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चारित्र
१. चारित्र निर्देश
(१) चारित्र सामान्य निर्देश
१. चरणका लक्षण
पं. ध. / उ / ४१२-४१३ चरणं क्रिया ॥४१२ चरणं वाक्कायचेतोभिर्व्यापार शुभकर्मसु । ४१३। - तत्त्वार्थ की प्रतीतिके अनुसार क्रिया करना चरण कहलाता है । अर्थात मन, वचन, कायसे शुभ कर्मोने प्रवृत्ति करना चरण है ।
२. चारित्र सामान्यका लक्षण
स.सि./१/१/६/२ चरति चर्यतेऽनेन चरणमात्रं वा चारित्रम् | जो आचरण करता है, अथवा जिसके द्वारा आचरण किया जाता है। अथवा आचरण करना मात्र चारित्र है । ( रा. वा / १/१/४/२५; १/१ २४/८/३४; १/१/२६/१/१२ ) ( गो.क./सी.प्र./३३/२०/२३)। भ.आ./वि/९/४९/११ चरति याति तेन हितप्राप्ति अहितनिवारण चैति चारित्रम् चर्यते सेव्यते सज्जनेरिति वा चारित्रं सामायि कादिकम् | जिससे हितको प्राप्त करते हैं और अहितका निवारण करते है, उसको चारित्र कहते है । अथवा सज्जन जिसका आचरण करते है, उसको चारित्र कहते हैं, जिसके सामायिकादि भेद हैं। और भी देखो चारित्र ९/११/१ संसारको कारणभूत बाह्य और अन्तरंग क्रियाओंसे निवृत्त होना चारित्र है ।
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३. चारित्र के एक दो आदि अनेक विकल्प
रावा / १/७/१४/४१/- चारित्रनिर्देश: सामान्यादेकस्, द्विधा माह्याअन्तरनिवृत्ति मेदात त्रिवा औपशमिकक्षा कक्षायोपशमिकविकलपाय, चतुर्धा चतुर्यमभेदाय, पञ्चधा सामाविकानिक इत्येवं संख्येयासंख्येयानन्तविक च भगति परिणामभेदात । रा.वा./६/१७/७/६१६/१८ यदवोचाम चारित्रम्, तचारित्रमोहोपशमक्षयक्षयोपशमलणामविशुद्धिसम्धिसामान्यापेक्षा एक प्राणिपीडापरिहारेन्द्रियदर्पनिग्रहशकिभेदाद्विविधम् उत्कृष्टमध्यमजयन्यवि शुद्धप्रकर्षापकर्षंयोगात्तृतीयमवस्थानमनुभवति । विकलज्ञानविषयसरागधीतराग-सकलानीधगोचरंस योगायोगनिकरपाचातुविध्यमध्यश्नुते । पञ्चतयी च वृत्तिमास्कन्दति तद्यथा-त. सू. /६/१८ सामायिकछेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिमचिराय
यवापातमिति चारित्र १९८१ - सामान्यपने एक प्रकार चारित्र है अर्थात चारित्रमोहके उपशम क्षय व क्षयोपशम से होनेवाली आरमविशुद्धिको दृष्टिसे चारित्र एक है। बाह्य व अभ्यन्तर निवृत्ति अथवा व्यवहार व निश्चयकी अपेक्षा दो प्रकारका है। या प्राणसंयम व इन्द्रियसंयमकी अपेक्षा दो प्रकारका है। औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिकके भेद से तीन प्रकारका है; अथवा उत्कृष्ट मध्यम व जघन्य विशुद्धिके भेदसे तीन प्रकारका है। चार प्रकारके यतिकी दृष्टि या चतुर्यमकी अपेक्षा चार प्रकारका है, अथवा छद्मस्थोंका सराग और वीतराग तथा सर्वज्ञोंका सयोग और अयोग इस तरह चार प्रकारका है । सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यातके भेदसे पाँच प्रकारका है। इसी तरह विविध निवृत्ति रूप परिणामोंकी दृष्टि संख्यात असंख्यात और अनन्त विकल्परूप होता है ।
जैनसिद्धान्त प्र. / २२२ चार हैं- स्वरूपाचरण चारित्र. देशचारित्र, सकलचारित्र, यथाख्यात चारित्र ।
४. चारित्र के १३ अंग
प्र.सं./मू./४५ समिदिगुत्तिरूवं महारणयादु जिणणियस्यह चारित्र व्यवहारनयसे पाँच महावत, पाँच समिति और तीन गुप्ति इस प्रकार १३ भेद रूप है ।
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५. चारित्रकी भावनाएँ
