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छेद प्रायश्चित्त
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ज्ञान होता हुआ उपलब्ध होता है । ४. पाँच शरीरोंका बन्धुनगुण भी छेदना है, क्योंकि, उसका प्रज्ञा द्वारा छेद किया जाता है। या अविभागप्रतिच्छेद के प्रमाणसे उसका छेद किया जाता है । ५. प्रदेश भी छेदना होती है, क्योंकि, ऊर्ध्व प्रदेश, अथ प्रदेश और मध्य प्रदेश आदि प्रदेशोके द्वारा सब द्रव्योंका छेद देखा जाता है । ६. कुठार आदि द्वारा जंगल के वृक्ष आदिका खण्ड करना वल्लरिछेदना कहलाती है।७ परमाणुगत एक आदि अन्योंकी संख्याद्वारा अन्य द्रव्योकी संख्याका ज्ञान होना अणुच्छेदना कहलाती है । अथवा पुद्गल और आकाश आदि निर्विभाग छेदका नाम अणुच्छेदना है। दोनों ही तटोके द्वारा नदीके परिमाणका परिच्छेद करना अथवा द्रव्यों का स्वयं ही छेद होना तटच्छेदना है . रात्रिमे इन्द्रधनुष और धूमकेतु आदी उत्पत्ति तथा प्रतिमारोध, भूमिकम्प और रुधिरकी वर्षा आदि उत्पादछेदना है, क्योकि इन उत्पातो के द्वारा राष्ट्रभंग और राजाका पतन आदिका अनुमान किया जाता है । १०. मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिलान, मन:पर्ययज्ञान यौर केवलज्ञानके द्वारा छह द्रव्योंका ज्ञान होना प्रज्ञाभावछेदना है ।
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४. तट वल्लरि व अणुच्छेदना में अन्तर घ.१४/२-६-२१४/४३६/७ पा च पवेच्छेने एसो पददि रास्स बुद्धिकज्ज ताण बसरिच्छेदे पददि, तस्स पउरूसेयतादी गा पददि, परमाणुपज्जं तच्छेदाभावादो। इस (तटच्छेदना) का प्रदेशवेदने अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि वह बुद्धिका कार्य है। बल्ल रिच्छेदनामे भी अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि वह पौरुषेय होता है । अणुच्छेद में भी अन्तर्भाव नहीं होता, क्योकि इसका परमाणु पर्यत छेद नहीं होता ।
छेद प्रायश्चित्त-- १. छेद प्रायश्चित्तका लक्षण
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स.सि /१/२२/४४०/६ दिवसपक्षमासादिना प्रवर्ज्याहापनं छेद = दिवस, पक्ष, महीना आदिकी प्रवज्याका छेद करना छेदप्रायश्चित्त है । (रा.वा / १/२२/८/६२१/३०): (भ.आ /वि./६/३२/२१), (त.सा./७/२६), (चा. सा./१४३ / १) |
घ. १३/४.४.२६/६९/८ दिवस-पल मास-उद्-अ-संररादिपरिया घेवून इतिपरियायादो हेट्मिभूमी उन दो शाम पायछित्तं । = = एक दिन, एक पक्ष, एक मास, एक ऋतु, एक अयन और एक वर्ष आदि तककी दीक्षा पर्यायका छेद कर इच्छित पर्याय नीचेकी भूमिकामे स्थापित करना छेद नामका प्रायश्चित्त है ।
२. छेद प्रायश्चित्तके अतिचार
भ.आ./वि./४००/००७/२४ एवं स्थाविचार म्यूनो जातोऽहमिति संक्लेश; | = = 'मै न्यून हो गया हूँ' ऐसा मनमें संक्लेश करना छेद प्रायश्चित है।
३. छेद प्रायश्चित्त किसको किस अपराध में दिया जाता है - दे० प्रायश्चित्त / ४ |
छेव विधि Mediation Methiod ( प/प्र.१०६). छेदोपस्थापक
यो. सा / अ. ८/६ प्रवज्यादायकः सूरि संयतानां निगीर्यते । निर्यापकाः पुन शेषाश्छेदोपस्थापका मता ॥ ६॥ जो मुनि इतर मुनियोको दीक्षा प्रदान करता है वह आचार्य कहा जाता है और शेष मुनि छेदोपस्थापक कहे जाते है (विशेष देखो छेदोपस्थापना) (दे निर्मापक / २ ).
