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दर्शनविशुद्धि
दर्शनावरण
बन्ध करते हैं। तीन मूढताओंसे रहित और आठ मलोंसे व्यतिरिक्त एण होदि, किंतु पुग्विल्लगुणेहि सरूवं लद्धणं दिसम्मईसणस्स जो सम्यग्दर्शनभाव है उसे दर्शनविशुद्धता कहते है (चा.सा./५१/६) । साहूणं पासुअपरिच्चागे साहूण समाहिसंधारणे साहूणं वेज्जावच्चजोगे ४. अभक्ष्य भक्षणके त्याग सहित साष्टांग सम्यग्दर्शन
अरहंतभत्तीए बहुसू भत्तीए पवयणभत्तीए पवयणवच्छलदाए पवयणे
पट्टावणे अभिक्रवणं णाणोवजोगजुत्तत्तणे पयट्ठावणं विसुज्झदा णाम । भा. पा./टी./७७/२२१/२ एतैः (निशकितत्वादि) अष्टभिर्गुणैर्युक्तत्वं
तीए दंसणविसुज्झदाए एकाए वि तित्थयरकम्मं बंधंति। चर्मजलतै लघृतभूतनाशनाप्रयोगत्वं मूलकगर्ज रसूरणकन्दगृञ्जनपला
ध.८/३,४१/८६/५ अरहंतवुत्ताणुठ्ठाणाणुवत्तणं तदणुहाणपासो वा ण्डविशदौग्धिककलिड्गपञ्चपुष्पसधानककौसुम्भ पत्रपत्रशाकमासादि
अरहंतभत्ती ण म । ण च एसा दसणविसुज्झदादीहि विणा संभवइ, भक्षकभाजनभोजनादिपरिहरणं च दर्शनविशुद्धिः। -सम्यग्दर्शनके
विरोहादो। - प्रश्न केवल उस एक दर्शनविशुद्धतासे ही तीर्थकर आठ गुणोसे युक्त होना। चर्म की वस्तुमे रखे जल, तेल, घी आदि
नामकर्मका बन्ध कैसे सम्भव है, क्योंकि, ऐसा माननेसे सब सम्यखानेकी वस्तुओका प्रयोग न करना। कन्द, मूली, गाजर आदि
ग्दृष्टियोंके तीर्थकर नामकर्मके बन्धका प्रसंग आवेगा । उत्तर-इस जमीकन्द, आल्लू, बडफलादि तरबूज, पंच पुष्प, आचार, कौसुंभ पत्र
शंकाके उत्तरमे कहते है कि शुद्ध नयके अभिप्रायसे तीन मूढताओं और पत्तेके शाक तथा मांसादिके खानेवालोके बर्तनोमें रखे हुए
और आठ मलोसे रहित होनेपर ही दर्शनविशुद्धता नही होती, भोजनको त्यागना यह दर्शनविशुद्धि है।
किन्तु पूर्वोक्त गुणोसे (तीन मूढताओ व आठ मलों रहित) अपने ५ सम्यग्दर्शनकी और अविचल झुकाव
निज स्वरूपको प्राप्तकर स्थित , सम्यग्दर्शनके, साधुओको प्रामुक ध.८/३,४१/८०/२ ण तिमूढा वोढत्तट्ठमलवदिरेगेहि चेव दसणविसुज्झदा परित्याग, साधुओकी समाधिसंधारणा, साधुओंको वैयावृत्तिका सुद्धणयाहिप्णएण होदि, किंतु पुग्विल्लगुणेहि सरूव' लद्ध ण द्विद- सयोग, अरहन्त भक्ति, बहुश्रुत भक्ति, प्रवचन भक्ति, प्रवचन वत्ससम्मदंसणस्स साहूणं पासु अपरिच्चागे...पसट्ठावणं विसुज्झदा लता, प्रवचन प्रभावना, और अभीक्ष्णज्ञानोपयोग युक्ततामें प्रवर्तनेका णाम । - शुद्ध नयके अभिप्रायसे तीन मूढताओं और आठ मलोंसे नाम विशुद्धता है। उस एक ही दर्शनविशुद्धतासे ही तीर्थंकर कर्मरहित होनेपर ही दर्शनविशुद्धता नहीं होती, किन्तु पूर्वोक्त गुणोंमे को बाँधते है। (चा सा./५२/४ ) अरहन्तके द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठानके अपने निज स्वरूपको प्राप्तकर स्थित सम्पग्दर्शनकी साधुओंकी अनुकूल प्रवृत्ति करने या उक्त अनुष्ठानके स्पर्शको अहंत भक्ति कहते प्रासुक परित्याग आदि...की युक्ततामें प्रवर्तनेका नाम विशुद्धता है। है। और यह दर्शनबिशुद्धतादिकोके बिना सम्भव नहीं है।
दर्शनविशुद्धि व्रत-औपशामिकादि (उपशम, क्षयोपशम व २. सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा दर्शनविशुद्धि निर्देशका कारण
क्षायिक ) तीनो सम्यक्त्वोके आठ अंगोंकी अपेक्षा २४ अग होते हैं। चा,सा /१२/१ विशुद्धि विना दर्शनमात्रादेव तीर्थंकरनगमकर्मबधो न
