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तीर्थकर
३. ती यंकर प्रकृति बन्धमें गति....
१० उत्कृष्ट आयुवाले जीवोंमें तीर्थकर सन्तकर्मिक मिथ्यादृष्टि नहीं जाते ध. ८/३,२५८/३३२/४ ण चउक्कस्साउएस तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणमुववादो अस्थि, तहोबएसाभावादो। - उत्कृष्ट आयुवाले जीवों में तीर्थ कर सन्तकर्मिक मिथ्यावृष्टियों का उत्पाद है नहीं, क्योंकि बैसा उपदेश नहीं है।
५. इसके बन्धके स्वामी ध.८/३,३८/७४/७ तिगदि असंजदसम्मादिट्ठी सामी, 'तिरिक्रखगईए तित्थयरस्स बंधाभावादो। तीन गतियोके असंयत सम्यग्दृष्टि जीव इसके बन्धके स्वामी हैं, क्योकि तिर्यग्गतिके साथ तीर्थकरके बन्धका अभाव है। ६. मनुष्य व तिर्यगायु बन्धके साथ इसकी प्रतिष्ठापना
का विरोध है गो. क./जी प्र./३६६/५२४/११ बद्धतिर्यग्मनुष्यायुष्कयोस्तीर्थसत्त्वाभावाद ।...देवनारकासंयतेऽपि तदबंध 'संभवात् । - मनुष्यायु तियचायुका पहले बन्ध भया होइ ताकै तीर्थकरका बन्ध न होइ।...देव- नारकी विषै तीर्थ करका बन्ध सम्भवै है। ७. समी सम्यक्त्वोंमें तथा ४-८ गुणस्थानों में बन्धनेका नियम गो, क./म./१३/७८ पढमुवसमिये सम्मे सेसतिये अविरदादिचत्तारि।
तित्थयरबंधपारंभया णरा केवलिदुर्ग ते ।३।। गो.क./जी. प्र./१२/७७/१२ तीर्थबन्ध असंयताद्यपूर्वकरणषष्ठभागान्तसम्य
दृष्टिध्वेष । प्रथमोपशम सम्यक्त्व विषै वा अवशेष द्वितीयोपशम सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक, क्षायिक सम्यक्त्व विषै असंयतत लगाइ अप्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त मनुष्य हो तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धको प्रारम्भ करे है । तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध असंयमते लगाई अपूर्वकरणका छटा । भाग पर्यन्त सम्यग्दृष्टि विष ही हो है।
..तीर्थकर बंधके पश्चात् सम्यक्त्व च्युतिका अभाव गो. क |जी, प्र./११०/७४३/३ प्रारब्धतीर्थबन्धस्य बद्धदेवायुष्कवदबद्धायुष्कस्यापि सम्यक्त्वप्रच्युत्याभावात् । देवायुका बन्ध सहित तीर्थकर बन्धवाल के जैसे सभ्यबस्वतें भ्रष्टता न होइ तैसे अबद्धायु देवके
भी न होइ। गो. क./जी.प्र./०४५/६ प्रारब्धतीर्थबन्धस्यान्यत्र बद्धनरकायुष्कारसम्य
क्वापच्युतिर्नेति तीर्थबन्धस्य नैरन्तर्यात् । - तीर्थकर बन्धका प्रारम्भ भये पीछे पूर्वे नरक आयु बन्ध बिना सम्यक्त्व ते भ्रष्टता न होइ थर तीमकरका बन्ध निरन्तर है। ९. बनस्कायुष्क मरण कालमें सम्यक्त्वसे च्युत होता
११. नरकमें भी तीसरे नरकके मध्यम पटलसे आगे
नहीं जाते घ.८/३, २५८/३३२/३ तत्थ हेट्ठिमइंदए णीललेस्सासहिए तित्थयर
संतकम्मिय मिच्छाइट्ठीणमुबबादाभावादो। कुदो तत्थ तिस्से पुढवीए उक्कस्साउदसणादो (तीसरी पृथिवी में) नील लेश्या युक्त अधस्तन इन्द्रकमें तीर्थंकर प्रकृतिके सत्त्ववाले मिथ्यादृष्टियोंकी उत्पत्तिका अभाव है। इसका कारण यह है कि वहाँ उस पृथिवीकी उत्कृष्ट आयु देखी जाती है। (ध.८/३, ५४/१०५/६); (गो. क./जी. प्र./३८१/५४६/७)। १२. वहाँ अन्तिम समय उपसर्ग दूर हो जाता है त्रि. सा./१६५ तित्थयर संतकम्मुवसग्गं णिरए णिवारयति सुरा । छम्मासाउगसेसे सग्गे अमलाणमालको ।