Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 356
________________ ज्योतिष लोक ३४८ ज्योतिष लोक ४. क्षेत्र व पर्वतों आदिपर ताराओंके प्रमाणका विभाग जम्बूद्वीपसे लेकर मानुषोत्तर पर्वत तकके मनुष्य लोकमें पॉचो प्रकार- के ) ज्योतिषी देव निरन्तर गमन करते रहते हैं अन्यत्र नहीं। (ति. प./७/११६); (रा. वा./४/१३/४/२२०/११)। ति. प./७/६११-६१२ सव्वे कुणं ति मेरु' पदाहिणं जंबूदीवजोदिगणा। अद्धपमाणा धादइसंडे तह पोक्खरद्धम्मि ६११। मणुस्सुत्तरादो परदो संभूरमणो त्ति दीवउवहीणं । अचरसरूवठिदाणं जोइगणाणं परवेमो 1६१२। - जम्बूद्वीपमें सब ज्योतिषीदेवों के समूह मेरुकी प्रदक्षिणा करते हैं, तथा धातकी खण्ड और पुष्कराध द्वीपमे आधे ज्योतिषीदेव मेरुकी प्रदक्षिणा करते हैं।६११॥ मानुषोत्तर पर्वतसे आगे, स्वयंभूरमण पर्यंत द्वीप समुद्रों में अचर स्वरूपसे स्थित ज्योतिषी देवोके समूहका निरूपण करते हैं (६१२। ३. ज्योतिष विमानोंका प्रमाण संकेत-सं. प्र. अं-संरख्यात प्रतरांगुल; ज. श्रे. जगश्रेणी। प्रमाण-प्रत्येक विकल्पका प्रमाण उसके निचे दिया गया है । जहाँ केवल जैकेटमें नं० दिया है वहाँ ति. प./७/गा. समझना। त्रि. सा/३७१ णउदिसयभजिदतारा सगद्गुणसलासमब्भत्था। भरहादि विदेहोत्ति य तारा वस्से य वस्सधरे। -(जम्बूदीपके कुल १३३६५० कोडाकोडी तारोंका क्षेत्रों व कुलाचल पर्वतोंकी अपेक्षा विभाग करते हैं।) जम्बूद्वीपके दो चन्द्रों सम्बन्धी तारे १३३९५० को. को. हैं। इनको ११० का भाग दीजिए जो प्रमाण होय ताको भरतादिक्षेत्र या कुनाचलकी १/२/४/८/१६/३२/६४/३२/१६/८/४/२/१ शलाका करि गुणे उन उनके ताराओंका प्रमाण होता है। अर्थात उपरोक्त सर्व ताराओंकी राशिको उपरोक्त अनुपात ( Ratio ) से विभाजित करनेपर क्रमसे भरतादि क्षेत्रों व कुलाचलोंके तारोंका प्रमाण प्राप्त होता है। लोकके चन्द्रका तारे किसम चन्द्र ग्रह क्षत्राअचकलतारे तारे कोड़ाकोड़ी प्रत्येक १ १.८८ २८ । ६६९७५. परिवार → ज्योतिषी/१/५/ - (ज्योतिषि/५/५) | [नोट-(यहाँ से आगे केवल चन्द्रव अचर ताराओंका प्रमाण दिया गया है, शेष विकल्पउपरोक्त उनपात के गुणाकार से प्राप्त हो जाते हैं (ज.प/१२/८७) जंबूद्वी २ (११६/२/१७६ ५६ ३६(४९५/१३३९५०(*) लवण. ४ (५५०)| ४ |३५२/११२ १३९(६०)२६७९०० धातकी १२ (७) १२/१०५६/३३६ /१०१००) ८०३७०० कालोद ४२(1) ४२/३६९६/११७६/४११२०६।२८१२९५० पुकराई/ ०२(1) ०२/६३३६/२०१६/५३२३०१) ४८२२२०० (ह.पु६ि/२६-२७),(ज.प/१२/(त्रि.