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तप
साधक है। इस प्रकार विचार करके जो विवेकी जीव हैं वे उभयलोकके सन्तापको दूर करने वाले उस तपमें अवश्य प्रवृत्त होते हैं ॥ पं. वि./१/१६-१०० कषायविषयोपरतस्करीगो
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हठात् तपः
भोयतो दुर्जया अतो हि निरुपद्रवश्यरति तेन धर्मश्रिया यतिः समुपलक्षितः पथि विमुक्तिपुर्याः सुखम् ॥६६॥ मिथ्यावादेर्यदिह भविता मग्न तपोभ्यो जातं तस्मादककणिकेके सर्वान्धिनोरा स्तोकं तेन प्रभवमखिलं कृच्छ्रासन् नरत्ये यद्य तर्हि स्वलति तदही का क्षतिजोंय ते स्यात् ॥१००॥ जो क्रोधादि कषायों और पंचेन्द्रिय विषयोंरूपी उद्भट एवं बहुत से चोरोंका समुदाय बडी कठिनतासे जीता जा सक्ता है वह चूंकि तपरूपी सुभटके द्वारा मलपूर्वक साहित होकर नष्ट हो जाता है। अतपन उस तपसे तथा धर्मरूपी लक्ष्मीसे संयुक्त साधु मुक्तिरूपों नगरीके मार्ग में सम प्रकारकी विघ्न-बाधाओंसे रहित होकर सुखपूर्वक गमन करता है || दो मिध्यात्व आदिके निमित्तसे जो तो दुख प्राप्त होनेवाला है उसकी अपेक्षा रूपसे उत्पन्न होनेवाला दुख इतना अल्प होता है कि समुद्रके सम्पूर्ण जलकी अपेक्षा उसकी एक बूंद होती है। उस तपसे सब कुछ आविर्भूत हो जाता है। इसलिए हे जीव कसे प्राप्त होनेवाली मनुष्य पर्याय प्राप्त होनेपर भी यदि तुम तपसे भ्रष्ट होते हो तो फिर तुम्हारी कौन-सी हानि होगी। अर्थात सम सुट जायेगा ॥१००॥
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५. शंका समाधान
१. देवादि पदकी प्रासिका कारण तप निर्जराका कारण कैसे
रा. बा./१/३/४-५/२१३ तपसोऽहवाभाव इति चेद न; एकस्यानेककार्यारम्भदर्शनात् ॥४॥ गुणप्रधानफलोपपत्तेर्वा कृषीमद ॥५॥ यथा कृषीवलस्य कृषिक्रियायाः पलालशस्यफखगुणप्रधानाभिसंबन्ध तथा मुनेरपि तपरिक्रयायां प्रधानोपसर्जनाभ्युदयनियमफलाभिसंबन्धोऽभिसन्धिनशाह वेदितपः- प्रश्नतप देवादि स्थानोंकी प्राप्तिका कारण होनेसे निर्जराका कारण नहीं हो सकता 1 उत्तर - एक कारणसे अनेक कार्य होते है । जैसे एक हो अग्नि पाक और भस्म करना आदि अनेक कार्य करती है। अथवा जैसे किसान मुख्यरूपसे धान्य के लिए खेती करता है. पयात तो उसे यों ही मिल जाता है । उसी तरह मुख्यत तप क्रिया कर्मक्षय के लिए है, अभ्युदयकी प्राप्ति तो पयालकी तरह आनुषंगिक ही है, गौण है। किसीको विशेष अभिप्रायसे उसकी सहज प्राप्ति हो जाती है। २. दुख प्रदायक तबसे तो असाताका आस्रव होना चाहिए
रा. मा./६/१२/१६-२०/१२९/१६ स्थादेतत्-यदि दुःखाधिकरणमा ननु नाग्न्यलोचानशनादितप करणं दुःखहेतुरिति तदनुष्ठानोपदेशनं स्वतीर्थ करस्य तदविशेषे खानानद्या व स्पायुत रिति तन्न किं कारणम् । यथा अनिष्टसंपर्का द्वेषोत्पतौ खोपतिः न तथा माह्याभ्यन्तरतपप्रवृत्ती धर्मध्यानपरिणतस्य यतेरनशनकेशनादिकरणकारणापादितकायस्लेशेऽस्ति द्वेषसंभयः तस्मान्नासयन्धोऽस्ति कोभावावेशे हि सति स्वदुखा दीनां पापालन हेतुमिष्ट' न केवलाना ...तथा अनारसांसारिकजातिजरामरणवेदना जिघांसां प्रत्यागूर्णो यति तदुप ये प्रवर्तमान' स्वपरस्य दुःखादिहेतुत्वे सत्यपि क्रोधाद्यभावात् पापस्याबन्धक' । - प्रश्न- यदि दुखके कारणो से असातावेदनीयका आस्रव होता है। तो नग्न रहना केशलु चन और अनशन आदि तपोका उपदेश भी
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६. तपधर्म, भावना व प्रायश्चित निर्देश
