाणइ अपत्तदिग्णं तहा दाणं ॥२४२॥ = जिस प्रकार उसर खेतमें मोया गया बीज कुछ भी नहीं उगता है, उसी प्रकार अपात्र में दिया गया दान भी फल रहित जानना चाहिए ।२४२॥ ९.विधि, द्रव्य, दाता व पात्रके कारण दानके फलमें विशेषता आ जाती है त. सु./७/३६ विधिद्रव्यदातृपात्र विशेषात्तद्विशेष ॥३६॥ -विधि, देय___ बस्तु, दाता और पात्रकी विशेषतासे दानकी विशेषता है ॥३॥ कुरल./8/७ आतिथ्यपूर्ण माहात्म्यवर्णने न क्षमा वयम् । दातृपात्रविधिद्रव्यैस्तस्मिन्नस्ति विशेषता ॥७॥ -हम किसी अतिथि सेवाके माहात्म्यका वर्णन नहीं कर सकते कि उसमें कितना पुण्य है। अतिथि यज्ञका महत्त्व तो अतिथिको योग्यता पर निर्भर है।। प्र. सा/मू./२५५ रागो पसत्यभूदो वत्थविसेसेण फलदि विवरीदं । जाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि । -जैसे इस जगत में जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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