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छेदोपस्थापना
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जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति
५. सामायिक व छेदोपस्थापनाका स्वामित्व सामान्य ष. ख १/१,१/सूत्र १२५/३७४ सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धि-संजदा पमत्तसंजद-प्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति । सामायिक और छेदोपस्थापना रूप शुद्धिको प्राप्त संयत जीव प्रमत्तसयतसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक होते हैं । (गो. जी./म्./४६७/८७८, ६८६/११२८ ) ( द्र. सं/
टी./३/१४८/8) म. पु/७४/३१४ चतुर्थज्ञाननेत्रस्य निसर्गबलशालिनः। तस्याद्यमेव
चारित्रं द्वितीयं तु प्रमादिनाम् ।१४। मन'पर्ययज्ञानरूपी नेत्रको धारण करनेवाले और बलसे सुशोभित उन भगवान्के पहिला सामायिक चारित्र ही था, क्योंकि दूसरा छेदोपस्थापना चारित्र प्रमादी
जोवोके ही होता है । ( म. पु/२०/१७०-१७२ )। (देखो अगला शीर्षक) ( उत्तम संहननधारी जिनकल्पी मुनियोको सामायिक चारित्र होता है तथाहीनसंहनन वाले स्थविरकल्पीमुनियोंको छेदोपस्थापना)।
८. अन्य सम्बन्धित विषय १. दोनोंमे क्षयोपशम ब उपशम भावके अस्तित्व सम्बन्धी शंका ।
-(दे० संयत/२)। २. इस संयममें आयके अनुसार ही व्यय होता है।
__ -(दे० मार्गणा)। ३. छेदोपरथापनामें गुणस्थान मार्गणास्थान आदिके अस्तित्व सम्बन्धी २० प्ररूपणाएँ।
-(दे० सत) । ४. सत् , संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ।
-- दे वह वह नाम) । ५. इस संयममे कर्मोके बन्ध उदय सत्त्व विषयक प्ररूपणाएँ।
-(दे० वह वह नाम)।
६. कालकी अपेक्षा सामायिक व छेदोपस्थापनाका स्वामित्व
जंघाचारण-दे० ऋद्धि/४ जंतुम.पु/२४/१०३.१०५ जीन प्राणी च जन्तुश्च क्षेत्रज्ञ पुरुषस्तथा । पुमानात्मान्तरामा चज्ञो ज्ञानीत्यस्य पर्ययाः ११०३। जन्तुश्च जन्मभाक् ।१०।-जीव, प्राणी, जन्तु, क्षेत्रज्ञ, पुरुष, पुमार, आत्मा, अन्तरारमा, ज्ञ और ज्ञानी ये सब जीवके पर्यायवाचक नाम है ।१०३। क्योकि यह बार बार अनेक जन्म धारण करता है, इसलिए इसे जन्तु कहते हैं ॥१०॥ स सा./२/१० भव्याभव्यविभेदेन द्विविधाः सन्ति जन्तवः । भव्य और
अभव्यके भेदसे जन्तु या जीव दो प्रकारके है। गो.जी./जी.प्र./३६५/७७६/११ चतुर्गतिसंसारे नानायोनिषु जायत इति
जन्तुःसंसारी इत्यर्थ: । चतुर्गतिरूप संसारकी नाना योनियोमें जन्म धारण करता है, इसलिए संसारी जीवको जन्तु कहा जाता है।
ध.१/१,१,२/१२०/२)। जंबदीव पण्णत्ति-१. आ. पद्मनन्दि नं.४ (ई०६७७-१०४३) द्वारा
रचित, लोकस्वरूप प्रतिपादक, २४२६ प्राकृत गाथाबद्ध, १३ अधिकारो युक्त ग्रन्थ । (जै./२/७५, ७६) ।
