Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 414
________________ दर्शन ४०६ २. ज्ञान व दर्शनमें अन्तर २. दर्शनका व्युत्पत्ति अर्थ स.सि./१/१/६/१ पश्यति दृश्यतेऽनेन दृष्टिमात्र वा दर्शनम् -दर्शन शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाय अथवा देखनामात्र । (गो. जी./जी. प्र./४८३/८८१/२)। रा. वा /१/१/ वार्तिक नं, पृष्ठ नं./पंक्ति नं. पश्यति वा येन तद् दर्शन । (१/१/४/४/२४)। एवंभूतनयवक्तव्यवशात्-दर्शनपर्यायपरिणत आत्मैव...दर्शनम् (१/१/५/५/१) पश्यतीति दर्शनम्। (१/१/२४/६/१)। दृष्टिदर्शनम्/ (१/१/२६/१/१२) । जिससे देखा जाये वह दर्शन है। एवम्भूतनयकी अपेक्षा दर्शनपर्यायसे परिणत आत्मा ही दर्शन है। जो देखता है सो दर्शन है। देखना मात्र ही दर्शन है। ध. १/१.१,४/१४५/३ दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम्। जिसके द्वारा देखा जाय या अवलोकन किया जाय उसे दर्शन कहते है। स्या. म./१/१०/२२ सामान्यप्रधानमुपसर्जनीकृतविशेषमर्थ ग्रहणं दर्शनमुच्यते। तथा प्रधान विशेषमुपसर्जनीकृतसामान्यं च ज्ञानमिति ।-- सामान्यकी मुख्यतापूर्वक विशेषको गौण करके पदार्थ के जाननेको दर्शन कहते हैं और विशेषकी मुख्यतापूर्वक सामान्यको गौण करके पदार्थ के जाननेको ज्ञान कहते है। ३. उत्तर ज्ञानकी उत्पत्तिके लिए व्यापार विशेष ध. १/१,१,४/१४६/१ प्रकाशवृत्तिर्वा दर्शनम् । अस्य गमनिका, प्रकाशो ज्ञानम् । तदर्थ मात्मनो वृत्ति. प्रकाशवृत्तिस्तदर्शन मिति। -अथवा प्रकाश वृत्तिको दर्शन कहते हैं । इसका अर्थ इस प्रकार है, कि प्रकाश ज्ञानको कहते हैं, और उस ज्ञानके लिए जो आत्माका व्यापार होता है, उसे प्रकाश वृत्ति कहते हैं । और वही दर्शन है। ध. ३/१,२,१६१/४५७/२ उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्तप्रयत्नविशिष्टस्वसंवेदनस्य दर्शनत्वात् । - उत्तरज्ञानकी उत्पत्तिके निमित्तभूत प्रयत्नविशिष्ट स्वसंवेदनको दर्शन माना है। (द्र. सं./टी./४४/१८६/५) ध. १/१,६-१, १६/३२/- ज्ञानोत्पादकप्रयत्नानुविद्धस्वसंवेदो दर्शनं आत्मविशेषोपयोग इत्यर्थः । नात्र ज्ञानोत्पादकप्रयत्नस्य तन्त्रता, प्रयत्नरहितक्षीणावरणान्तरङगोपयोगस्स अदर्शनत्वप्रसंगात् । - ज्ञानका उत्पादन करनेवाले प्रयत्नसे सम्बद्ध स्वसंवेदन, अर्थात् आत्मविषयक उपयोगको दर्शन कहते हैं। इस दर्शनमें ज्ञानके उत्पादक प्रयत्नकी पराधीनता नहीं है। यदि ऐसा न माना जाय तो प्रयत्न रहित क्षीणावरण और अन्तरंग उपयोगवाले केवलीके अदर्शनत्वका प्रसंग आता है। ३. दर्शनोपयोगके अनेकों लक्षण १. विषयविषयी सन्निपात होनेपर 'कुछ है' इतना मात्र ग्रहण । स. सि./१/११/१११/३ विषयविषयिसंनिपाते सति दर्शनं भवति ।विषय और विषयीका सन्निपात होनेपर दर्शन होता है। (रा वा./ १/१५/१/६०/२); (तत्त्वार्थवृत्ति/१/१५)। ध. १/१.१.४/१४६/२ विषयविषयिसंपातात पूर्वावस्था दर्शनमित्यर्थः । घ. ११/४,२,६,२०५/३३३/७ सा बज्झत्थग्गहणुम्मुहावत्था चेव दसणं, कितु बज्झत्यग्गहणुवसंहरणपढमसमयप्पहुडि जान बज्झत्थअग्गहणचरिमसमिओ त्ति दंसणुवजोगो त्ति घेत्तव्यं । -१. विषय और विषयीके योग्य देशमें होनेकी पूर्वावस्थाको दर्शन कहते हैं। बाह्य अर्थ के ग्रहणके उन्मुख होनेरूप जो अवस्था होती है, वही दर्शन हो, ऐसी बात भी नहीं है; किन्तु बाह्यार्थ ग्रहणके उपसंहारके प्रथम समयसे लेकर बाह्यार्थ के अग्रहणके अन्तिम समय तक दर्शनोपयोग होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। (विशेष दे० दर्शन/२/६)। स. भ.