सा | १०६-१००) (त्रिसा/३४६)7 ३४७ १३२ ११६१६/३६९६ -८८४०००० ति प/0/६०६-६०९). ५, अचर ज्योतिष विमान ह. पु./६/३१-३४ सारार्थ- मानुषोत्तर पर्वतसे ५०,००० योजन आगे चलकर सूर्य, चन्द्रमा आदि ज्योतिषी वलयके रूपमें स्थित हैं। अर्थात मानुषोत्तरसे ५०,००० यो० चलकर ज्योतिषियोंका पहला बलय है। उसके आगे एक-एक लाख योजन चलकर ज्योतिषियोंके वलय ( अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त ) है। प्रत्येक वलयमें चार-चार सूर्य और चार-चार चन्द्र अधिक हैं, एवं एक दूसरेकी किरणें निरन्तर परस्परमें मिली हुई हैं । ३१.३४ । ) (अन्तिम वलय स्वयंभूरमण समुद्रकी वेदीसे ५०,००० योजन इधर ही रह जाता है। प्रत्येक द्वीप या समुद्रके अपने-अपने वलयों में प्रथम वलयसे लेकर अन्तिम वलय तक चन्द्र व सूर्योका प्रमाण उत्तरोत्तर चार चय करि अधिक होता गया है। इससे आगे अगले द्वीप या समुद्रका प्रथम वलय प्राप्त होता है । प्रत्येक द्वीप या सागरके प्रथम वलयमें अपनेसे पूर्ववाले द्वीप या सागरके प्रथम वलयसे दुगुने चन्द्र और सूर्य होते हैं। यह क्रम अपर पुरकरार्धके प्रथम वलयसे स्वयंभूरमण सागरके अन्तिम वलय तक ले जाना चाहिए।) (ति. प./७/ ६१२-६१३ पद्य व गद्य । पृ०७६१-७६७); (ज. प./१२/१५-८६); (त्रि. सा./३४६ ३६१)। द्वीप या सागर प्रथम बलयमै प्रथम वलयमें द्वीप या सागर वलय पुष्करोद सर्वलोक 5288x2x): ३६००0000000३३२४८) (ति प/0/१२-१३) चन्द्र के बराबर(१४) १३२ (सं.प्र.x५४८६ . ५९२0000000000९६६६५६) ११, (ति प्र(७/२३) स.प्र.x१०९७३१८४१ ज.श्रे ज. axABEEE6000000000 (ति.प्र./७१-20).. ज-श्रे(स.प्रअंx२६७९ 00000000000४७२)४४९ bob8282582292 (ति-प/७/३३-३४) पुष्करार्द्ध १४४ नंदीश्वर द्वी. १४७४५६ ३२/ २८८ | नंदी सा. ३२७६८ | २६४६१२ वारुणीद्वी. ५७६ [ स्वयंभू (ज.श्रे. २२८ लाख वारुणी सा. १२८ | १९५२ | रमण सा. (+२७/४ क्षीरवर द्वी. | २५६ २३०४ (ति.प.) क्षीरवर सा. र १४लाख घृतवर द्वी. १०२४ १२१६ र बलय । -२३ घृतवर सा. | २०४८ १८४३२ । । (ति.प.) क्षौरवर द्वी. | ४०६६ ३६८६४ (ति, प./७/६५२-६१३ गद्य) क्षौरवर सा. | ८११२ ७३७२८ (त्रि. सा./३४६-३६१ गद्य) (ज. प./१२/१८-३२) (ज. प./१२१२१-४०) | *-ताराओंका विशेष अवस्थानादे.अगला शीर्षक दें।ज्योतिषी/२/९) जितने विमानआदि हैं उतने हीदेव हैं। नोट-विशेषताके लिए दे० पृष्ठ ३४७का चित्र । - - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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