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म.पू. २१/१८ ईर्ष्यादिविषयायना मनोवाक्कायशय परीषहसहिष्णुत्वम् इति चारित्रभावना | १८| = चलने आदिके विषयमे यत्न रखना अर्थात् ईर्यादि पाँच समितियोका पालन करना, मन, वचन व कायकी गुप्तियो का पालन करना, तथा परीषहोंको सहन करना । ये चारित्र की भावनाएँ जाननी चाहिए।
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१. चारित्र जीवका स्वभाव है पर संयम नहीं
घ. ७/२.१.३६/१६/९ संजमो गाम जीवसहानो, सदो न सो बन्गेहि विणासिजदि तब्विणासे जीवदम्यस्स वि विणाससंगादी प जोगस्सेव संजमस्स जीवस्स लक्खणत्ताभावादो। प्रश्न-संयम तो जीवका स्वभाव ही है, इसीलिए वह अन्यके द्वारा अर्थात् कर्मोंके द्वारा नष्ट नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसका विनाश होनेपर जीव द्रव्यके भी विनाशका प्रसंग आता है ? उत्तर- नहीं आयेगा, क्योंकि, जिस प्रकार उपयोग जीवका लक्षण माना गया है, उस प्रकार संयम जीवका लक्षण नहीं होता ।
प्र. सा./त.प्र./७ स्वरूपे चरणं चारित्रं स्वसमयप्रवृत्तिरित्यर्थ तदेव वस्तुस्वभावत्वाद्धर्म' | स्वरूपमे रमना सो चारित्र है । स्वसमय मे अर्थात् स्वभाव में प्रवृत्ति करना यह इसका अर्थ है । यह वस्तु (आत्मा) का स्वभाव होनेसे धर्म है ।
पु. सि. उ. / २६ चारित्रं भवति यक्ष समस्तसाद्ययोगपरिहरणात्। सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तद क्योकि समस्त पापयुक्त मन, वचन, कायके योगोंक स्थानसे सम्पूर्ण कपायोंसे रहित अतएव, निर्मल, परपदार्थोंसे विरक्ततारूप चारित्र होता है, इसलिए वह आत्माका स्वरूप है ।
१. चारित्र निर्देश
०. स्वव पर अथवा सम्यक मिथ्याचारित्र निर्देश नि.सा./मू./११ मियादंसणगाण चरितं सम्मन्तणाणचरणं । मिथ्यादर्शन ज्ञान चारित्र सम्यग्दर्शनाचारित्र
पं. का./त.प्र./१५४ द्विविधं हि किल संसारिषु चरितं - स्वचरितं परचरितं च स्वसमयपरसमयावित्यर्थः ॥ ससारियोंका चारित्र वास्तवमें दो प्रकारका है- स्वचारित्र अर्थात् सम्यचारित्र और परचारित्र अर्थात् मिथ्याचारित्र । स्वसमय और परसमय ऐसा अर्थ है । (विशेष समय ) ( यो सा./अ./८/१६)
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८. स्वपर चारित्रके लक्षण
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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पं.का./मू./१५६-१५१ जो पर
अहं रागेण कृपद जदि भाव । सो सगचरितभट्ठो परचरियचरो हर्वाद जीवो ११४६। आसवदि जेण पुण्णं पाव वा अप्पणोध भावेण । सो तेण परचरितो हवदि ति जिणा परूवंति । १५७॥ जो सव्वस गमुक्को णण्णमणो अप्पणं सहावेग जादि पस्सदि नियई सो सगचरियं चरदि जीवो ॥१६८॥ चरि चरदि सगँ सो जो परदव्याभावदिप्पा दंसणणागबियपं अविमयं चरदि अप्पादो । १२६॥ जो राग परद्रव्यमें शुभ या अशुभ भाव करता है वह जीव स्वचारित्र भ्रष्ट ऐसा परचारित्रका आचरणकरनेवाला है ।१५६। जिस भावसे आत्माको पुण्य अथवा पाप आसनित होते हैं उस भाव द्वारा वह (जीव ) परचारित्र है | १५०० जो सर्व संयुक्त और अन्य मनवाला मर्दता हुआ आमाको ज्ञानदर्शनरूप) स्वभाव द्वारा नियत रूपसे जानता देखता है वह जीव स्वचारित्र आचरता है । १५८१ जो परद्रव्यात्मक भावोसे रहित स्वरूप वाला वर्तता हुआ, दर्शन ज्ञानरूप भेदको आत्मासे अभेदरूप आचरता है यह चारित्रको आचरता है । १५६४ (वि./१/२२) .का./९४ तत्र स्वभावावस्थितास्तित्वस्वरूपं स्वचरि परभावावस्थितारितत्स्वरूपं परचरितम् । तहाँ स्वभाव में अब
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