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दर्शन प्रतिमा
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दर्शन विशुद्धि
रा. वा, हिं./७/२०१५५८ प्रथम प्रतिमा विषै ही स्थूल त्याग रूप पांच अणुवतका ग्रहण है.. तहाँ ऐसा समझना जो ..पंच उदम्बर फलमे तो त्रसके मारनेका त्याग भया । ऐसा अहिसा अणुवत भया । चोरी तथा परस्त्री त्यागमे दोऊ अचौर्य व ब्रह्मचर्य अणुव्रत भये। दूत कर्मादि अति तृष्णाके त्यागते असत्यका त्याग तथा परिग्रहकी अति चाह मिटी (सत्य व परिग्रह परिणाम अणुव्रत हुए)। मांस, मद्य, शहदके त्यागते त्रस कू मारकरि भक्षण करनेका त्याग भया ( अहिसा अणुवत हुआ) ऐसे पहिली प्रतिमामें पांच अणुव्रतकी प्रवृत्ति सम्भवे है। अर इनिके अतिचार दूर करि सके नाहीं तातै व्रत प्रतिमा नाम न पावै अतिचारके त्यागका अभ्यास यहाँ अवश्य करे। ('चा. पा./ भाषा/२३)।
३. अविरत सम्यग्दृष्टि व दर्शन प्रतिमामें अन्तर प. पु./११८/१५-१६ इयं श्रीधर ते नित्यं दयिता मदिरोत्तमा। इमा तावत् पिब न्यस्तां चषके विकचोपले ॥१५॥ इत्युक्त्वा तो मुखे न्यस्य चकार सुमहादरः। कथं विशतु सा तत्र चारू संक्रान्तचेतने ॥१६॥ -हे लक्ष्मीधर । तुम्हे यह उत्तम मदिरा निरन्तर प्रिय रहती थी सो खिले हुए नील कमलसे सुशोभित पानपात्रमें रखी हुई इस मदिराको पिओ ॥१५॥ ऐसा कहकर उन्होने बडे आदरके साथ वह मदिरा उनके मुख में रख दी पर वह सुन्दर मदिरा निश्चेतन मुखमें कैसे प्रवेश करती ॥१६॥ प.प्र.टी./२/१३३ गृहस्थावस्थायां दानशील पूजोपवासादिरूपसम्यक्त्वपूर्वको गृहिधर्मो न कृतः, दार्शनिकवतिकाद्य कादशविधश्रावकधर्मरूपो वा । गृहस्थावस्थामे जिसने सम्यक्त्व पूर्वक दान, शील, पूजा, उपवासादिरूप गृहस्थका धर्म नहीं किया, दर्शन प्रतिमा व्रत प्रतिमा
आदि ग्यारह प्रतिमाके भेदरूप श्रावक का धर्म नही धारण किया। वसु. श्रा/५६-५७ एरिसगुण अजुयं सम्मतं जो धरेइ दिढचित्तो। सो हवइ सम्मदिराठी सद्दहमाणो पयत्थे य ॥५६॥ पंचुंबरसहियाइ सत्त वि विसणाई जो विवज्जेइ। सम्मत्तविसुद्धमई सो दंसणसावओ भणिओ ॥५७॥ - जो जीव दृढचित्त होकर जीवादिक पदार्थोंका श्रद्धान करता हुआ उपयुक्त इन आठ ( निशकितादि ) गुणोंसे युक्त सम्यक्त्वको धारण करता है, वह सम्यग्दृष्टि कहलाता है ॥५६॥ और जो सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध है बुद्धि जिसकी, ऐसा जो जीव पांच उदुम्चर फल सहित सातों ही व्यसनोका त्याग करता है वह दर्शन श्रावक कहा गया है ॥५७॥ ला,सं./३/१३१ दर्शनप्रतिमा नास्य गुणस्थानं न पञ्चमम् । केवल पाक्षिक'
सः स्याद्गुणस्थानादसयतः ।१३। जो मनुष्य मद्यादि तथा सप्त व्यसनोंका सेवन नहीं करता परन्तु उनके सेवन न करनेका नियम भी नहीं लेता, उसके न तो दर्शन प्रतिमा है और न पाँचवाँ गुणस्थान ही होता है। उसको केवल पाक्षिक श्रावक कहते हैं, उसके असंयत नामा चौथा गुणस्थान होता है । भावार्थ-जो सम्यग्दृष्टि मद्य मासादिके त्यागका नियम नहीं लेता, परन्तु कुल क्रमसे चली आयी परिपाटीके अनुसार उनका सेवन भी नहीं करता उसके चौथा गुणस्थान होता है। का-अ./भाषा पं.जयचन्द/३०७ पच्चीस दोषोंसे रहित निर्मल सम्यग्दर्शन
का धारक अविरत सम्यग्दृष्टि है तथा अष्टमूल गुण धारक तथा सप्त व्यसन त्यागी शुद्ध सम्यग्दृष्टि है।
