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तप
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सुमेधसा ॥२४३॥ नियम और रूप से दो पदार्थ जुड़े जुड़े नहीं है। ॥२४२॥ जो मनुष्य नियमसे युक्त है वह शक्तिके अनुसार तपस्वी कहलाता है। इसलिए बुद्धिमान् मनुष्यको सब प्रकार से नियम अथवा तपमें प्रवृत्त रहना चाहिए । २४३ | पं.वि./६/२५ स्वयं यथाशक्ति भुतित्यागादिकं तपः। वस्त्रपूतं पिले तो रात्रिभोजनावको पर्वदिनो मी एवं चतु ईशी आदि) में अपनी शक्तिके अनुसार भोजन के परित्याग आदि रूप ( अनशनादि ) तपोंको करना चाहिए। इसके साथ ही उन्हें रात्रि भोजनको छोडकर वस्त्रसे छना हुआ जल भी पीना चाहिए ।
8. तपके भेद-प्रभेद
१. तप सामान्यके भेद
म. आ. / ३४५ दुविहो य तवाचारो बाहिर अव्भं तरो मुणेयब्ब । एक्केको विद्धा जधाकम्मं तं परुवेमो ॥ ३४५॥ = तपाचारके दो भेद हैंबाह्य आभ्यन्तर । उनमें भी एक एकके छह-छह भेद जानना । ( स. सि./१/११ / ४३/२) (चा, सा / १३३/३) (रा. बा./१/१३ की उत्था निका/१०/११)। २. बाह्य तपके भेद छ.सू./६/११ अनशनापमोद परिसंख्यानरस परित्यागविविक्तशय्यासरकारलेशा माहां तप ११ अनशन, अनमौदर्य वृत्तिपरिसंस्थान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश यह छह प्रकारका बाह्य तप है ( पू. आ./३४६), (भ.आ./मू./२००); (द्र.सं./५०/२२८ ) ।
३. आभ्यन्तर तपके भेद
त. सू./१/२० प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्याययुत्सर्गध्यानान्युसर [२०] - प्रायश्चित विनय वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान यह छह प्रकारका आभ्यन्तर तप है । ( मू. आ. / ३६० ) (प्र. सं./४०/२२८)।
५. बाह्य आभ्यन्तर तपके लक्षण
स.सि./१/१६/४३१/३ माहाव्यापेक्षत्वात्परत्यक्षत्वाच नाह्यत्व 1 स. सि./१/२०/४३१/६ कथमस्याभ्यन्तरत्व मनोनियमनार्थत्वात् । -पाय अवलम्बनसे होता है और दूसरोंके देखने में आता है. इसलिए इसे बाहा तप कहते हैं (रा.वा./१/१६/१७-१०/६१६/२६ ) (अन. घ. /७/६) और मनका नियमन करनेवाला होनेसे प्रायश्चित्तादिको अभ्यंतर तप कहते हैं । रा.वा./१/११/११/६१६/२६ अनशनादि हि तीयैर्गृहस्थैश्च क्रियते ततोऽप्यस्य बाह्यत्वम्
रा. मा./१/२०/१-३/६२० अन्यतीर्थ्यानभ्यस्तत्वातरम् ॥१॥ अन्तःकरणव्यापारात ॥ २ ॥ बाह्यद्रव्यानपेक्षत्वाच्च ॥ ३ ॥ = ( उपरोक्तके अतिरिक्त) बाह्यजन अन्य मतवाले और गृहस्थ भी चूँ कि इन तपोंको करते हैं, इसलिए हमको बाह्य तप कहते हैं (भ.आ./वि/१००/२५८/३); (अन. ध. /७/६ ) प्रायश्चित्तादि तप चूंकि बाह्य द्रव्योकी अपेक्षा नहीं करते, अन्त करणके व्यापार से होते है । अन्यमतवालों से अनभ्यस्त और अप्राप्तपार हैं अतः ये उत्तर अर्थात् अभ्यन्तर तप है। भ आ./वि./ १०७/२५४/४ सन्मार्गज्ञा अभ्यन्तराः । तदवगम्यत्वात् घटादिवसे राचरिया बाह्याभ्यन्तरमिति । रत्नत्रयको जाननेवाले मुनि जिसका आचरण करते हैं, ऐसे तम आभ्यन्तर तप' इस शब्द से कहे जाते हैं ।
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अन. ध. / ७/३३ बाह्यद्रव्यानपेक्षत्वात् स्वसंवेद्यत्वतः परैः । अनध्यासातपः प्रायश्चित्ताद्यभ्यन्तरं भवेत् ॥ ३३॥ प्रायश्चित्तादि तपों में
