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तप
२. तपके उपदेशका कारण
भ.आ./१११,२३७-२४१ पुनमकारिदजोग्गो समाधिकामो तहा मरणकाले । ग भवदि परीसहसो विसयहपरम्मूहो जीवो |११| सो नाम बाहिरयो जेण मणो दुखं प उदि जैन यस जायदि जेण य जोगा ण हायंति । २३६ । बाहिरतवेण होदि हु सन्ना सुहसीलदा परिच्चत्ता । सन्निहिद च सरीरं ठविदो अप्पा य संवेगे | २३७॥ यदि पूर्व कालमें तपश्चरण नहीं किया होय तो मरण काल में समाधिको इच्छा करता हुआ भी परीषहोंको सहन नहीं करता है, अतः विषय सुखो में आसक्त हो जाता है । १६१। जिस तपके आचरणसे मन दुष्कर्मके प्रति प्रवृत्त नहीं होता है, तथा जिसके आचरणसे अभ्यन्तर प्रायश्चित्तादि तपों में श्रद्धा होती है जिसके आचरण से पूर्व के धारण किये हुए का नाश नहीं होता है, उसी तपका अनुष्ठान करना योग्य है | २३६ । तपसे सम्पूर्ण सुख स्वभावका त्याग होता है । बाह्य तप करने से शरीर सक्सेनाके उपायकी प्राप्ति होती है और आत्मा संसारभीरुता नामक गुणमें स्थिर होता है (भ.आ./मू./ ११३) (भ.आ./ सू. १८५) । मो.पा./६२ सुभाविदं गाणं हे जाये विशस्सदि तन्हा जहावलं जोई अप्पा दुबखेहि भावए । ६२ । जो सुखकरि भाया हुआ ज्ञान है सो उपसर्ग परीषहादिक करि दुख उपज नष्ट हो जाय है ताने यह उपदेह है जो योगी ध्यानी मुनि है सो तपश्चरणादिके कष्ट दुखसहित आत्माकू भावे । ( स. रा. / मू० / १०२ ) ( ज्ञा० / ३२ / १०२ / ३३४ ) ।
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अन ध./७/१ ज्ञातोऽपि तृप्यार नाप्नोति तत्पदम्। ततस्तसि द्वये धीरस्तपस्तप्येत नित्यशः |१| तत्वोंका ज्ञाता होनेपर भी, वीतरागता विना अनन्तचतुष्टय रूप परम पदको प्राप्त नहीं हो सकता । अत बीतर ताकी सिद्धि के अर्थ धीर वीर साधुओंको तपका नित्य ही संचय करना चाहिए ।
३ तपको राप कहनेका कारण
रा. वा /६/१६/२०-२१/६१९ / ३९ यथाग्नि संचितं तृणादि दहति तथा कर्म मिथ्यादर्शनाद्यर्जितं निर्दहतीति तप इति निरुच्यते ॥२०॥ देहेन्द्रि यतापाद्वा ।२११- जैसे अग्नि संचित मावि इन्धनको भरम कर देती है उसी तरह अनदानादि अर्जित मिथ्यादर्शनादि कर्मोंका दाह करते है तथा देह और इन्द्रियोंकी विषय प्रवृत्ति रोककर उन्हें पा देते हैं अतः ये तप कहे जाते है ।
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४ तपसे वलकी वृद्धि होती है
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ध. ६/४, १,२२/०६/१ आघादाउआ वि छम्मासोनवासा चैव होंति, तर किसीदो खि ण तपोमयुप्पण्णविरियंतराइम समाणं तन्मतेव मंदीच्यासादावेदनी बोदवाणमेस नियमो तथ तविरोहादो। प्रश्न- अघातायुष्क भी छह मास तक उपवास करनेवाले ही होते हैं, क्योंकि इसके आगे संक्लेश उत्पन्न हो जाता है ? उत्तर-... पके मल उत्पन्न हुए वीर्यान्तरायके क्षयोपशम संयु तथा उसके बलसे ही असातावेदनीयके उदयको मन्द कर चुकनेनाले के लिए यह नियम नहीं है क्योंकि उनमें इसका विरोध है।
५. सप निर्जरा व संवरका कारण है
व सू./१/२ तपसा निर्जरा च ॥३॥ तपसे संबर और निर्जरा होती है। रा. वा./८/२३/७/५८४ पर उद्धृत - कायमणो चिगुतो जो तवसा चेदे अणेयविहं । सो कम्म णिज्जराए विपुलाए बट्टदे मणुस्सोत्ति । काय. मन और वचन गुप्तिसे युक्त होकर जो अनेक प्रकारके तप करता है वह मनुष्य मिल कर्म निर्जराको करता है।
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४. तपके कारण व प्रयोजनादि