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छेदोपस्थापना
छेदोपस्थापनापि दीक्षा धारण करते समय सामु पूर्णतया साम्य रहनेको प्रतिज्ञा करता है, परन्तु पूर्ण निर्मिताने अधिक देर टिकने में समर्थ न होनेपर व्रत समिति गुति आदि रूप व्यवहार चारित्र तथा कियानुानो में अपने को स्थापित करता है। पुनः कुछ समय पश्चात् अवकाश पाकर साम्यतामें पहुंच जाता है और पुनः परिणामोंके गिरनेपर विकल्पोंमें स्थित होता है। जबतक चारित्रमोहका उपशम या क्षय नहीं करता तबतक इसी प्रकार झूले में झूलता रहता है। तहाँ निर्विकल्प व साम्य चारित्रका नाम सामायिक या निक्षय चारित्र है, और विकल्पात्मक पारिका नाम छेदोपस्थापना या व्यवहार चारित्र है ।
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१. छेदोपस्थापना चारित्रका लक्षण
प्र. सा // २०१ ए खलु मूलगुणा समगाणं जिगनरेहि पण्णत्ता ते पत्तो समणो छेदोवावगो होदि । २०६१ = ये ( व्रत समिति आदि ) वास्तव में श्रमणो के मूलगुण हैं, उनमें प्राप्त होता हुआ श्रमण छेदोपस्थापक है ( यो सा/अ/८/८/ ). पं.सं./१/१२० ण य परिया पोरानं जो हमे अप्पा पंचमे धम्मे सो छेदोवट्ठागो जीवो । १३०| = सावद्य पर्यायरूप पुरानी पर्यायको छेदकर अहिसादि पाँच प्रकारके यमरूप धर्ममें अपनी आत्माको स्थापित करना छेदोपस्थापना संयम है। ( ध.१/१/१/१२३ । गा०] १०० / ३७२) (. सं. सं. १/२४०) (गो. जी // ४०९/८८०). स.सि /४/११/४३६/७ प्रभावकृतानर्थ प्रबन्धमितीचे सम्यक्प्रतिक्रिया
दोस्थापनापनिवृत्ति प्रमाद अनर्थप्रबन्धका अर्थात् हिसादिक अनुष्ठानका वित्तोष अर्थात सर्वथा या करनेपर जो भले प्रकार प्रतिक्रिया अर्थात् पुनः व्रतोंका ग्रहण होता है वह दोपस्थापना चारित्र है. अपना विकल्पोंकी निवृत्तिका नामोपस्थापना चारित्र है (रा. २/६/१८/६०/६१०/११) (चा. सा/ ८३/४ ) (गो० क / जी. प्र/२४७/७९४/4).
यो.सा./यो / १०१ हिसादि उपरिहारु करि जो अप्पा हु ठवेइ । सो बियऊ चारितु मुनि जो पंचमग मे २०११ हिसाविकका याग कर जो आत्माको स्थिर करता है, उसे दूसरा ( छेदोपस्थापना ) समझो। यह पचम गतिको ले जाने वाला है।
घ. १/१.१.१२३/३००/१] सस्यैकस्य तस्य द्वित्र्यादिभेदेनोपस्थापन व्रतसमारोपणं छेदोपस्थापनशुद्धिसंयमः = उस एक ( सामायिक ) व्रतका छेद करनेको अर्थात् दो तीन आदिके भेदसे उपस्थापन करनेको अर्थात् प्रतीके आरोपण करनेको धेोपस्थापना-वृद्धि-संयम कहते है।
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तसा / ४/४६ यत्र हिसादिभेदेन स्याग सायकर्मण शुद्धि छेदोपस्थापनं हि तत् |४६| = जहॉपर हिंसा चोरी इत्यादि विशेष रूपसे भेदपूर्वक पाप क्रियाका त्याग किया जाता है और व्रत भंग हो जानेपर उसकी प्रात्तादि ) शुद्धि की जाती है उसको छेदो पस्थापना कहते है ।
प्र. सात / २०१ मा निमावि संयमाथि रुचेनान
स्तनपानाति तदा केवलकल्याणमात्रार्थिनः कुण्डवसयाङ्गुलीयादिपरिग्रह किल श्रेयान् न पुनः सर्वथा कल्याणलाभ एवेति संप्रधार्य विकल्पेनात्मानमुपस्थापयन् पापको भवति ।जब ( श्रमण ) निर्विकल्प सामायिक संयममें आरूढता के कारण जिसमें ल्पिक अभ्यास (सेवन) नहीं है ऐसी दशा च्युत होता है. राम केवल सुवर्णमात्र के अर्थीको कुण्डल कंकण अगूठी आदिको ग्रहग करना ( भी ) श्रेय हैं, किन्तु ऐसा नहीं है कि ( कुण्डल इत्यादिका ग्रहण कभी न करके ) सर्वथा सुवर्णकी ही प्राप्ति करना श्रेय है, ऐसा विचारे । इसी प्रकार वह श्रमण मूलगुणोमे विकल्परूपसे (भेदरूपसे ) अपनेको स्थापित करता हुआ छेदोपस्थापक होता है (अन० प ४/१७६/५०६).
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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