एक उपवास एक पारणा क्रमसे २४ उपवास पूरे करे। जाप--नमोकार भवति. त्रिमूढापोढाष्टमदादिरहितत्वात उपलब्ध निजस्वरूपस्य सम्य- मन्त्रका त्रिकाल जाप, (ह. पु./३४/88)। (व्रत विधान संग्रह/१०७) ग्दर्शनस्य.. शेषभावनानां तत्रैवान्तर्भावादिति दर्शनविशुद्धता (सुदृष्टितरंगिणी/) व्याख्याता। - प्रश्न-(सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा दर्शनविशुद्धि निर्देश
दर्शनशुद्धि-आ० चन्द्रप्रभ सूरि ( ई० ११०२) द्वारा रचित क्यो किया') उत्तर-क्योंकि, सम्यग्दर्शनकी विशुद्धिके बिना
सम्यवस्व विषयक न्यायपूर्ण ग्रन्थ न्यायावतार/०४/सतीश चन्द्र केवल सम्यग्दर्शन होने मात्रसे तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध नहीं होता। वह विशुद्ध सम्यग्दर्शनमें (चाहे तोनमेंसे कोई सा भी हो) तीन
दर्शनसार-आ० देवसेन ( ई० ६३३) द्वारा रचित प्राकृत गाथा मूढता और आठ मदोसे रहित होनेके कारण अपने आत्माका निज
बद्ध ग्रन्थ है। इसमे मिथ्या मतो व जैनाभासोका संक्षिप्त वर्णन स्वरूप प्रत्यक्ष होना चाहिए "बाकीकी पन्द्रह भावनाएँ भी उसी
किया गया है । गाथा प्रमाण ५१ है । (ती./२/३६६), (जै/१/४२०)। एक दर्शनविशुद्धि में ही शामिल हो जाती है, इसलिए दर्शन- दर्शनाचार-दे० आचार । विशुद्धताका व्याख्यान किया।
दर्शनाराधना-दे० आराधना । १.सोलह मावनाओं में दर्शनविशुद्धिकी प्रधानता
दर्शनावरण-1. दर्शनावरण सामान्यका लक्षण भ.आ./मू./७४० सुद्ध सम्मत्ते अविरदो वि अज्जेदि तित्थयरणाम । स. सि./८/३/३७८/१० दर्शनावरणस्य का प्रकृतिः। अर्थानालोकनम् । जादो दु सेणिगो आगमेसि अरुहो अविरदो वि ७४०।-शका, कांक्षा स.सि./८/४/३८०/३ आवृणोत्यात्रियतेऽनेनेति वा ज्ञानावरणम् । = वगैरह अतिचारोंसे रहित अविरत सम्यग्दृष्टिकी भी तीर्थंकर नाम- दर्शनावरण कर्म की क्या प्रकृति है । अर्थका आलोकन नही होना। कर्मका बंध होता है। केवल सम्यग्दर्शनको संहायतासे ही श्रेणिक जो आवृत करता है या जिसके द्वारा आवृत किया जाता है वह राजा भविष्यत्कालमें अरहंत हुआ।
आवरण कहलाता है। (रा. वा./८/३/२/५६७ ) । इ.स/टी./२८/१५६/४ षोडशभावनासु मध्ये परमागमभाषया पञ्चविशति- घ. १/१,१,१३१/३८१/८ अन्तरङ्गार्थविषयोपयोगप्रतिबन्धक दर्शना
मलरहिता तथाध्यात्मभाषया निजशुद्धात्मोपादेयरुचिरूपा सम्यक्त्व- वरणीयम् । = अन्तरंग पदार्थको विषय करनेवाले उपयोगका प्रतिभावन व मुख्येति विज्ञेयः। - इन सोलह भावनाओंमें, परमागम बन्धक दर्शनावरण कर्म है। भाषासे...२५ दोषोंसे रहित तथा अध्यारम भाषासे निजशुद्ध आत्मामें ध. ६/१,६-१,७/१०/३ एवं दसणमावारेदि ति दसणावरणीयं । जो उपादेय रूप रुचि ऐसी सम्यक्त्वकी भावना ही मुख्य है, ऐसा
पोग्गलकरवंधो...जीवसमवेदो देसणगुणपडिबंधओ सो दसणावरणीयजानना चाहिए।
मिदि घेतब्बो । जो दर्शनगुणको आवरण करता है, वह दर्शना४. एक दर्शनविशुद्धिसे ही तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध कैसे । वरणीय कर्म है। अर्थात जो पुद्गल स्कत्व...जीवके साथ समवाय
संबन्धको प्राप्त है और दर्शनगुणका प्रतिबन्ध करनेवाला है, वह सम्मव है
दर्शनावरणीय कर्म है। घ. ८/३,४१/८०/१ कधं ताए एकाए चेव तित्थयरणामकम्मस्स बंधो, गो. क./जो, प्र./२०/१३/१२ दर्शनमावृणोतीति दर्शनावरणीयं तस्य का
सबसम्माइट्ठीणं तित्थयरणामकम्मबधपसंगादो त्ति । बुच्चदे- प्रकृति.। दर्शनप्रच्छादनता। किवत् । राजद्वारप्रतिनियुक्तप्रतीहारतिमूढावोढत्तमलवदिरेगेहि चेत्र दंसणविमुज्झदा सुगणयाहिप्पा- बत् ।-दर्शनको आवरै सो दर्शनावरणीय है। याकी यह प्रकृति है
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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