मू.आ./५३३-५३५ बावीसं तित्थयरा सामाइयसंजमं उव दिसति । छेदुवठ्ठावणिय पुण भयवं उसहो य वीरो य ।५३३। आदीए दुधिसोधण णिहणे तह सुट्छु दुरणुपाले य। पुरिमा य पच्छिमा वि हु कप्पाकप्पण जाणंति ।५३५॥ =अजितनाथको आदि लेकर भगवान् पार्श्वनाथ पर्यंत बावीस तीर्थंकर सामायिक संयमका उपदेश करते हैं
और भगवान् ऋषभदेव तथा महावीर स्वामी छेदोपस्थापना संययका उपदेश करते है ।५३३। आदि तीर्थ में शिष्य सरलस्वभावी होनेसे दुःख कर शुद्ध किये जा सकते हैं। इसी तरह अन्तके तीर्थ में शिष्य कुटिल स्वभावी होनेसे दुखकर पालन कर सकते हैं। जिस कारण पूर्व कालके शिष्य और पिछले कालके शिष्य प्रगटरीतिसे योग्य अयोग्य नही जानते इसी कारण अन्त तीर्थ मे छेदोपस्थापनाका उपदेश है ।५३५। ( अन.घ/४/८/६१७ ) ( और भी दे प्रतिक्रमण/२) गो.क /जो.प्र./५४७/७१४/५ तत एव श्रीवर्द्ध मानस्वामिना प्रोक्तनोत्तमसंहननजिनकल्पाचरणपरिणतेषु तदेकधा चारित्रं । पञ्चमकालस्थविरकल्पाल्पसंहननसंयमिषु त्रयोदशधोक्तं =ताहीत श्रीवर्द्धमान स्वामी करि पूर्वले उत्तम सहननके धारी जिनकल्प आचरणरूप परिणए मुनि तिनके सो सामायिकरूप एक प्रकार ही चारित्र कहा है। बहुरि पंचमकाल विषै स्थविरकलपी हीनसंहनन के धारी ति निको
सो चारित्र तेरह प्रकार कह्या है। दे० निर्यापक/१ में भ० आ././६७१ कालानुसार चारित्रमें हीनाधिकता
आती रहती है। ७. जघन्य व उत्कृष्ट लब्धिकी अपेक्षा सामायिक छेदोपस्थापनाका स्वामित्व ध.७/२,११,१६८/०६४/३ एवं सव्वजण्णं सामाइयच्छेदोवछावणसुद्धिसंजमस्स लट्ठिाणं कस्स होदि मिच्छत्तं पडिबज्जमाणसंजदस्स चरिम
समए। घ.७/२,११,१७१/५६६/८ एसा कस्स होदि । चरिमसमयअणियट्टिस्स ।। प्रश्न--सामायिक-छेदोपस्थापना-शुद्धिसयमका यह सर्व जघन्य लब्धिस्थान किसके होता है ! उत्तर-यह स्थान मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवालेसंयतके अन्तिम समयमें होता है। प्रश्न-(सामायिक-छेदोपस्थापना शुद्धिसयमकी) यह ( उत्कृष्ट ) लब्धि किसके होती है । उत्तर-अन्तिम समयवर्ती अनिवृत्तिकरणके होती है।
दोव संघायणो-श्वेताम्बराचार्य श्रीहरिभद्रसूरि (ई०४८०५२८) कृत, लोकस्वरूप प्रतिपादक, प्राकृत गाथाबद्ध एक ग्रन्थ ।
जंबूद्वीप-१. यह मध्यलोकका प्रथम द्वीप है (देखो लोक/३/१)1
२. जम्बू द्वीप नामकी सार्थकता स.सि./३/६/२१२/८ कोऽसौ । जम्बूद्वीप। कथं जम्बूद्वीप' । जम्बूवृक्षोपलक्षितत्वात् । उत्तरकुरूणां मध्ये जवृक्षोऽनादिनिधनः पृथिवीपरिणामोऽकृत्रिमः सपरिवारस्तदुपलक्षितोऽयं द्वीपः । प्रश्न-इसे जम्बूद्वीप क्यो कहते है। उत्तर-उत्तरकुरुमे अनादिनिधन पृथिवीमयी अकृत्रिम और परिवार वृक्षोंसे युक्त जम्बूवृक्ष है, जिसके कारण यह जम्बूद्वीप कहलाता है। (रावा./३/७/१/१६६/१४)।
जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति-१. अंग श्रुतज्ञानका एक भेद-दे० श्रुतज्ञान/III
२. आ. अमितगति (ई०६६३-१०१६) द्वारा रचित, लोकस्वरूप
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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