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तिच
१२. कर्मभूमिया तिर्यंचों में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं ध. ६/१,६-८,१२/२४५/१ कम्मभूमीसु दि देव मणुस तिरिवखाणं सव्वेसि पि गहणं किरण पावेदित्ति भणिदेण पावेदि, कम्मभूमीसुप्पण्ण मनुस्साणमुवयारेण कम्मभूमीववदेसादो। तो वि तिरिक्खाणं
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पावेदितेत्थिनि उपपत्तिसंभवादोग, जेखि तस्थेन उपपत्ती, ण अण्णस्थ संभवो अस्थि, तेसिं चेव मणुस्साणं पण्णारसकम्मनियसो गतिरिवाणं सर्वपदपरभागे उपज्जण सन्नहिचाराणं । प्रश्न - ( सूत्र में तो ) 'पन्द्रह 'कमभूमियोंमें' ऐसा सामान्य पद कहने पर कर्मभूमियों स्थित देव मनुष्य और तिर्यंच, इन सभीका ग्रहण क्यों नहीं प्राप्त होता है ? उत्तर - नहीं होता है. क्योंकि कर्मभूमियोंमे उत्पन्न हुए मनुष्योंकी उपचारसे 'कर्मभूमि' यह संज्ञा दी गयी है प्रश्न यदि कर्मभूमि में उत्पन्न हुए जीवोंको 'कर्मभूमि' यह संज्ञा है तो भी विचका ग्रहण प्राप्त होता है, क्योंकि, उनकी भी कर्मभूमिमें उत्पत्ति सम्भव है ' उत्तरनहीं, क्योंकि, जिनकी वहॉपर ही उत्पत्ति होती है, और अन्यत्र उत्पत्ति सम्भव नहीं है. उनही मनुष्योंके पन्द्रह कर्मभूमियोंका व्यपदेश किया गया है, न कि स्वयंप्रभ पर्वतके परभागमें उत्पन्न होनेसे व्यभिचारको प्राप्त तिर्यंचोके ।
३. तियंच लोक निर्देश
१. वियंध लोक सामान्य निर्देश
स.सि./४/११/२५०/१२ माहत्येन रात्प्रमाणस्तिर्यस्तिर्यग्लोक | मेरु पर्वतको जितनी ऊँचाई है, उतना मोटा और तिरछा फैला हुआ तिर्यग्लोक है।
ति प / ५ / ६-७ मंदरगिरिमूलादो इगिलक्खं जोयणाणि बहलम्मि | रज्जू रखे चिट्ठेदि तिरियलोओ ॥ ६॥ पीसकोडाकोडीपेमाण उद्धारपल्लरोमसमा । दिओवहीणसंखा तस्सद्ध दीवजल णिही कमसो 191 - मंदर पर्वतके मूलसे एक लाख योजन बाहन्य रूप राजुप्रतर अर्थात् एक राष्ट्र लम्बे चौड़े क्षेत्र सिलोक स्थित है |ई| पच्चीस कोड़ाकोडी उद्धार पत्योंके रोमोंके प्रमाण द्वीप व समुद्र दोनोंकी संख्या है। इसकी आधी क्रमशः द्वीपोंकी और आधी समुद्रों की संख्या है। (गो. जी भाषा / २४३/६४५/१८) |
२. तिर्यग्लोकके नामका सार्थक्य
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रा.वा./१/०/उत्थानका / १६६/१ कुतः पुनरियं प्रिवृति उच्यते - यतोऽसंख्येया स्वयंभूरमणपर्यन्तास्तिर्यक्प्रचयविशेषेणास्थिता द्वीपसमुद्रात. तिर्यग्लोक इति । प्रश्न- इसको तिर्यक्लोक क्यों कहते है उत्तर चूँकि स्वयम्वरमा पर्यन्त असंख्यात द्वीप समुद्र सिर्म-समभूमिपरे तिरछे उपस्थित है अत इसको तिर्यक् लोक कहते है ।
३. तिच लोककी सीमा व विस्तार सम्बन्धी दृष्टि भेद घ.३/९.२.४/३४/४ का विशेषार्य कितने ही आचायका ऐसा मत है कि स्वयंभूरमण समुद्रकी बाह्य वेदिकापर जाकर रज्जू समाप्त होती है। तथा कितने ही आचार्योंका ऐसा मरा है कि असंख्यात द्वीपों और समुद्रोकी चौडाई रुके हुए क्षेत्र संख्यात गुणे योजन जाकर रज्जूकी समाप्ति होती है । स्वयं वीरसेन स्वामीने इस मतको अधिक महत्त्व दिया है। उनका कहना है कि ज्योतिषियोंके प्रमाणको लानेके लिए २५६ अंगुल वर्ग प्रमाण जो भागाहार बतलाया है उससे यही पता चलता है कि स्वयंभूरमण समुह संख्यातगुणे योजन जाकर मध्यलोककी समाप्ति होती है ।
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३. तिर्यंच लोक निर्देश
