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तेजस
त्याग
३. शुम तेजप्त समुद्रातका लक्षण ध./१४/५.६,२४०/३२८/३ संजवस्स उग्गचरितस्स दयापुरंगम-अणुकंपावूरिदस्स इच्छाए दक्विणांसादो हंससखवणं हिस्सरिदूण मारीदिरमरवाहिवेयणादुब्भिवखुवसग्गादिपसमण दुवारेण सव्वजीवाणं संजदस्स' य जं सुहमुप्पादयदि तं सुई णाम । = उग्र चारित्रवाले तथा दयापूर्वक अनुकम्पासे आपूरित संयतके इच्छा होनेपर दाहिने कंधेसे हंस और शखके वर्ण वाला शरीर निकलकर मारी, दिरमर, व्याधि, बेदना, दुर्भिक्ष और उपसर्ग आदिके प्रशमन द्वारा सब जीवों और संयतके जो सुख उत्पन्न करता है वह शुभ तैजस कहलाता है। (ध. ४/१,३,२/२८/३ ) (ध.७/२,६,१/३००/५)। द्र. सं /टी /१०/२६ लोकं व्याधिदुर्भिक्षादिपीडितमवलोक्य समुत्पन्नकृपस्य परमस यमनिधानस्य महर्षेर्मूलशरीरमपरित्यज्य शुभ्राकृतिः प्रागुक्तदेहप्रमाणः पुरुषो दक्षिणप्रदक्षिणेन व्याधिदुर्भिक्षादिकं स्फोटयित्वा पुनरपि स्वस्थाने प्रविशति, असौ शुभरूपस्तेजःसमुद्धात. ।
जगतको रोग दुर्भिक्ष आदिसे दुःखित देखकर जिसको दया उत्पन्न हुई ऐसे परम संयम निधान महाऋषिके मूल शरीरको न त्यागकर पूर्वोक्त देहके प्रमाण, सौम्य आकृतिका धारक पुरुष दायें कन्धेसे निकलकर दक्षिण प्रदक्षिणा देकर रोग, दुर्भिक्षादिको दूर कर फिर अपने स्थानमें आकर प्रवेश करे वह शुभ तैजस समुद्घात है। ४. तैजस समुद्घातका वर्ण शक्ति आदि प्रमाण–दे० उपरोक्त लक्षण
४. परिहारविशुद्धि संयमके साथ तैजस व आहारक समुद्घातका विरोध।
-दे० परिहारविशुद्धि। तैजसकाय-दे० अग्नि । तैजस वर्गणा-दे० वर्गणा। तैजस शरीर- दे० ते जस/१। तैजस समुद्घात-दे० तैजस/२। तैतिल-भरत क्षेत्रस्थ एक देश। -दे० मनुष्य/४ । तैला-भरत क्षेत्र आर्य खण्डस्थ एक नदी। -दे० मनुष्य/४। तलिपदेव-कल्याण (बम्बई) के राजा थे। इनके हाथसे राजा मुंजकी युद्धमें मृत्यु हुई थी। समय-वि. सं. १०५८ ( ई० ६१२१)
(द. सं./प्र. ३६ प्रेमी)। तोयंधरा-नन्दनवनमें स्थित विजयकूटकी स्वामिनी दिक्कुमारी
देवी। -दे० लोक/५/५ । तारण-घ,१४/५,६,११/३/४ पुराणं पुराणं पासादाणं बंदणमालबंधणठं पुरदो टूठविदरूक्वविसेसा तोरणं णाम। प्रत्येक पुर प्रासादोंपर वन्दनमाला बांधनेके लिए आगे जो वृक्ष विशेष रखे जाते
हैं वह तोरण कहलाता है। तोरणाचार्य-राष्टकटवंशी राजा गोविन्द त के समयके अर्थात शक सं०७२४ व ७१६ के दो ताम्रपत्र उपलब्ध हुए है। उनके अनुसार आप कुन्दकुन्दान्वयमे से थे। और पुष्पनन्दिके गुरु तथा प्रभाचन्द्रके दादागुरु थे। तदनुसार आपका समय श० सं० ६०० (ई० ६७८) के लगभग आता है। (प. प्रा./प्र. ४-५ प्रेमीजी) (स. सा./प्र. K. B.