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२. तप निर्देश
माहाद्रव्यको अपेक्षा नहीं रहती है। अन्तरंग परिणामो की मुख्यता रहती है तथा इनका स्वयं ही संवेदन होता है ये देखने में नहीं जाते तथा इसको अनर्हत लोग धारण नही कर सकते, इसलिए प्रायश्चि तादिको अन्तरंग तप माना है ।
६. बाल तपका लक्षण
स.सा./मू./१५२ परमट्ठम्हि दु अठिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेई । साता विति ॥१२- परमार्थ में अस्थित जो जीव तप करता है और व्रत धारण करता है, उसके उन सब तपों और तो सर्वज्ञव बालतप और बालवत कहते है । स.सि./६/२०/३३६/१
निकृतिबहुलवतधारणम् । न पडनेवाले कायक्लेश बहुल
मध्यादर्शनमनुपायकाशप्रचुरं निथ्यात्व के कारण मोक्षमार्ग में उपयोगी मायासे व्रतोका धारण करना बालतप है । (रा. बा. /६/२०/२/५२७/१८ ); ( गो . क./जी. प्र / ५४८ /७१७/२३ ) रा. वा./६/१२/७/२२१२ /२० यथार्थप्रतिपत्यभावादज्ञानिनो बाला मिथ्यादृष्ट्यादयस्तेषां तप बालतप अग्निप्रवेश- कारीष-साधनादि प्रतीसम् - यथार्थ ज्ञानके अभाव अज्ञानी मिध्यादृष्टियोके अग्निप्रवेश, पंचाग्नितप आदि तपको बालतप कहते हैं। स. सा./आ./१५२ अज्ञानकृतयोर्व ततपःकर्मणो बन्धहेतुत्वाद्वातव्यपदेशेन प्रतिषिद्धत्वे सति । - अज्ञानपूर्वक किये गये व्रत, तप, आदि कर्मबन्धके कारण हैं, इसलिए उन कर्मोको 'बाल' संज्ञा देकर उनका निषेध किया है।
२. तप निर्देश
१. तप भी संयमका एक अंग है
भ.आ./मू./६/३२ संयममाराहंतेण तवो आराहिओ हवे णियमा । आराहंलेण तवं चारितं होइ भयणिज्जं ॥ ६ ॥ -जो चारित्र अर्थात् संयमकी आराधना करते हैं उनको अवश्य ही नियमसे तपकी भी आराधना हो जाती है। और जो तपकी आराधना करते हैं उनको चारित्रकी आराधना भजनीय होती है। भ.आ./५/६/२३/१ एवं स्वाध्यायो ध्यानं च अविरतिप्रमादकयायत्यजनरूपतया । इत्थं चारित्राराधनयोक्तया प्रत्येतु शक्त्या तपसाराधना--- त्रयोदशात्मके चारित्रे सर्वथा प्रयतनं संयमः स च बाह्यतप संस्कारिताम्यग्रतपसा बिना न संभवति तदुपकृतात्मकत्वात्संयम स्वरूपस्येति । = अविरति, प्रमाद, कषायोंका त्याग स्वाध्याय करनेसे तथा ध्यान करनेसे होता है इस वास्ते वे भी चारित्र रूप हैं । अतः सम पक्षा चारिणाराधना मे अन्तर्भाव हो जाता है । रह प्रकार चारित्र में सर्वथा प्रयत्न करना वह संयम है । वह संयम बाह्य व आभ्यन्तर तपसे सुसंस्कृत होता है तब प्राप्त होता है उसके बिना नहीं होता । अत: संयम बाह्य व आभ्यन्तर तपसे सुसस्कृत होता है।
पु. सि. उ. / १६७ चारित्रान्तर्भावात् तपोऽपि मोक्षाङ्गमागमे गदितम् ।
निहितावपि निषेध्यं समाहितस्वान्तः ॥ = जैन सिद्धान्तमें चारित्रके अन्तर्वर्ती होनेसे तप भी मोक्षका अंग कहा गया है अतएव अपने पराक्रमको नहीं छिपानेवाले तथा सावधान चित्तवाले पुरुषोंको वह तप भी सेवन करने योग्य है।
२. तप मतिज्ञान पूर्वक होता है
४/६/४१२/२३/३ संपदि-द-मागसवाई मदिणाणपुला इदि। अत और मन:पर्ययज्ञान तथा तपादि चूँकि मतिज्ञान = श्रुत पूर्वक होते हैं।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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