Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 405
________________ त्याग त्याग २. व्यवहार त्यागका लक्षण स.सि./१६/४१३/१ संयतस्य योग्यं ज्ञानादिदानं त्याग । = संयतके योग्य ज्ञानादिका दान करना त्याग कहलाता है (रा.वा./8/६/२०) ५६८/९३); (त.सा./६/१९/३४५)। रा.वा./8/६/१८/५६८/परिग्रहस्य चेतनाचेतनलक्षणस्य निवृत्तिस्त्याग इति निश्चीयते ।-सचेतन और अचेतन परिग्रहकी निवृत्तिको त्याग कहते हैं। भ.आ./वि./१६/११४/१६ सयतप्रायोग्याहारादिदानं त्यागः। - मुनियों के लिए योग्य ऐसे आहारादि चीजे देना सो त्यागधर्म है। पं.वि./१/१०१/४० व्याख्या यत् क्रियते श्रुतस्य यतये यहीयते पुस्तकं, स्थानं स यमसाधनादिकमपि प्रीत्या सदाचारिणा । स त्यागो...॥१०॥ - सदाचारी पुरुषके द्वारा मुनिके लिए जो प्रेमपूर्वक आगमका व्याख्यान किया जाता है, पुस्तक दी जाती है, तथा संयमकी साधनभूत पीछो आदि भी दी जाती है उसे त्यागधर्म कहा जाता है। (अन.ध./६/५२-५३/१०६)। का.अ./मू./१४०१ जो चयदि मिट्ठ-भोज्जं उवयरणं राय-दोस-संजणयं । वसदि ममत्तहेदुचाय-गुणो सो हवे तस्स । जो मिष्ट भोजनको, रागद्वेषको उत्पन्न करनेवाले उपकरणको, तथा ममत्वभावके उत्पन्न होनेमें निमित्त वसतिको छोड़ देता है उस मुनिके त्यागधर्म होता है। प्र.सा./ता.वृ./२३६/३३२/१३ निजशुद्धात्मपरिग्रह कृत्वा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहनिवृत्तिस्त्याग । निज शुद्धात्माको ग्रहण करके बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहकी निवृत्ति सो त्याग है। २. त्यागके भेद स.सि./8/२६/४४३/१० स द्विविधः-बाह्योपधित्यागोऽभ्यन्तरोपधित्यागश्चेति । - त्याग दो प्रकारका है-बाह्यउपधिका त्याग और आभ्यन्तरउपधिका त्याग । रा.वा./६/२६/५/६२४/३५ स पुनर्द्विविधः-नियतकालो यावज्जीब चेति । -आभ्यन्तर त्याग दो प्रकारका है-यावत् जीवन व नियत काल । पु. सि.उ./७६ कृतकारितानुमननैर्वाक्कायमनोभिरिष्यते नवधा । औत्सर्गिकी निवृत्तिविचित्ररूपापवादिकी त्वेषा।-उत्सर्गरूप निवृत्ति त्याग कृत, कारित अनुमोदनारूप मन, वचन व काय करके नव प्रकारकी कही है और यह अपवाद रूप निवृत्ति तो अनेक रूप है। * बाह्याभ्यन्तर त्यागके लक्षण-दे० उपधि । * एकदेश व सकल देश त्यागके लक्षण-दे० संयम णाण-दसण-चरित्तादि । तस्स परिच्चागो विसज्जणं, तस्स भावो पासुअपरिच्चागदा । दयाबुद्धिये साहणं जाण-द सण-चरित्तपरिच्चागो दाणं पासुअपरिच्चागदा णाम ।साधुओंके द्वारा विहित प्रासुक अर्थात् निरवद्यज्ञान दर्शनादिकके त्यागसे तीर्थकर नामकम अन्धता है-अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, विरति और क्षायिक सम्यक्त्वादि गुणोके जो साधक है वे साधु कहलाते है। जिससे आस्रव दूर हो गये है उसका नाम प्रासुक है, अथवा जो निरवद्य है उसका नाम प्रासुक है। वह ज्ञान, दर्शन व चारित्रादिक ही तो हो सकते हैं। उनके परित्याग अर्थात् विसर्जनको प्रासुकपरित्याग और इसके भावको प्रासुकपरित्यागता कहते है। अर्थात् दया बुद्धिसे साधुओके द्वारा किये जानेवाले ज्ञान, दर्शन व चारित्रके परित्याग या दानका नाम प्रासुक परित्यागता है। भा.पा./टी./७७/२२१/८ स्वशक्त्यनुरूपं दानं ।-अपनी शक्तिके अनुरूप दान देना सो शक्तितस्त्याग भावना है। ४. यह मावना गृहस्थोंके सम्भव नहीं ध.