________________
जन्मेजय
३२३
जयसिंह
भाग 'मतसमुच्चय' (वि. १८७४), आप्त मीमांसा (वि. १८८६), धन्य कुमार चरित, सामायिक पाठ। इनके अतिरिक्त हिन्दी भाषा में अपनी स्वतंत्र रचनायें भी की। यथा-पदसंग्रह. अध्यात्म रहस्यपूर्ण चिट्ठी (वि. १८७०) समय-वि. १८२०-१८८६ (ई. १७६३-१८२६) । (हि. जै.सा.इ./पृ. १८६/कामताप्रसाद ); (र.क.पा./प्र. पृ.१६/पं. परमानन्द); (न.दी./प्र.७/ रामप्रसाद जैन बम्बई)। (ती./४/२६०)
जन्मजय-कुरुवंशी राजा परीक्षितका पुत्र और शतानीकका पिता
था। पांचालदेश (कुरुक्षेत्र) का राजा था। समय-ई० पू० १४५०१४२० (विशेष-दे० इतिहास/३/२); (भारतीय इतिहास/पु.१/पृ २८६)। जयंत-१. कल्पातीत देवोंका एक भेद-दे० स्वर्ग२/१२. इन देवोंका लोकमें अबस्थान-दे० स्वर्ग/५/४ ३. एक ग्रह-दे० ग्रह। ४. एक यक्ष
-दे० यक्ष। ५. जम्बुद्वीपकी वेदिकाका पश्चिम द्वार-दे० लोक३/१ ६. विजयार्धकी दक्षिण व उत्तर श्रेणीके दो नगर-दे० विद्याधर। जयत भट्ट-ई०८४० के 'न्याय मंजरी' ग्रन्थके कर्ता नैयायिक विद्वान् । आपने मीमांसकोंका बहुत खण्डन किया है (सि.वि./प्र.३०! पं. महेन्द्र कुमार); (स्याबाद सिद्धि/प्र.२२/पं. दरबारीलाल कोठिया)। जयतिकी-रुचक पर्वत निवासिनी एक दिक्कुमारी महत्तरिका
-दे० लोक/५/१३ । जयंती-१.रुचक पर्वत निवासिनी एक दिक्कुमारी देवी-दे० लोक ५/१३,२. नन्दीश्वरद्वीपकी पश्चिम दिशामें स्थित वापी -दे० लोक५/११,३.अपर विदेहस्य महावप्र क्षेत्रकी मुख्य नगरी -दे० लोक ५/२४. भरतक्षेत्रका एक नगर-दे० मनुष्य/४१. एक मन्त्रविद्या-दे० विद्या। जय-न्याय सम्बन्धी वादमे जय-पराजय व्यवस्था-दे० न्याय/२ । जय-१. भाविकालीन २१वें तीर्थकर-दे० तीर्थकर/१२. (वृ. कथा
कोश/कथा नं ६/पृ) सिहलद्वीपके राजा गगनादित्यका पुत्र था (१७) पिताकी मृत्युके पश्चात् उसके एक मित्र उज्जयिनी नगरीके राजाके पासमें रहने लगा। वहाँ एक दिन भोजन करते समय अपने भाईके मुखसे सुना कि यह भोजन 'विषान्न' है। 'विषान्न' कहनेसे उसका तात्पर्य पौष्टिकका था, पर वह इसका अर्थ विषमिश्रित लगा बैठा और इसीलिए केवल विष खानेको कल्पनाके कारण मर गया ।१७-१८। जयकीति-अपर नाम प्रश्नकीर्ति था। आप भाविकालीन १०वें
तीर्थकर हैं-दे० तीर्थंकर/५ । जयकुमार-(म पु./सर्ग/श्लोक ) कुरुजांगल देशमें हस्तिनागपुरके
राजा व राजा श्रेयांसके भाई सोमप्रभके पुत्र थे (४३/७४) । राज्य पानेके पश्चात् (४३/८७) आप भरत चक्रवर्तीके प्रधान सेनापति बन गये। दिग्विजयके समय मेघ नामा देवको जीतनेके कारण आपका नाम मेघेश्वर पड़ गया (३२/६७-७४; ४३/३१२-१३)। राजा अकम्पनकी पुत्री सुलोचनाके साथ विवाह हुआ (४३/३२६-३२६) । सुलोचनाके लिए भरतके पुत्र अकं कीतिके साथ युद्ध किया (४४/७१-७२)। जिसमे आपने अर्ककीतिको नागपाशमें बाँध लिया (४४/३४४-३४५)। अकम्पन व भरत दोनोंने मिलकर उनका मनमिटाव कराया (४५/१०-७२) । एक देवी द्वारा परीक्षा किये जानेपर भी शीलसे न डिगे (४७/२६-७३)। अन्तमें भगवान ऋषभदेवके ७१वें गणधर बने (४७/२८५-२८६)। पूर्व भव नं. ४ में आप सेठ अशोकके पुत्र सुकान्त थे (४६/१०६,८८)। पूर्व भव नं.३ में 'रतिवर' (४६/८८)। पूर्व भव नं.२ में राजा आदित्यगतिके पुत्र हिरण्यवर्मा (४६/१४५-१४६)। और पूर्व भव न.