________________
त्रिवलित
त्रिवलित कर
स्वयं
त्रिशिरा - १. कुल पर्वतस्य वज्रकूटका -३० लोक १२/१२/२.रुप कुमारी देवी । दे० लोक /२/१३ । त्रिषशिष्टलाकापुरुष चरित्र - १ चामुण्डराय द्वारा रचित
संस्कृत भाषाबद्ध रचना है। समय- ( ई० श०१०-११ २, श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र द्वारा रचित समय ई १०८८-११७३ | श्रींद्रिय
जीवविषयक ( नामकर्म )
दे०/४२ न्द्रिय
जाति नामकर्म । - दे० जाति
त्रुटरेणु क्षेत्रका एक प्रमाण त्रुटित- - कालका एक प्रमाण
---
अतिचार दे० र १
।
स्वामी एक नागेन्द्रदेव । पर रहनेवाली
दे० गणित / 1 /९/
- दे० गणित / I/१/४ |
-
त्रुटिताङ्ग -
कालका एक प्रमाण - दे० गणित / 1 /१/४ | त्रेपन क्रियाव्रत व्रत विधान से / ४६ ९ आठमूलगुणकी आठ अष्टमी, २. पांच अणुवतको पाँच पंचमी, ३ तोन गुणवतको तीन; तीज ४. चार शिक्षावतकी चार चौथ, ५ बारह तपकी १२ द्वादशी; ६. समता भावको १ पडिमा ७ ग्यारह प्रतिमाकी ११ एकादशी; चार दानको चार चौथ, ६ जल गालनकी एक पडिमा १० रात्रि भोजन त्यागकी एक पडिमा ११ तीन रत्नत्रयकी तीन तीज । इस प्रकार त्रेपन तिथियोके ५१ उपवास । जाप - नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप ।
त्रैकाल्य योगोसंदेश
भा० २-५१
दे०
4
अनुसार इतिहास ) आप गोलाचार्य के शिष्य तथा अभयनन्द के गुरु मा समय वि० १२०-६०० १० ८६-०३); ( ष रखें / २ / १ / ४ H L Jam ); ( पं. वि / / २८ AN up ) -- दे० इतिहास /७/२ त्रैराशिक- - Rule of three (ध./५/प्र. २७) विशेष - दे० गणित /
II / ४ ।
Jain Education International
ज
शिकवाद सूत्र / २३६ गोशालप्रवर्तिना पाखण्डिनस्त्रैराशिका उच्यन्ते । कस्मादिति चेदुच्यते, इह ते सर्व वस्तु त्रयात्मकमिच्छन्ति । तद्यथा जीवोऽजीवो जीवाजीवाश्च, लोका' अलोका लोकालोकाश्च, सदसत्सदसत् । नयचिन्तायामपि त्रिविधं नयमिच्छन्ति तद्यथा द्रम्यास्तिकं पर्यायास्तिकभवास्तिकं च ततस्त्रिभी राशिभिश्चरन्तीति त्रैराशिका - गोशालके द्वारा प्रवर्तित पाखण्डी आवक और त्रैराशिक कहलाते है। ऐसा क्यों कहलाते हैं क्योंकि वे सर्व ही वस्तुओंको व्यात्मक मानते हैं। इस प्रकार है जैसे कि-जीव जी व जीवाजीव लोक अलोक व लोकालोकः सत असत व सदसत् । नयकी विचारणामें तीन प्रकारकी नय मानते है । वह इस प्रकार - द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक व उभयार्थिक । इस प्रकार तीन राशियों द्वारा चरण करते हैं, इसलिए त्रैराशिक कहलाते हैं। घ./१/१.१, २/गा. ७६/११२ अट्ठासी अहियारेसु चउण्हमहियाराणमरिच पिसो गढमा विदिओ तेरासिया मो ॥७६॥ दृष्टिवाद अंगके ) सूत्र नामक अर्थाधिके अठासी अठधिकारोंका नामनिर्देश मिलता है। उसमें दूसरा वैराशिक वादियोंका जानना ।