१. दर्शन प्रतिमा व व्रत प्रतिमामें अन्तर रा.वा./हि /9/२०/५५८ पहिलो प्रतिमामें पाँच अणुबतोकी प्रवृत्ति सम्भवै है अर इनके अतिचार दूर कर सके नाही तातै व्रत प्रतिमा नाम न पावै । चा.पा./पं. जयचन्द/२३/६३ दर्शन प्रतिमाका धारक भी अणुवती ही है .."याकै अणुवत अतिचार सहित होय है तातें व्रती नाम न कह्या
दूजी प्रतिमामें अणुव्रत अतिचार रहित पालै तातें व्रत नाम कह्या इहाँ सम्यक्त्वकै अतोचार टाले है सम्यक्त्व ही प्रधान है तातै दर्शन प्रतिमा नाम है (क्रिया कोष/१०४२-१०४३) ।
५. दर्शन प्रतिमाके अतिचार चा.पा./टी./२१/४३/१० (नोट-मूलके लिए दे० सांकेतिक स्थान )। समस्त कन्दमूलका त्याग करता है, तथा पुष्प जातिका त्याग करता है।(दे० भक्ष्याभक्ष्य/४/३४ नमक तैल आदि अमर्यादित वस्तुओंका त्याग करता है (दे०-भक्ष्याभक्ष्य/२) तथा मांसादिसे स्पर्शित वस्तुका त्याग (दे०-भक्ष्याभक्ष्य/२) एवं द्विदलका दूधके संग त्याग करता है (भक्ष्याभक्ष्य/३) तथा रात्रिको ताम्बूल, औषधादि और जलका त्याग करता है ।
विरात्रि भोजन) । अन्तराय टोलकर भोजन करता है। (दे० अन्तराय/२) उपरोक्त त्यागमें यदि कोई दोष लगे तो वह दर्शन प्रतिमाका अतिचार कहलाता है। विशेष दे० भक्ष्याभक्ष्य । सप्त व्यसनके अतिचार-दे० वह वह नाम । * दर्शन प्रतिमामें प्रासुक पदार्थोंके ग्रहणका निर्देश
-दे० सचित्त। दर्शनमोह-दे० मोहनीय । दर्शनवाद-दे० श्रद्धानवाद । दर्शन विनय-दे० विनय/१। दर्शनविशुद्धि-तीर्थकरत्वकी कारणभूत षोडश भावनाओं में सर्व __ प्रथम व सर्व प्रधान भावना दर्शनविशुद्धि है। इसके बिना शेष १५
भावनाएँ निरर्थक है । क्योकि दर्शनविशुद्धि ही आत्मस्वरूप संवेदनके प्रति एक मात्र कारण है। सम्यग्दर्शनका अत्यन्त निर्मल व दृढ हो जाना ही दर्शनविशुद्धि है। १. दर्शनविशुद्धि भावनाका लक्षण
१. तत्त्वाथेके श्रद्धान द्वारा शुद्ध सम्यग्दर्शन प्र.सा./ता.वृ /८२/१०४/१८ निजशुद्धात्मरुचिरूपनिश्चयसम्यक्त्वसाधकेन मूढत्यादिपञ्चविशतिमलरहितेन तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणेन दर्शनेन शुद्धा दर्शनशुद्धा पुरुषा. निज शुद्धात्मकी रुचि रूप सम्यक्त्वका जो साधक है ऐसा तीन मूढताओं और २५ मलसे रहित तत्त्वार्थ के श्रद्धान रूप लक्षणवाले दर्शनसे जो शुद्ध हैं वे पुरुष दर्शनशुद्ध कहे जाते हैं। २. साष्टांग सम्यग्दर्शन रा.वा./६/२४/१/१/२६ जिनोपदिष्टे निग्रन्थे मोक्षवम॑नि रुचिः निःशडकितत्वाद्यष्टाङ्गादर्शनविशुद्धिः ॥११ =जिनोपदिष्ट निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग में रुचि तथा निशंकितादि आठ अंग सहित होना सो दर्शनविशुद्धि है (स.सि./६/२४/३३८/२)। भ, आ./वि./१६७/३८०/१० निशंकितत्वादिगुणपरिणतिर्दशन विशुद्धिः तस्यां सत्यां शड्काकाङ्क्षा विचिकित्सादीनां अशुभपरिणामान परिग्रहाणा त्यागो भवति ।-निशकित वर्ग रह गुणोकी आत्मामें परिणति होना यह दर्शनशुद्धि है। यह शुद्धि होनेसे कांक्षा, विचिकित्सा वगैरह अशुभ परिणामरूपी परिग्रहोंका त्याग होता है। ३. निदोष सम्यग्दर्शन ध,८/३.४१/७६/१ देसणं सम्मद्दसणं, तस्स विसुज्झदा दंसणविसुज्झदा,
तोए दंसणविसुझदाए जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंधं ति । तिमूढाबोढ-अट्ठ-मलवदिरित्तसम्मसणभावो दंसणविसुज्झदा णाम । = 'दर्शन' का अर्थ सम्यग्दर्शन है। उसकी विशुद्धताका नाम दर्शनविशुद्धता है । • उस दर्शनविशुद्धिसे जीव तीर्थंकर नामकर्मका
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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