Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 431
________________ दान ४२३ ३. गृहस्थोके लिए दान-धर्मकी प्रधानता जीवको जानकर अर्थात् देखकर शरीरके योग्य पथ्यरूप औषधदान भी देना चाहिए ।२३६। जो आगम-शास्त्र लिखाकर यथायोग्य पात्रोंको दिये जाते है, उसे शास्त्रदान जानना चाहिए तथा जिनवचनोंका अध्यापन कराना पढाना भी शास्त्रदान है ।२३७) मरणसे भयभीत जीवोंका जो नित्य परिरक्षण किया जाता है, वह सब दानोंका शिखामणिरूप अभयदान जानना चाहिए ।२३८। चा.सा./४३/६ दयादत्तिरनुकम्पयाऽनुग्राह्येभ्यः प्राणिभ्यखिशुद्धि भिरभयदानं । जिस पर अनुग्रह करना आवश्यक है ऐसे दुरखी प्राणियोंको दयापूर्वक मन, वचन, कायकी शुद्धतासे अभयदान देना दयादत्ति है। प.प्र./२/१२७/२४३/१० निश्चयेन वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनपरिणामरूपमभयप्रदानं स्वकीयजीवस्य व्यवहारेण प्राणरक्षारूपमभयप्रदान परजीवानां। -निश्चयनयकर वीतराग निर्विकल्प स्वसवेदन परिणाम रूप जो निज भावोंका अभयदान निज जीवकी रक्षा और व्यवहार नयकर परप्राणियोके प्राणोको रक्षारूप अभयदान यह स्वदया परदयास्वरूप अभयदान है । ५. सात्त्विक राजसादि दानोके लक्षण सा.ध./१/४७ में उद्घृत-आतिथेयं हितं यत्र यत्र पात्रपरीक्षणं । गुणाः श्रद्धादयो यत्र तद्दानं सात्त्विक विदुः। यदात्मवर्णनप्राय क्षणिकाहार्य विभ्रमं। परप्रत्ययसंभूतं दानं तद्राजसं मतं । पात्रापात्रसमावेक्षमसत्कारमसंस्तुतं । दासभृत्यकृतोद्योगं दानं तामसमूचिरे । जिस दानमें अतिथिका कल्याण हो, जिसमें पात्रकी परीक्षा वा निरीक्षण स्वयं किया गया हो और जिसमें श्रद्धादि समस्त गुण हों उसे सात्त्विक दान कहते है। जो दान केबल अपने यशके लिए किया गया हो, जो थोड़े समयके लिए ही सुन्दर और चकित करने वाला हो और दूसरेसे दिलाया गया हो उसको राजस दान कहते हैं। जिसमें पात्र अपात्रका कुछ खयाल न किया गया हो, अतिथिका सत्कार न किया गया हो, जो निन्द्य हो, और जिसके सब उद्योग दास और सेवकोंसे कराये गये हों, ऐसे दानको तामसदान कहते हैं। ६. सात्त्विकादि दानों में परस्पर तरतमता सा.ध./५/४७ में उधृत-उत्तम सात्त्विक दानं मध्यमं राजसं भवेत् । दानानामेव सर्वषां जघन्यं तामसं पुन.। =सात्त्विक दान उत्तम है, राजस मध्यम है, और सब दानोंमे तामस दान जघन्य है। ७. तियचों के लिए मी दान देना सम्भव है ध.७/२.२.१६/१२३/४ कधं तिरिक्खेसु दाणस्स संभवो। ण, तिरिक्रवसंजदासंजदाणं सचित्तभंजणे गहिदपच्चक्रवाणं सल्लइपल्लवादि देततिरिक्वाणं तदविरोधादो। प्रश्न--तिर्यंचोंमे दान देना कैसे सम्भव हो सकता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि जो तिर्यच संयतासयत जीव सचित्त भंजनके प्रत्याख्यान अर्थात व्रतको ग्रहण कर लेते हैं उनके लिए सल्लकी के पत्तों आदिका दान करने वाले तियचोंके दान देना मान लेनेमे कोई विरोध नहीं आता। २. क्षायिक दान निर्देश १. क्षायिक दानका लक्षण स. सि./२/४/१५४/४ दानान्तरायस्यात्यन्तायादनन्तप्राणिगणानुग्रहकर क्षायिकमभयदानम् । दानान्तरायकर्मके अत्यन्त क्षयसे अनन्त प्राणियोंके समुदायका उपकार करने वाला क्षायिक अभयदान होता है। (रा.वा./२/४/२/१०५/२८) २. क्षायिक दान सम्बन्धी शंका समाधान ध.