त्रैलिंग - वर्तमान तैलंगदेश जो हैदराबाद दक्षिणके अन्तर्गत है । ( म. पु. / प्र / ५० पं. पन्नालाल )
त्रैविध्यदेव- - १. नन्दिसंघकै देशीयगणकी गुर्वावलीके अनुसार (दे० इतिहास / ०/ २) पांच आचार्योंकी उपाधि वैविध्यदेव थी।
४०१
दंशमशक परीषह
१. मेघचन्द्र प्र ई ६३० - १५० २ मेवचन्द्र द्वि. ई. १०२०-११५५३ ३. माघनन्दि ई. १९३३ - ११६३; ४. अकलक द्वि, ई ११५८-८२ ५. रामचन्द्र ई. ११५८-११८२। इनके अतिरिक्त भी दो अन्य आचार्य इस नाम से प्रसिद्ध थे - ६ माधव चन्द्र विश. ११ का पूर्व ७ पद्मनन्दिन ०७ (वि. १३७३ में स्वर्गवास) के गुरु वि १३००-१३५० ई. १२४१-१२६) दे, इतिहास / ७/५)।
त्वक् - दे० स्पर्श / १ ।
त्वचा १ वचा व नोत्वचाका लक्षण
ध./१३/५, ३, २०/१६/- तयो णाम रूक्खाणं गच्छाणं कंधाणं वा वक्कलं । तरि पदकलाओ को सुरणतंहलद्दादीना क पपदकलाओ गोतयं णाम । = वृक्ष, गच्छ या स्कन्धोकी छालको त्वचा कहते हैं और उसके ऊपर जो परडीका समूह होता है उसे नोत्वचा कहते है । अथवा सूरण, अदरख, प्याज और हलदी आदिकी जो बाह्य पपड़ी समूह है उसे नोखचा कहते है ।
* श्रदारिक शरोरमें स्वचाओंका प्रमाण दे० बहारिक २०
[ थ ]
थिउक्क संक्रमण - दे० संक्रमण / १० ।
[]
दंड-१, चक्रवर्तीके चौदह रत्नोमेसे एक- दे० शलाका पुरुष / २:
२. क्षेत्रका प्रमाण विशेष - अपरनाम धनुष, मूसल, युग, नाली - दे० गणित //१/३।
दंड - १. भेद व लक्षण
चासा / ११ / ५ दण्डस्त्रिविधः मनोवाक्कायभेदेन । तत्र रागद्वेषमोहबिकपामानसो दण्डस्त्रविध अनृतोपयात शून्यपरुषाभिशंसनपरि पसिनभेदाद्वाग्दण्ड, सप्तविध प्राणिवयचौर्य मैथुनपरिवहारम्भताडनोग्रवेशविकल्पात्कायदण्डोऽपि च सप्तविध' । 1= = मन, वचन, काय भेट से दण्ड तीन प्रकारका है, और उसमे भी राग, द्वेष, मोहके भेद से मानसिक दण्डभीतीनप्रकारका है ।.. झूठ बोलना, वचन से कहकर किसीके ज्ञानका घात करना चुगली करना, कठोर वचन कहना, अपनी प्रशंसा करना, संताप उत्पन्न करनेवाला वचन कहना और हिसाके वचन कहना, यह सात तरहका वचन दण्ड कहलाता है । प्राणियों का वध करना, चोरी करना, मैथुन करना, परिग्रह रखना, आरम्भ करना, ताडन करना, और उग्रवेष ( भयानक ) धारण करना इस तरह कायदण्ड भी सात प्रकारका कहलाता है।
दंडपति - त्रिसा/भाषा./६०३ दण्डपति कहिये समस्त सेनाका
नायक ।
दंडभूत सहस्रकार है- दे०विद्या । दंडसमुद्धात
केली दंडाध्यक्षगण - विद्याधर विद्या है - दे० विद्या । दंतकर्म - दे० निक्षेप १४
दंशमशक परीवह-१ का लक्षण
·
स.सि./६/६/४२१/१० दंशमशका हणमुपलक्षणम् ।... तेन ईशमशकमक्षिका पशुपतिका मीटपिपीलिकानृश्चिकादयो
गृह्यन्ते ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org