न. वि./मू./१/४/३३० सपसरच प्रभावेग निर्जीॉर्म कर्म जायते । ५४तपके प्रभाव से कर्म निर्जीर्ण हो जाते हैं ।
दे० निर्जरा/२/४ [ तप निर्जराका ही नहीं संवरका भी कारण है । ] । ६. तप दुखका कारण नहीं आनन्दका कारण है
स. वा./३४ आत्मदेहान्तरहानजनिताद्वादनिषुतः तपसा दुष्कृतं घोरं भुञ्जानोsपि न विद्यते । ३४ - आत्म और शरीरके भेद-विज्ञानसे उत्पन्न हुए आनन्दसे जो आनन्दित है वह तपके द्वारा उदयमें लाये हुए भयानक दुष्कर्मो के फलको भोगता हुआ भी खेदको प्राप्त नहीं होता है। इ. उ. / ४८ नोहर कर्मेन्धनमनारत न पासी विद्यते योगी बहिदु खेष्वचेतन. |४| वह परमानन्द सदा आनेवाली कर्म रूपी ईंधनको जला डालता है। उस समय ध्यान मग्न योगी के बाह्य पदार्थोंसे जायमान दुखोंका कुछ भी भान न होनेके कारण कोई खेद नहीं होता। शा./२२/४०/२२४
परान्तर विज्ञानसुधास्यन्दाभिनन्दितः। नि तपः कुर्वपि क्लेशैः शरीरजे ४८ भेदविज्ञानी मुनि आत्मा और परके अन्तर्भेदी विज्ञानरूप अमृतके वेगसे आनन्दरूप होता हुआ व तप करता हुआ भी शरीरसे उत्पन्न हुए खेद नलेशादिसे लिन नहीं होता है 1851
७. तपकी महिमा
भ.आ./मू / १४७२-१४७३ तं णत्थि जं ण लब्भइ तवसा सम्मं करण पुरिसस्स । अग्गीय तणं जलिओ कम्मतणं डहदि य तवग्गी | १४७२ ॥ सम्मं कदस्स अपरिस्सस्स ण फलं तवस्स बण्णेदु । कोई अस्थि समध्ये विजयासह ११४७३॥ निर्दोष पसे जो प्रान होगा ऐसा पदार्थ जगसमें है नहीं। अर्थात पुरुषको सर्व उम पदार्थों की प्राप्ति होती है जैसे प्रति अग्नि तुमको जाती है वैसे तपरूप अग्निकर्म रूप तृणको जलाती है । १४७२ | उत्तम प्रकार से किया गया और कर्मास्रव रहित तपका फल वर्णन करनेमें जिसको हजार जिहा है ऐसा भी कोई शेषादि देव समर्थ नहीं है। (भ.आ./ मू./ १४५०-१४०५)।
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तपस्येन
कुरल०/२०/० यथा भवति तौणाग्निस्तये योज्ज्वलाच यथाकष्टं ममशुद्धिस्तथैव हि सोनेको जिस आग प है वह जितनी ही तेज होती है, सोनेका रंग उतना ही अधिक उज्ज्वल निकलता है। ठीक इसी तरह तपस्वी जितने ही बड़े कष्टोंको सहता है उसके उतने ही अधिक आत्मिक भाव निर्मल होते हैं। आराधना सार/७/२६ निकाचितानि कर्माणि तावद्भस्मवन्ति न । यावरचनेपोमहिने दीप्यते 109 - निकाचित कर्म तब तक भस्म नहीं होते हैं, जब तक कि प्रवचनमें कही गयी तप रूपी अग्नि दीप्त नहीं होती है। रावा./१/६/२०/५/११/२२ तपः सर्वार्थसाधनम् तत एव यः संजा यन्ते । तपस्विभिरध्युषितान्येव क्षेत्राणि लोके तीर्थतामुपगतानि । यस्य न विद्यते स वृक्ष्यते मुवन्ति सर्वे गुणाः नासौ मुनति संसारम् । तपसे सभी अर्थोकी सिद्धि होती है। इससे ऋद्धियोंकी प्राप्ति होती है। तपस्वियोंकी चरणरजते पवित्र स्थान ही तीर्थ बने हैं। जिसके तप नहीं वह तिनके से भी लघु हैं । उसे सब गुण छोड देते है वह संसारसे मुक्त नहीं हो सकता ।
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डा. अनु / ९९४ इन सहजाद रिपुन विजयते प्रकोपादिकाद, गुणाः परिणमन्ति यानभिरप्ययं वाष्यति। पुरश्च पुरुषार्थसिद्धिरचि रास्वयं थायिनी, नरोन रमते कथं तपसि सापहारिणि । १९४ - इसके अतिरिक्त वह तप इसी लोकमें क्षमा, शान्ति, एवं विशिष्ट ऋद्धि आदि दुर्लभ गुणों को भी प्राप्त कराता है। वह चूँकि परलोकमोक्ष पुरुषार्थ को सिद्ध कराता है अतएव वह परलोक में भी हितका
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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