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चैत्य चैत्यालय
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३. चैत्यालयोंका लोकमें अवस्थान""
( कोटोंके अन्तरालमे) क्रमसे वनभूमि, ध्वजभूमि और चैत्यभूमि होती है।४४। वन भूमिमे चैत्यवृक्ष है।४। ध्वज भूमिमें गज आदि चिन्हो युक्त ८ महा ध्वजाएँ है। एक एक महाध्वजाके आश्रित १०८ क्षुद्र ध्वजाएँ है।६४। जिनमन्दिरों मे देवच्छन्दके भीतर श्रीदेवी, श्रुतदेवी तथा सर्वान्ह तथा सनत्कुमार यक्षोंकी मूर्तियाँ एवं आठ । मंगल द्रव्य होते है ।४८। उन भवनोंमे सिंहासनादिसे सहित हाथमें चवर लिये हुए नाग यक्ष युगलसे युक्त और नाना प्रकारके रत्नोंसे निर्मित ऐसी जिन प्रतिमाएं विराजमान हैं ।५२)
३. व्यंतर देवोंके चैत्यालयोंका स्वरूप ति.प./६/गा.नं./सारार्थ-प्रत्येक जिनेन्द्र प्रासाद आठ मंगल द्रव्योंसे युक्त है।१३। ये दुंदुभी आदिसे मुखरित रहते हैं ।१४। इनमें सिंहासनादि सहित, प्रातिहार्यो सहित, हाथमें चॅवर लिये हुए नाग यक्ष देवयुगलोंसे संयुक्त ऐसी अकृत्रिम जिनप्रतिमाएँ हैं ॥१५॥ ति.प.//गा.न ./सारार्थ- प्रत्येक भवनमें ६ मण्डल हैं। प्रत्येक मण्डलमे
राजांगणके मध्य (मुख्य) प्रासादके उत्तर भागमें सुधर्मा सभा है। इसके उत्तरभागमें जिनभवन है ।११०-२००। देव नगरियोंके बाहर पूर्वादि दिशाओंमे चार वन खण्ड है । प्रत्येकमें एकएक चैत्य वृक्ष है। इस चैत्यवृक्षकी चारों दिशाओमें चार जिनेन्द्र प्रतिमाएँ है ।२३०॥
७. जिन भवनों में रति व कामदेवकी मूर्तियाँ तथा उनका प्रयोजन ह.पु./२६/२-५ अत्रैव कामदेवस्य रतेश्च प्रतिमा व्यधात्। जिनागारे समस्तायाः प्रजायाः कौतुकाय सः ।२। कामदेवरतिप्रेक्षाकौतुकेन जगज्जनाः । जिनायतनमागत्य प्रेक्ष्य तत्प्रतिमाद्वयम् ॥३॥ संविधानकमाकर्ण्य तद् भाद्रकमृगध्वजम् । बहव. प्रतिपद्यन्ते जिनधर्ममहर्दिवस १४ प्रसिद्ध गृहं जैनं कामदेवगृहारख्यया। कौतुकागतलोकस्य जातं जिनमताप्तये ।। - सेठने इसी मन्दिरमें समस्त प्रजाके कौतुकके लिए कामदेव और रतिकी भी मूर्ति बनवायी।२। कामदेव और रतिको देखनेके लिए कौतूहलसे जगतके लोग जिनमन्दिरमें आते हैं और वहाँ स्थापित दोनों प्रतिमाओंको देखकर मृगध्वज केवली और महिषका वृत्तान्त सुनते हैं, जिससे अनेकों पुरुष प्रतिदिन जिनधर्मको प्राप्त होते हैं ।३-४। यह जिनमन्दिर कामदेवके मन्दिरके नामसे प्रसिद्ध है। और कौतुकवश आये हुए लोगों के जिनधर्मकी प्राप्तिका कारण है ।।
८. चैत्यालयों में पुष्पवाटिकाएँ लगानेका विधान ति.प./४/१५७-१५६ का संक्षेपार्थ-उज्जाणेहि सोहदि विविहेहिं जिणि
दपासादो १५७। तस्सि जिणिदपडिमा...१५६। -(भरत क्षेत्रके विजयार्धपर स्थित) जिनेन्द्र प्रासाद विविध प्रकारके उद्यानोंसे शोभायमान है ।१५७। उस जिनमन्दिरमें जिनप्रतिमा विराजमान है ।१५६। सा.ध./२/४० सत्रमप्यनुकम्प्यानां सृजेदनजिघृक्षया । चिकित्साशालवदुष्येन्नेज्यायै वाटिकाद्यपि ।४०। =पाक्षिक श्रावकोंको जीव दयाके कारण औषधालय खोलना चाहिए, उसी प्रकार सदावत शालाएँ व प्याऊ खोलनी चाहिए और जिनपूजाके लिए पुष्पवाटिकाएँ बावड़ी व सरोबर आदि बनवाने में भी हर्ज नहीं है।