Pathak) (जै./२/११३)। तोरमाण-मगधदेशकी राज्य वंशावलीके अनुसार (-दे० इतिहास) यह हणवंशका राजा था। इसने ई०५०० मे गुप्त साम्राज्य (भानुगुप्तकी) शक्तिको कमजोर पाकर समस्त पंजाब व मालवा प्रदेशपर अपना अधिकार कर लिया था। पीछे इसीका पुत्र मिहिरकुल हुआ। जिसने गुसवशको प्राय' नष्ट कर दिया था। यह राजा अत्यन्त अत्याचारी होनेके कारण कल्की नामसे प्रसिद्ध था। (-दे० कल्की)। समय-बी०नि० १०००-१०३३ (ई० ४७४-५०७) विशेष -दे. इतिहास/३/४। त्यक्त शरीर-दे निक्षेप/५ । त्याग-वीतराग श्रेयसमार्ग में त्यागका बड़ा महत्त्व है इसीलिए
इसका निर्देश गृहस्थों के लिए दानके रूपमें तथा साधुओंके लिए परिग्रह त्यागनत व त्यागधर्मके रूपमे किया गया है। अपनी शक्तिको न छिपाकर इस धर्मकी भावना करनेवाला तीर्थ कर प्रकृतिका बन्ध करता है।
विषय
अप्रशस्त
प्रशस्त
वर्ण
समर्थ
जपाकुसुमवद रक्त हंसवत् धवल शक्ति भूमि व पर्वतको जलानेमें रोग मारी आदिके प्रशमन
करने में समर्थ उत्पत्ति- बायां कंधा
दायां कन्धा स्थान विसर्पण | इच्छित क्षेत्र प्रमाण अथवा
अप्रशस्तवत १२ योरहयो. - सूच्य
गुलके = संख्यात भाग प्रमाण | निमित्त | रोष
प्राणियोके प्रति अनुकंपा
५. तैजस समुद्घातका स्वामित्व द्र. सं./टी./१०/२५/६ सयमनिधानस्य । = सयमके निधान महामुनिके
तैजस समुद्धात होता है। घ.४/१, ३, ८२/१३५॥ई णवरि पमत्तसंजदस्स उवसमसम्मत्तेण तेजाहारं णत्थि । -प्रमत्त संयतके उपशम सम्यवत्वके साथ तैजस समुद्धात ...नहीं होते हैं। ध./७/२, ६, १/२६६ तेजइयसमुग्धादी.. विणा महब्वएहि तदभावादो। -बिना महावतोंके तैजस समुद्रात नहीं होता।
६. अन्य सम्बन्धित विषय १. सातों समुद्घातोंके स्वामित्वकी ओघ आदेश प्ररूपणा।
-दे० समुद्घात। २. तैजस समुद्घातका फैलाव दशौं दिशाओंमें होता है।
-दे० समुद्धात। ३. तैजस समुद्घातकी स्थिति संख्यात समय है।
-दे० समुद्धात।
१. त्याग सामान्यका लक्षण निश्चय त्यागका लक्षण वा.अ.19८ णिवेगतियं भावइ मोह चइऊण सव्वदव्वेसु । जो तस्स हवे च्चागो इदि भणिदं जिणवरिदेहि ।७८1 = जिनेन्द्र भगवान ने कहा है कि, जो जीव सारे परद्रव्योके मोह छोड़कर संसार, देह और भोगोंसे उदासीन रूप परिणाम रखता है, उसके त्याग धर्म होता है। स.सि./६/२६/३४३/१० व्युत्सर्जनं व्युत्सर्गस्त्याग'। -व्युत्सर्जन करना
व्युत्सर्ग है। जिसका अर्थ त्याग होता है। स.सा./भाषा/३४ पं. जयचन्द-पर भावको पर जानना, और फिर परभावका ग्रहण न करना सो यही त्याग है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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