त./४७/४ दर्शनस्य किस्विदित्यादिरूपेणाकारग्रहणम् स्वरूपम् । = विशेषण विशेष्यभावसे शून्य 'कुछ है' इत्यादि आकारका ग्रहण दर्शनका स्वरूप है। २. सामान्य मात्रका ग्राही पं. सं./मू./१/१३८ जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कटु आयारं । अवि सेसिऊण अत्थं दसणमिदि भण्णदे समए। = सामान्य विशेषात्मक पदार्थोके आकार विशेषको ग्रहण न करके जो केवल निर्विकल्प रूपसे अंशका या स्वरूपमात्रका सामान्य ग्रहण होता है, उसे परमागममें दर्शन कहते हैं। (ध. १/१.१४/गा. १३/१४६): (ध.७/५,५०६६/गा. १६/१००); ( प. प्र./मू./२/३४); (गो.जी.मू/१८२/८८८); (द्र.सं | मू./४३)। दे, दर्शन/४/३/ ( यह अमुक पदार्थ है यह अमुक पदार्थ है, ऐसी व्यवस्था किये बिना जानना ही आकारका न ग्रहण करना है)। गो.जी./म./४८३/८८६ भावाणं सामग्ण विसेसयाण सरूवमेत्तं जं। वण्णहीणग्गहणं जीवेण य दंसणं होदि ४८३-सामान्य विशेषात्मक जे पदार्थ तिनिका स्वरूपमात्र भेद रहित जैसे है तैसे जीवकरि सहित जो स्वपर सत्ता का प्रकाशना सो दर्शन है। द्र. सं./टी./४३/१८६/१० अयमत्र भावः-यदा कोऽपि किमप्यवलोकयति पश्यति; तदा यावत विकल्प न करोति तावत् सत्तामात्र ग्रहण दर्शन भण्यते । पश्चाच्छुछक्लादिविकल्पे जाते ज्ञानमिति। -तात्पर्य यह है कि-जब कोई भी किसी पदार्थ को देखता है, तब जब तक वह देखनेवाला विकल्प न करे तबतक तो जो सत्तामात्रका ग्रहण है उसको दर्शन कहते हैं। और फिर जब यह शुक्ल है, यह कृष्ण इत्यादि रूपसे विकल्प उत्पन्न होते हैं तब उसको ज्ञान कहते हैं। ४ आलोचन या स्वरूप संवेदन रा. वा./६/७/१२/६०४/११ दर्शनावरणक्षयक्षयोपशमावि तवृत्तिरालोचनं दर्शनम् । = दर्शनावरणके क्षय और क्षयोपशमसे होनेवाला आलोचन दर्शन है। ध. १/१,१.४/१४८/६ आलोकनवृत्तिर्वा दर्शनम् । अस्य गमनिका, आलोकत इत्यालोकनमात्मा, वर्तन वृत्ति , आलोकनस्य वृत्तिरालोकनवृत्तिः स्वसंवेदनं, तद्दर्शन मिति लक्ष्यनिर्देश-आलोकन अर्थात आत्माके व्यापारको दर्शन कहते हैं। इसका अर्थ यह है कि जो आलोकन करता है उसे आलोकन या आत्मा कहते हैं और वर्तन अर्थात वृत्तिको आत्माको वृत्ति कहते हैं। तथा आलोकन अर्थात आत्माकी वृत्ति अर्थात वेदनरूप व्यापारको आलोकन वृत्ति या स्वसंवेदनकहते है। और उसीको दर्शन कहते हैं । यहाँपर दर्शन इस शब्दसे लक्ष्यका निर्देश किया है। ध. ११/४,२,६,२०५/३३३/२ अंतरंगउवजोगो । .....वज्झत्थगहणसंते विसिट्ठसगसरूवसंवयणं दंसणमिदि सिद्ध। = अन्तरंग उपयोगको दर्शनोपयोग कहते हैं । बाह्य अर्थका ग्रहण होनेपर जो विशिष्ट आत्मस्वरूपका वेदन होता है वह दर्शन है। (ध. ६/१,६-१,६/६/३); (ध. १५/६/१). ५ अन्तश्चित्प्रकाश ध. १/१,१.४/१४५/४ अन्तर्बहिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोर्दशनज्ञानव्यपदेशभाजो-अन्तचित्प्रकाशको दर्शन और बहिचित्प्रकाशको ज्ञान माना है। नोट-(इस लक्षण सम्बन्धी विशेष विस्तारके लिए देखो आगे दर्शन/२। २. ज्ञान व दर्शन में अन्तर १. दर्शनके लक्षणमें देखनेका अर्थ ज्ञान नहीं है ध.१/१,१,४/१४५/३ दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम् । नाक्ष्णालोकेन चातिप्रसङ्गयोरनारमधर्मत्वात् । दृश्यते ज्ञायतेऽनेनेति दर्शनमित्युच्यमाने ज्ञान जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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