१६। तीर्थंकर प्रकृत्तिके सत्त्ववाले जीवके नरकायु वि छह महीना अवशेष रहे देव नरक विषै ताका उपसर्ग निवारण करै है। बहुरि स्वर्ग विर्षे छह महीना आयु अवशेष रहे मालाका मलिन होना चिन्ह न हो है। गो. क./जी. प्र./३८१/५४६/७ यो बदनारकायुस्तीर्थसत्त्वः तस्य षण्मासावशेषे बदमनुष्यायुष्कस्य नारकोपसर्गनिवारण गर्भावतरणकल्याणादयश्च भवन्ति । = जिस जीवके नरकायुका बन्ध तथा तीर्थ करका सत्त्व होइ, तिसके छह महीना आयुका अवशेष रहे मनुष्यायुका बन्ध होइ अर नारक उपसर्गका निवारण अर गर्भ कल्याणादिक होई। १३. तीर्थकर संतकर्मिकको क्षायिक सम्यक्त्वकी प्राप्ति स्वतः हो जाती है ध.६/१-१-८, १२/२४७/१७ विशेषार्थ-पूर्वोक्त व्याख्यानका अभिप्राय यह है कि सामान्यतः तो जीव दुषम-सुषम कालमें तीर्थंकर, केवली या चतुर्दशपूर्बीके पादमूल में ही दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ करते हैं, किन्तु जो उसी भवमे तीथ कर या जिन होनेवाले हैं वे तीर्थ करादिकी अनुपस्थितिमें तथा सुषमदुषम कालमे भी दर्शनमोहका क्षपण करते हैं। उदाहरणार्थ- कृष्णादि व वर्धनकुमार । १४. नरक व देवगतिसे आये जीव ही तीर्थकर होते हैं प. खं.६/१, ६-६/सू. २२०, २२६ मणुसेस उबवण्णलया मणुरसा.. केई तित्थयरत्तमुप्पाएं ति...॥२२०॥ मणुसेसु उबवण्णल्लया मणुसा.. केई तिस्थयरत्तमुप्पाएंति ॥२२६॥ मणुसेसु उववण्णालया मणुसा. णो तित्थयरमुप्पाएंति । - ऊपरकी तीन पृथिवियोंसे निकलकर मनुष्योमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्य.. कोई तीर्थ करत्व उत्पन्न करते हैं ॥२२०॥ देवगतिसे निकल कर मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले मनुष्य.. कोई तीर्थकरत्व उत्पन्न करते हैं ॥२२६॥ भवनवासी आदि देव-देवियाँ मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले मनुष्य होकर...तीर्थंकररव उत्पन्न नहीं करते हैं ॥२३३॥ [ इसी प्रकार तिर्यञ्च व मनुष्य तथा चौथी आदि पृथिवियोंसे मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले मनुष्य तीर्थकरत्व उत्पन्न नहीं करते हैं। रा. पा./३/६/७/१६४/२ उपरि तिसृभ्य उद्वतिता. मनुष्येषूत्पन्ना... केचित्तीर्थकरत्वमुत्पादयन्ति। -तीसरी पृथ्वीसे निकलकर मनुष्योंमें उत्पन्न होनेवाले कोई तीर्थकरत्वको उत्पन्न करते हैं ।
ध.६/३,५४/१०/ तित्थयर बंधमाणसम्माइट्ठीणं मिच्छत्तं गंतुणं तित्थयरसंतकमेण सह विदिय-तदियपुढवीम व उप्पज्जमाणाणमभावादो। तीर्थकर प्रकृतिको बाँधनेवाले सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यास्वको प्राप्त होकर तीर्थ कर प्रकृतिकी सत्ताके साथ द्वितीय व तृतीय पृथिवियोंमें उत्पन्न होते हैं वैसे इन पृथिवियोंमें उत्पन्न नहीं होते। गो. क./जी. प्र./३३६/४८७/३ मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने कश्चिदाहारकद्वयमुष्य नरकायुर्ववाऽसंयतो भूत्वा तीर्थं बद्भवा द्वितीयतृतीयपृथ्वीगमनकाले पुनर्मिथ्याष्टिर्भवति । -मिथ्यात्व गुणस्थानमें आय आहारकद्विकका उद्वेलन किया, पीछे नरकायुका बन्ध किया, तहाँ पीछे असंयत्त गुणस्थानवर्ती होइ तीर्थ कर प्रकृतिका बन्ध कीया पीछ दूसरी वा तीसरी नरक पृथ्वीको जानेका कालविर्ष मिथ्या
दृष्टी भया। गी.क./जी.प्र./५४६/७२५/१८ शामेघयोः सतीर्था पर्याप्तत्वे नियमन मिथ्यात्वं त्यक्त्वा सम्यग्दृष्टयो भूत्वा । वंशा मेधा विर्षे तीर्थ कर सत्त्य सहित जीय सो पर्याप्ति पूर्ण भए नियमकरि मिथ्यात्वको छोडि सम्यग्दृष्टि होइ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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