________________
चेतना
२९९
३. ज्ञातृत्व कर्तृत्व विचार
आरूढ होता हुआ, मात्र जानता ही है, किंचित मात्र भी कर्ता नहीं होता। स.सा./आ./७२/क. ४७ परपरिणतिमुज्झत खण्डयद्भदवादानिदमुदितम
खण्डं ज्ञानमुच्चण्डमुच्चे'। ननु कथमवकाशः कतृ कर्मप्रवृत्तेरिह भवति कथं वा पौद्गल. कर्मबन्ध.। = परपरणतिको छोड़ता हुआ, भेदके कथनों को तोड़ता हुआ, यह अत्यन्त अखण्ड और प्रचण्ड ज्ञान प्रत्यक्ष उदयको प्राप्त हुआ है। अहो । ऐसे ज्ञानमे कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिका अवकाश कैसे हो सकता है । तथा पौद्गलिक कर्मबन्ध भी कैसे हो सकता है।
६. कर्मधारामें ही कर्तापना है ज्ञानधारामें नहीं स.सा./आ./३४४/क.२०५ माकर्तारममी स्पृशन्तु पुरुष सोख्या इवाप्याहता', कर्तारं कलयन्तु तं किल सदा भेदावबोधादधः । ऊ तूद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेनं स्वयं, पश्यन्तु च्युतकतृ भावमचलं ज्ञातारमेकं परम् । = यह जैनमतानुयायी सांख्यमतियोंकी भाँति आत्माको ( सर्वथा ) अकर्ता न मानो। भेदज्ञान होनेसे पूर्व उसे निरन्तर कर्ता मानो, और भेदज्ञान होनेके बाद, उद्धत ज्ञानधाम (ज्ञानप्रकाश ) में निश्चित इस स्वयं प्रत्यक्ष आत्माको कतृत्व रहित, अचल, एक परम ज्ञाता ही देखो।
७. जब तक बुद्धि है, तब तक भज्ञानी है स.सा./मू./२४७ जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहि सत्तेहिं।
सो मूढो अण्णाणी णाणी एतो दु विवरीदो। -जो यह मानता है कि मैं परजीवोको मारता हूँ और परजीव मुझे मारते हैं, वह मूढ है,
अज्ञानी है और इससे विपरीत ज्ञानी है। स. सा./आ./७४/क ४८ अज्ञानोत्थितकतृ कर्मकलनात् क्लेशान्निवृत्तः स्वयं ज्ञानीभूत इतश्चकास्ति जगत' साक्षी पुराणः पुमान् ॥४॥ - अज्ञानसे उत्पन्न हुई कर्ताकमकी प्रवृत्तिके अभ्याससे उत्पन्न बलेशोंसे निवृत्त हुआ. स्वयं ज्ञानस्वरूप होता हुआ जगतका साक्षी पुराण पुरुष अब यहाँसे प्रकाशमान होता है। स.सा./आ./२५६/क.१६४ अज्ञानमेतदधिगम्य परात्परस्य, पश्यन्ति ये
मरणजीवितदुःखसौख्यम् । कर्माण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते, मिथ्यादृशो 'नियतमात्महनो भवन्ति। -इस अज्ञानको प्राप्त करके जो पुरुष परसे परके मरण, जीवन, दुःख, सुखको देखते हैं, वे पुरुषजो कि इस प्रकार अहंकाररससे कर्मोको करनेके इच्छुक है, वे नियमसे मिथ्यादृष्टि हैं, अपने आत्माका घात करनेवाले हैं। स.सा./आ./३२१ ये त्वात्मानं कर्तारमेव पश्यन्ति ते लोकोत्तरिका अपि न लौकिकतामतिवर्तन्ते। -जो आत्माको कर्ता ही देखते हैं, वे लोकोत्तर हों तो भी लौकिकताको अतिक्रमण नहीं करते।
४. ज्ञानी जीव कर्म कर्ता हुआ मी अकर्ता ही है स.सा./आ./२२७/क.१५३ त्यक्तं येन फलं स कर्म कुरुते नेति प्रतीमो वयं, कित्वस्यापि कुतोऽपि किचिदपि तत्कर्मावशेनापतेत् । तस्मिन्नापतिते त्वकम्पपरमज्ञानस्वभावे स्थितो, ज्ञानी कि कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति जानाति कः ॥१५३। जिसने कर्मका फल छोड दिया है, वह कर्म करता है ऐसी प्रतीति तो हम नहीं कर सकते। किन्तु वहाँ इतना विशेष है कि-उसे ( ज्ञानीको) भी किसी कारणसे कोई ऐसा कर्म अवशतासे आ पड़ता है। उसके आ पड़नेपर भी जो अकम्प परमज्ञानमे स्थित है, ऐसा ज्ञानी कर्म करता है या नहीं यह कौन जानता है। यो.सा /अ./E/५६ य' कर्म मन्यते कर्माऽकर्म वाऽकर्म सर्वथा। स सर्वकर्मणां कर्ता निराकर्ता च जायते ॥५६॥ =जो बुद्धिमान पुरुष सर्वथा कर्म को कर्म और अकर्मको अकर्म मानता है वह समस्त कर्मोंका कर्ता