दुखके कारणोंका उपदेश हुआ उत्तर कोधादिके आवेशके कारण द्वेषपूर्वक होनेवाले स्व पर और उभयके दुखादि पापास्रव के हेतु होते है न कि स्वेच्छा से आत्मशुद्धयर्थं किये जानेवाले तप आदि । जैसे अनिष्ट द्रव्यके सम्पर्क से द्वेषपूर्वक दुख उत्पन्न होता है उस तरह बाह्य और अभ्यंतर तपकी प्रवृत्तिमें धर्म ध्यान परिणत मुनिके अनशन केशचनादि करने या करानेमें द्वेषको सम्भावना नहीं है अतः असाताका बन्ध नहीं होता । अनादि कालीन सांसारिक जन्म मरणकी वेदनाको नाश करनेकी इच्छासे तप आदि उपायोंमें प्रवृत्ति करनेवाले यति के कार्योंने स्वपर-उभय दुखहेतुता दीखनेपर भी क्रोधादि न होनेके कारण पापका बन्धक नहीं होता। (स. सि. / ६ /११/३२६/६ )
३. तपसे इन्द्रिय दमन कैसे होता है भा/व/१००/४०६/५ ननु चानशनादी प्रवृतस्याहारदर्शने तहात श्रवणे तदासेवाया चादरो नितान्तं प्रवर्तते ततोऽयुक्तमुच्यते सपोभावनया दान्तानीन्द्रियाणीति । इन्द्रिय विषय रागकोपपरिणामानां कर्मासहेतुतया अहितत्वप्रकाशनपरिज्ञानपुरःसरतपोभावनया विषयसुख परित्यागात्मकेन अनशनादिना दान्तानि भवन्ति इन्द्रि याणि । पुन पुन सेव्यमानं विषयसुखं रागं जनयति । न भावनान्तरान्तर्हितमिति मन्यते । प्रश्न- उपवासादि तपोंमें प्रवृत्त हुए पुरुषको बाहारके दर्शनसे और उसकी कथा सुननेसे, उसको भक्षण करनेकी इच्छा उत्पन्न होती हैं । अतः तपोभावनासे इन्द्रियोंका दमन होता है। यह कहना अयोग्य है ? उत्तर- इन्द्रियों के इष्टानिष्ट स्पर्शादि विषयोंपर आत्मा रागी और द्वेषी जब होता है तब उसके राग द्वेष परिणाम कर्मागमन के हेतु बनते हैं। ये राग जीवनका अहित करते हैं, ऐसा सम्यग्ज्ञान जीवको बतलाता है। सम्यग्ज्ञान युक्त तपोभावना जो कि विषय सुखोंका श्यागरूप और अनशनादि रूप है. इन्द्रियोंका दमन करती है। पुन 'पुन विषय सुखका सेवन करने से राग भाव उत्पन्न होता है परन्तु तपोभावनासे जब आत्मा सुसंस्कृत होता है तब इन्द्रियों विषय सुखकी तरफ दौड़ती नहीं हैं।
६. तपधर्म, भावना व प्रायश्चित निर्देश १. शक्तितस्तव भावनाका लक्षण स.सि./१/२४/२३८/१२ अनिगूहितवीर्यस्य मार्गाविरोधि कायमलेशस्तुप शक्तिको न छिपाकर मोक्षमार्ग के अनुकूल शरीरको नलेश देना यथाशक्ति तप है (भा. पाटो७७-२२१) चा सा/२४) रा.वा./६/२४/०/५२६/३० शरीरमिदं दुःखकारणमनित्यमद्युचि, नास्य योगविधिना परिपोषो युक्त अशुच्यपीद गुणरत्नसंचयोपका रोति विषय विनियतविषयमुखाभिष्वङ्गस्य स्वकार्य प्रभूत कमिव नियुज्जानस्य यथाशक्ति मार्गाविरोधि कायक्लेशानुष्ठानं तप इति निश्चीयते। अपनी शक्तिको नहीं छिपाकर मार्गाविरोधी कायक्लेशादि करना तप है। यह शरीर दुखका कारण है, अशुचि है, कितना भी भोग भोगों पर इसकी वृद्धि नहीं होती। यह अशुचि होकर भी शीतमत आदि गुणों के संचयमें आत्माकी सहायता करता है यह विचारकर विषय विरक्त हो आत्म कार्य के प्रति शरीरका नौकर की तरह उपयोग कर लेना उचित है। अत मार्गाविरोधी कायक्लेशादि करना यथाशक्ति तप भावना है ।
२. एक शक्तितस्तपमें ही १५ भावनाओंका समावेश
घ. ८/३. ४१/८६/११ जहाथामतवे सयलसेसतित्थयरकारणाण संभवादो, जदो जहाथामो णाम ओघबलस्स धीरस्स णाणदं सणकलिदस्स होदि पर सविदादोषमभावो, तहा सर्व रस बग्णहात्तीदो।" प्रश्न- शक्तितस्तपमें शेष भावनाएँ कैसे
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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