ध. ४/१,१.३/४९/५ हिं लोगाणमसंविभागे तिरियलोगो डोदि ति के वि आइरिया भवंति तं महदे तीनों लोकों सेख्यातवें भाग क्षेत्र तिर्यक लोक है। ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, परन्तु उनका इस प्रकार कहना घटित नहीं होता।
भ. १९/४.२.२.९/१०/४ सयंवरमणसमुदस्स बाहिरिसतो नाम तदवय
भूदबाहिर वेइयाए. तत्थ महामच्छो अच्छिदो त्ति के वि आइरिया भणति । तण्ण घडदे, 'कायलेस्सियाए लग्गो' त्ति उवरि भण्णमाणसुसंग सह विरोहादो च सर्वभुरमणसमुहमा हिरवेगार संभा तिमि विवादमा तिरियलोभस एगरज्युपमाणादऊणत्तप्पसंगादो । स्वयम्भूरमण समुद्रके बाह्य तटका अर्थ उसकी अंगसमाह्य वेदिका है. महाँ स्थित महामत्स्य ऐसा किराने ही आचार्य कहते है. किन्तु वह घटित नहीं होता क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर 'वालयले संलग्न हुआ इस सूत्र के साथ विरोध आता है। कारण कि स्वयम्भूरमणसमुद्रकी बाह्य वेदिकासे तीनों ही वातवलय सम्बद्ध नहीं हैं, क्योंकि वैसा माननेपर तिर्यग्लोक सम्बन्धी विस्तार प्रमाणके एक राजूरी हीन होनेका प्रसंग आता है।
४. विकलेन्द्रिय जीवोंका अवस्थान
हy. / ५ / ६३३ मानुषोत्तरपर्यन्ता जन्तवो विकलेन्द्रियाः । अन्त्यद्वीपा - द्वैत' सन्ति परस्ताते यथा परे ॥ ६३३॥ इस ओर विकलेन्द्रिय जीव मानुषोत्तर पर्वत तक ही रहते हैं। उस और स्वयम्भूरमण द्वीपके अर्धभागसे लेकर अन्ततक पाये जाते हैं |६|श
ध. ४/१,१.२/३३ / २ भोगभूमीस पुण विगसिंदिया परिथ । वचिदिया वितत्य हु थोबा, मुहम्मद जीवाणं मणामसंभवादो भोगभूमि तो किस जीव नहीं होते हैं. और वहाँ पर पं न्द्रिय जीव भी स्वरूप होते हैं, क्योंकि शुभकर्मकी अधिकता वाले बहुत जीयोंका होना असम्भव है।
का. अ./टी./९४२ मिति-चरा जीवा हति नियमेण कम्मचरिमेदीने अर्थ परम-समुद्र नि सज्ये ॥१४२॥ दोइन्द्रिय, तेहन्द्रिय और भौन्द्रिय जीन नियमसे कर्मभूमिमें ही होते हैं। तथा अन्तके आधे द्वीपमें और अन्तके सारे समुद्रमें होते हैं । १४२६
भूमी
५. पचेन्द्रिय तिर्थयोंका अवस्थान
ध. ७/२, ७, १६/३७६/३ अधवा सव्वेसु दीव-समुद्देसु पंचिदियतिरिक्खअपज्जता होति कुदो हरियदेवमंण कम्मभूमिपतिमाणुयदियतिखाणं एगबंधणमवज्जीवणिकाओगाढ ओशलिय देहाणं सव्त्रदीवसमुद्द ेसु पंचिदियतिरिक्ख अपज्जत्ता होंति । - अथवा सभी द्वीप समुद्रो ने पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त जी होते है, क्योंकि, पूर्वके मेरी देवोंके सम्बन्धसे एक बन्धनमें मद वह जीवनिकायोंसे व्याप्त औदारिक शरीरको धारण करनेवाले कर्मभूमि प्रतिभागमें उत्पन्न हुए पंचेन्द्रिय तिर्यखाँका सर्व समुद्रोंमें अवस्थान देखा जाता है।
६. जलचर जीवोंका अवस्थान
मू. आ. / १०८१ लवणे कालसमुद्द े सयंभुरमणे य होंति मच्छा दु। अबसेसे समुद्दसु णत्थि मच्छा य मयरा वा ॥ १०८९॥ लवणसमुद्र और कालसमुद्र तथा स्वयंभूरमण समुद्रमे तो जलचर आदि जीव रहते हैं. और शेष समुद्रो में मन्द्रनगर आदि कोई भी जलचर जीव नहीं रहता है। (ति./२/३१) (रा. बा./३/२२/८/१४/१०) (. पु/५/६३०); (ज. प / ११ / ११ ) ( का. अ / भू. १४४ ) ति./४/२००६. भोगबलोण पदोओ सरपहूदी अलयर विहीणा । - भोगभूमियोकी नदियों, तातान आदिक जलचर जीवोंसे रहित है ११७७३ ॥
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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