भी अकर्ता है। सा.ध./१/१३ शूरेवादिसदृक्षायवशमो यो विश्वदृश्वाज्ञया, हेयं वैषयिक
सुखं निजमुपादेयं त्विति श्रद्दधत् । चौरो मारयितुं धृतस्तलवरेणेवात्मनिन्दादिमान, शर्माक्षं भजते रुजत्यपि पर नोत्तप्यते सोऽप्यधैः।। - जो सर्वज्ञदेवकी आज्ञासे वैषयिक सुखोको हेय और निजात्म तत्त्वको उपादेय रूप श्रद्धान करता है। कोतवाल के द्वारा पकड़े गये चोरकी भॉति सदा अपनी निन्दा करता है। भूरेखा सदृश अप्रत्याख्यान कर्मके उदयसे यद्यपि रागादि करता है तो भी मोक्षको भजनेवाला वह कर्मोसे नहीं लिपता। पं.ध./उ./२६५ यथा कश्चित्परायत्तः कुर्वाणोऽनुचिता क्रियाम् । कर्ता तस्या. 'क्रियायाश्च न स्यादस्ताभिलाषवान् । =जैसे कि अपनी इच्छाके बिना कोई पराधीन पुरुष अनुचित क्रियाको करता हुआ भी। वास्तबमें उस क्रियाका कर्ता नहीं माना जाता, (उसी प्रकार सम्यग् - दृष्टि जीव कर्मोके आधीन कर्म करता हुआ भी अकर्ता ही है।) और भी दे० राग/६ (विषय सेवता हुआ भी नहीं सेवता )। ५. वास्तवमें जो करता है वह ज्ञाता नहीं और जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं स.सा./आ./१६-१७ यः करोति स करोति केवलं, यस्तु वेत्ति स तु वेत्ति केवलम् । य' करोति न हि वेत्ति स क्वचित, यस्तु वेत्ति न करोति स क्वचित् ।।६। ज्ञप्तिः करोतौ न हि भासतेऽन्तः, ज्ञप्तौ करोतिश्च न भासतेऽन्तः । ज्ञप्तिः करोतिश्च ततो विभिन्ने, ज्ञाता न कर्तेति ततः स्थितं च ।। =जो करता है सो मात्र करता ही है। और जो जानता है सो जानता ही है। जो करता है वह कभी जानता नहीं
और जो जानता है वह कभी करता नहीं ६६ करनेरूप क्रियाके भीतर जानने रूप क्रिया भासित नहीं होती और जानने रूप क्रियाके भीतर करनेरूप क्रिया भासित नहीं होती। इसलिए ज्ञप्ति क्रिया और करोति क्रिया दोनों भिन्न है। इससे यह सिद्ध हुआ कि जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं है ।।
८. वास्तव में ज्ञप्तिक्रियायुक्त ही ज्ञानी है स.सा./आ/१६१-१६३/क१११ मग्नाः कर्मनयावलम्बनपरा ज्ञान न
जानन्ति यन्मग्ना ज्ञाननयेषिणोऽपि यदतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः। विश्वस्योपरिते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं, ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमादस्य च ॥११॥ =कर्मनयके आलम्बनमें तत्पर पुरुष डूबे हुए हैं, क्योंकि वे ज्ञानको नहीं जानते। ज्ञाननयके इच्छक पुरुष भी डूबे हुए हैं, क्योंकि वे स्वच्छन्दतासे अत्यन्त मन्द उद्यमी हैं। वे जीव विश्वके ऊपर तैरते हैं, जो कि स्वयं निरन्तर ज्ञानरूप होते हुए (ज्ञानरूप परिणमते हुए ) कर्म नहीं करते
और कभी प्रमादके वश भी नहीं होते। स. सा./आ /परि./क. २६७ स्याद्वादकौशलसुनिश्चितसंयमाभ्यो, यो
भावयत्यहरहः स्वमिहोपयुक्त' । ज्ञानक्रियानयपरस्परतीवमैत्रीपात्रीकृतः श्रयति भूमिमिमा स एकः। =जो पुरुष स्याद्वादमें प्रवीणता तथा सुनिश्चल संयम-इन दोनोंके द्वारा अपने में उपयुक्त रहता हुआ प्रतिदिन अपनेको भाता है, वही एक ज्ञाननय और क्रियानयकी परस्पर तीच मैत्रीका पात्ररूप होता हुआ, इस भूमिकाका आश्रय करता है।
१. कर्ताबुद्धि छोड़नेका उपाय स.सा./आ./७१ ज्ञानस्य यद्भवनं तत्र क्रोधादेरपि भवनं यतो
यथा ज्ञानभवने, ज्ञानं भवद्विभाव्यते न तथा क्रोधादिरपि, यत्तु क्रोधादेर्भवनं तन्न ज्ञानस्यापि भवनं यतो यथा क्रोधादिभवने क्रोधा
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org