८/३,४१/०७/७ ण चेदं कारणं घरत्येसु संभवदि, तत्थ चरित्ताभावादो। तिरयणोवदेसो वि ण घरत्येस अस्थि, तेसि दिठिवादादिउवरिमसुत्तोवदेसणे अहियाराभावादो तदो एदं कारणं महेसिणं चैव होदि । - [साधु प्रासुक परित्यागता ] गृहस्थोंमें सम्भव नहीं है, क्योंकि, उनमें चारित्रका अभाव है। रत्नत्रयका उपदेश भी गृहस्थोमें सम्भव नहीं है, क्योंकि, दृष्टिवादादिक उपरिमश्रुतके उपदेश देनेमें उनका अधिकार नहीं है । अतएव यह कारण महर्षियोके ही होता है। ५. एक त्याग भावनामें शेष १५ भावनाओंका समावेश ध.4/३४१/८७/१० ण च एत्य सेसकारणाणमसंभवो। ण च अरहंतादिसु अभत्तिमंते णवपदस्थविसयसद्दहणेमुम्मुक्के सादिचारसीलव्वदे परिहीणवासए णिरवज्जो णाण-दसण-चरित्तपरिच्चागो संभवादि, बिरोहादो। तदो एदमट्ठ कारणं । - प्रश्न-शक्तितस्त्यागमें शेष भावनाएँ कैसे सम्भव हैं . ] उत्तर-इसमें शेष कारणोकी असम्भावना नहीं है। क्योंकि अरहतादिकों में भक्तिसे रहित, नौ पदार्थ विषयक श्रद्धानसे उन्मुक्त, सातिचार शीलवतोसे सहित और आवश्यकोंकी हीनतासे संयुक्त होनेपर निरवद्य ज्ञान. दर्शन व चारित्रका परित्याग विरोध होनेसे सम्भव ही नहीं है। इस कारण यह तीर्थकर नामकर्मबन्धका आठवॉ कारण है। ६. त्यागधर्म पालनार्थ विशेष भावनाएँ रा.वा./४/६/२७/५६६/२५ उपधित्यागः पुरुषहित । यतो यतः परिग्रहादपेत' ततस्ततोऽस्य खेदो व्यपगतो भवति । निरवद्य मन प्रणिधान पुण्यविधानं । परिग्रहाशा बलवती सर्वदोषप्रसवयोनिः । न तस्या उपधिभिः तृप्तिरस्ति सलिलै रिव सलिलनिधेरिह बड़वायाः। अपि च, कः पूरयति दुःपूरमाशागर्तम् । दिने दिने यत्रास्तमस्तमाधेयमाधारत्वाय कल्पते । शरीरादिषु निर्ममत्वः परमनिवृत्तिमवाप्नोति । शरीरादिषु कृताभिष्वङ्गस्य सर्वकालमभिष्वङ्ग एव संसारे। परिग्रहका त्याग करना पुरुषके हितके लिए है । जैसे जैसे वह परिग्रहसे रहित होता है वैसे वैसे उसके खेदके कारण हटते जाते हैं। खेदरहित मनमें उपयोगकी एकाग्रता और पुण्यसंचय होता है। परिग्रहकी आशा बड़ी बलवती है। वह समस्त दोषों की उत्पत्तिका स्थान है। जैसे पानीसे समुद्रका बड़वानल शान्त नहीं होता उसी तरह परिग्रहसे आशासमुद्रकी तृप्ति नहीं हो सकती। यह आशा वा गड्डा दुष्पूर है। इसका भरना बहुत कठिन है। प्रतिदिन जो उसमे डाला जाता है वही समाकर मुंह बाने लगता है। शरीरादिसे ममत्वशन्यव्यक्ति परम सन्तोषको प्राप्त होता है। शरीर आदिमें राग करनेवालेके सदा संसार परिभ्रमण सुनिश्चित है (रा.वा./हि/८/६/६६५-६६६)। ३. शक्तितस्त्याग या साधुमासुक परित्यागताका लक्षण रा.वा./६/२४/६/२२६/२७ परप्रीतिकरणातिसर्जनं त्यागः ६ आहारो दत्तः पात्राय तस्मिन्नहनि तत्प्रीतिहेतुर्भवति, अभयदानमुपपादितमेकभवव्यसननोदनम्, सम्यग्ज्ञानदानं पुनः अनेकभवशतसहस्रदुःखोत्तरणकारणम् । अत एतत्रिविधं यथाविधि प्रतिपद्यमानं त्यागव्यपदेशभाग्भवति । = परकी प्रीतिके लिए अपनी वस्तुको देना त्याग है। आहार देनेसे पात्रको उस दिन प्रीति होती है। अभयदानसे उस भवका दुःख छूटता है, अतः पात्रको सन्तोष होता है। ज्ञानदान तो अनेक सहस्र भवों के दु खसे छुटकारा दिलानेवाला है। ये तीनों दान यथाविधि दिये गये त्याग कहलाते है (स सि./६/२४/३३८/११); (चा.सा./५३/६)। ध.८/३,४१/०७/३ साहूण पासुअपरिच्चागदाए-अणतणाण-दसण-वीरियविरइ-वझ्यसम्मत्तादीणं साह्या साहू णाम। पगदा ओसरिदा आसवा जम्हा तं पासु, अधवा जे हिरवज्जतं पासु। किं । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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