१ में देव थे (४६/२५०-२५२)। नोट-युगपत पूर्व भक्के लिए (दे० ४६/३६४-६८) जयचंदजयपुर के पास फागी ग्राम में जन्मे। पं० टोडरमल का प्रवचन सुनने जयपुर आये। अपने पुत्र नन्दलाल से एक विदेशी विद्वान को परास्त कराया। ढुंढारी भाषा में अनेक ग्रन्थो पर वच निकायें लिखी यथा-सर्वार्थ सिद्धि (वि. १८६१), प्रमेघरत्नमाला (वि. १८६३), कार्तिकेयानुप्रेक्षा (वि. १८६३), द्रव्य संग्रह (वि १८६३), समयसार (वि. १८६४). अष्ट पाहुड (वि. १८६७), ज्ञानार्णव (वि १८६६) भक्तामर कथा (वि० १८७०), चन्द्र प्रभचरित के द्वि सर्ग का न्याय
जयद्रथ-(पा. पु./सर्ग/श्लोक ) कौरवोकी तरफसे पाण्डवोंके साथ
लडा था (१६/५३) । युद्धमें अभिमन्युको अन्याय पूर्वक मारा (२०/३०) । अर्जुनकी जयद्रथ वधकी प्रतिज्ञासे भयभीत हो जानेपर ( २०/६८) द्रोणाचार्यने धैर्य बंधाया (२०/६८) । अन्तमें अर्जुन द्वारा मारा गया। (२०/१६८)। जयधवला-आ. यतिवृषभ (ई.१५०-१८०) कृत कषाय पाहुड़ ग्रन्थकी ६०,००० श्लोक प्रमाण विस्तृत टीका है। इसमेंसे २०,००० श्लोक प्रमाण भाग तो आ. वीरसेन स्वामी (ई.७७०-८२७) कृत है
और शेष ४०,००० श्लोक प्रमाण भाग उनके शिष्य आ. जिनसैन स्वामी ने ई. ८३७ में पूरा किया। (दे. परिशिष्ट १) । जयनंदिनन्दिसंघ बलात्कारगणकी गुर्वावलीके अनुसार आप देवनन्दिके शिष्य तथा गुणनन्दिके गुरु थे। समय-विक्रम शक सं. ३०८-३५८ (ई ३८६-४३६ )-दे० इतिहास/७/२ । जयपाल-श्रुतावतारकी पट्टावलीके अनुसार आप ११ अंगधारियों में द्वितीय थे। अपर नाम यशपाल या जसपाल था । समय-वी. नि,
३६३-३८३ (ई.पू. १६४-१४४ )-दे० इतिहास/४/४। जयपुर-भरत क्षेत्रको एक नगर-दे० मनुष्य/४ ।
-विजयाध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । जयबाहु-श्रुतावतारकी पट्टावलीके अनुसार आप आठ अंगधारी
थे। दूसरी मान्यताके अनुसार आप केवल आचारांगधारी थे। अपर नाम भद्रबाहु या यशोबाहु था। (विशेष देखो भद्रबाहु-द्वितीय)। जयमित्र-सप्त ऋषियोंमेसे एक-दे० सप्त ऋषि ।
जयराशि- ई. ७२५-८२५ के, 'तत्त्वोपप्लव सिंह' के कर्ता एक ___अजैन नैयायिक विद्वान् । जयवराह-पश्चिममे सौराष्ट्र देशका राजा था। अनुमानतः चालुक्यवंशी था। इसीके समय श्री श्रीजिनसेनाचार्यने अपना हरिवंशपुराण (श ७०५ में) लिखना प्रारम्भ किया था। समयश. सं.७००-७२५ ( ई. ७७८-८०३ ); ( ह. पु/६६/५२-५३); (ह. पु./ प्र.६/पं. पन्नालाल)। जयवमो-(म.पु./५/ श्लोक नं.) गन्धिला देशमें सिंहपुरनगरके राजा श्रीषेणका पुत्र था ।२०५॥ पिता द्वारा छोटे भाईको राज्य दिया जाने के कारण विरक्त हो दीक्षा धारण कर ली ।२०७-२०८। आकाशमैसे जाते हुए महीधर नामके विद्याधरको देखकर विद्याधरोंके भोगोंकी प्राप्तिका निदान किया। उसी समय सर्पदंशके निमित्तसे मरकर महाबल नामका विद्याधर हुआ ।२०६-२११। यह ऋषभदेवके पूर्वका दसवाँ भव है-दे० ऋषभ। जयवान-सप्त ऋषियोंमेसे एक-दे० सप्त ऋषि । जयविलास-श्वेताम्बराचार्य यशोविजय (ई. १६३५-१६८८ )
द्वारा रचित भाषा पदसंग्रह । जयोसह-१ जयसिहराज प्रथम भोजवंशी राजा थे। भोजवंशकी वंशावली के अनुसार यह राजा भोजके पुत्र व उदयादित्य के पिता थे। इनका देश मालवा ( मगध ) तथा राजधानी उज्जैनी (धारा नगरी)
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org