४. कल्पवासी देवोंके चैत्यालयोंका स्वरूप ति.प.//गा.नं./सारार्थ-समस्त इन्द्र मन्दिरोंके आगे न्यग्रोध वृक्ष होते है, इनमें एक-एक वृक्ष पृथिवी स्वरूप व पूर्वोक्त जम्बू वृक्षके सदृश होते हैं।४०॥ इनके मूलमे प्रत्येक दिशामें एक एक जिन प्रतिमा होती है ।४०६। सौधर्म मन्दिरको ईशान दिशामें सुधर्मा सभा है 1४०७। उसके भी ईशान दिशामें उपपाद सभा है ।४१०। उसी दिशामें पाण्डुक बन सम्बन्धी जिनभवनके सदृश उत्तम रत्नमय निनेन्द्रप्रासाद है ।४११॥
३. चैत्यालयोंका लोकमें अवस्थान, उनकी संख्या व विस्तार
५. पांडक वनके चैत्यालयका स्वरूप ह.पु./५/३६६-३७२ का संक्षेपार्थ-यह चैत्यालय झरोखा, जाली, झालर,
मणि व घंटियो आदिसे सुशोभित है। प्रत्येक जिनमन्दिरका एक उन्नत प्राकार ( परकोटा) है। उसकी चारों दिशाओं में चार गोपुर द्वार हैं। चैत्यालयकी दशों दिशाओं में १०८,१०८ इस प्रकार कुल १०८० ध्वजाएँ हैं। ये ध्वजाएँ सिंह, हंस आदि दश प्रकारके चिन्होंसे चिन्हित हैं। चैत्यालयोके सामने एक विशाल सभा मण्डप (सुधर्मा सभा) है। आगे नृत्य मण्डप है। उनके आगे स्तूप हैं। उनके आगे चैत्य वृक्ष है। चैत्य वृक्षके नीचे एक महामनोज्ञ पर्यक आसन प्रतिमा विद्यमान है। चैत्यालयसे पूर्व दिशामें जलचर जीवों रहित सरोवर है। (ति.प./४/१८५५-१६३५); (रा.वा./३/१०/१३/१७८/२५), (ज.प./४/ ४६-५३,६६), (ज प./५/१/५६), (त्रि.सा./६८३-१०००) ।
१. देव भवनोंमें चैत्यालयोंका अवस्थान व प्रमाण ति.प. अधि./गा.नं. संक्षेपार्थ-भवनवासीदेवों के ७,७२०००,०० भवनों
की वेदियोंके मध्य में स्थित प्रत्येक कूटपर एक एक जिनेन्द्र भवन है। (३।४३) (त्रि.सा./२०८) रत्नप्रभा पृथिवीमें स्थित व्यन्तरदेवोंके ३०,००० भवनों के मध्य वेदीके ऊपर स्थित कूटोंपर जिनेन्द्र प्रासाद हैं (६।१२) । जम्बूद्वीपमें विजय आदि देवोंके भवन जिनभवनोंसे विभूषित हैं (१८१)। हिमवान पर्वतके १० कूटोंपर व्यन्तरदेवोंके नगर हैं, इनमें जिन भवन है (४।१६५७) । पद्म ह्रदमें कमल पुष्पोंपर जितने देवोंके भवन कहे हैं उतने ही वहीं जिनगृह है (४।१६१२)। महाह्रदमें जितने ही देवीके प्रासाद हैं उतने ही जिनभवन हैं (४।१७२१)। लवण समुद्र में ७२०००+४२०००+२८००० ब्यंतर नगरियाँ है। उनमें जिनमन्दिर है (४।२४५५)। जगत्प्रतरके संख्यात भागमें ३०० योजनों के वर्गका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना व्यन्तर लोकमें जिनपुरों का प्रमाण है (६।१०२)। व्यंतर देवोंके भवनों आदिका अवस्थान व प्रमाण-(दे० व्यंतर/४) ज्योतिष देवोंमें प्रत्येक चन्द्र विमानमें (७।४२); प्रत्येक सूर्यविमानमें (७७१); प्रत्येक ग्रह विमानमें (७।८७); प्रत्येक नक्षत्र विमानमें (७।१०६); प्रत्येक तारा विमानमें (१५३); राहुके विमान में (७।२०४); केतु विमानमें (७५२७५) जिनभवन स्थित हैं। इन चन्द्रादिकोंकी निज निज राशिका जो प्रमाण है उतना ही अपने-अपने नगरों व जिन भवनोंका प्रमाण है (७११४)। इस प्रकार ज्योतिष लोकमें असंरण्यात चैत्यालय
१. मध्य लोकके अन्य चैत्यालयोंका स्वरूप ज.प.//गा.नं. का संक्षेपार्थ-जम्बूद्वीपके सुमेरु सम्बन्धी जिनभवनोंके
समान ही अन्य चार मेरुओंके, कुलपर्वतोंके, वक्षार पर्वतोंके तथा नन्दन वनोके जिनभवनोंका स्वरूप जानना चाहिए ८-१०। इसी प्रकार ही नन्दीश्वर द्वीपमें, कुण्डलवर द्वीपमें और मानुषोत्तर पर्वत व रुचक पर्वतपर भी जिनभवन है। भद्रशाल वनवाले जिनभवनके समान ही उनका तथा नन्दन, सौमनस व पाण्डक बनोंके जिनभवनों का वर्णन जानना चाहिए ।१२०-१२३॥
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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