१४/५,६,१८/१७/१ अरहंता वीणदाणं तराइया सन्वेसि जीवाणमिच्छिदेत्थे किण्ण देति । ण, तेसिं जीवाणं लाइंतराइयभावादो। प्रश्न-अरिहन्तोंके दानान्तरायका तो क्षय हो गया है, फिर वे सब जीवों को इच्छित अर्थ क्यों नहीं देते। उत्तर-नहीं, क्योंकि उन जीवोंके लाभान्तराय कर्मका सद्भाव पाया जाता है। ३. सिद्धों में क्षायिक दान क्या है स.सि./२/४/१५५/१ यदि क्षायिकदानादिभावकृतमभयदानादि, सिद्धेष्वपि तत्प्रसङ्गः, नैष दोषः, शरीरनामतीर्थंकरनामकर्मोदयाद्यपेक्षस्वात। तेषां तदभावे तदप्रसन'। कथ तर्हि तेषां सिद्धेषु वृत्तिः । परमानन्दाव्याबधिरूपेणैव तेषां तत्र वृत्तिः । केवलज्ञानरूपेणानन्तवीर्यवृत्तिवत्। --प्रश्न-यदि क्षायिक दानादि भावोके निमित्त से अभय दानादि कार्य होते है तो सिद्धोंमें भी उनका प्रसंग प्राप्त होता है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि इन अभयदानादिके होनेमें शरीर नामकर्म और तीर्थकर नामकर्मके उदयकी अपेक्षा रहती है। परन्तु सिद्धोंके शरीरनामकर्म और तीर्थकर नामकर्म नहीं होते अतः उनके अभयदानादि नहीं प्राप्त होते। प्रश्न-तो सिद्धोमें क्षायिक दानादि भावों का सद्भाव कैसे माना जाय । उत्तरजिस प्रकार सिद्धोंके केवलज्ञान रूपसे अनन्त वीर्यका सद्भाव माना गया है उसी प्रकार परमानन्दके अव्याबाध रूपसे ही उनका सिद्धोंके सद्भाव है। ३. गृहस्थोंके लिए दान-धर्मकी प्रधानता १. सपात्रको दान देना ही गृहस्थका धर्म है र.सा./मू./११ दाणं पूजा मुक्ख सावयधम्मे ण सावया तेणविणा ।...।११। -सुपात्र में चार प्रकारका दान देना और श्री देवशास्त्र गुरुकी पूजा करना श्रावकका मुख्य धर्म है। नित्य इन दोनोंको जो अपना मुख्य कर्तव्य मानकर पालन करता है वही श्रावक है, धर्मात्मा व सम्यग्दृष्टि है । (र.सा./मू./१३) (पं.वि/७/७) प.प्र./टी./२/१११/४/२३१/१४ गृहस्थानामाहारदानादिकमेव परमो धर्मः।-गृहस्थों के तो आहार दानादिक ही बड़े धर्म है। २. दान देकर खाना ही योग्य है र.सा./मू./२२ जो मणिभुत्ताबसेस भुंजइसी भुंजए जिणवद्दिछ । संसारसारसोक्वं कमसो णिव्वाणवरसोक्वं । =जो 'भव्य जीव मुनीश्वरोंको आहारदान देनेके पश्चात् अवशेष अन्नको प्रसाद समझ कर सेवन करता है वह संसारके सारभूत उत्तम सुखोंको प्राप्त होता है और क्रमसे मोक्ष सुखको प्राप्त होता है। का.अ./मू /१२-१३.. लच्छी दिजउ दाणे दया-पहाणेण । जा जल-तरंगचवला दो तिण्णि दिणाइ चिठे ।१२। जो पुण लच्छि संचदि ण य...देदि पत्तेसु। सो अप्पाण वंचदि मणुयत्तं णिप्फलं तस्स ।१३। पह लक्ष्मी पानी में उठनेवाली लहरोंके समान चंचल है, दो तीन दिन ठहरने वाली है तब इसे.. दयालु होकर दान दो ।१२। जो मनुष्य लक्ष्मीका केवल संचय करता है...न उसे जघन्य, मध्यम अथवा उत्तम पात्रोमें दान देता है. वह अपनी आत्माको ठगता है, और उसका मनुष्य पर्यायमें जन्म लेना वृथा है। ३. दान दिये बिना खाना योग्य नहीं कुरला/२ यदि देवान् गृहे वासो देवस्यातिथि रूपिण.। पीयूषस्यापि पानं हि तं बिना नैव शोभते २५ -जब घरमे अतिथि हो तब चाहे अमृत ही क्यों न हो, अकेले नहीं पीना चाहिए। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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