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चारित्र
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चामुंडराय
२८० श्रवणबेलगोलपर इनके द्वारा स्थापित विशालकाय भगवान बाहुबली की प्रतिमाका नाम गोमटेश्वर पड गया, और इनकी प्रेरणासे आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती द्वारा रचित सिद्धान्त ग्रन्थ का नाम भी गोमट्टसार पड़ गया ( गो क /मू /६६७-६७१), (जे /१/३८६), ती./४/ २७)। आप गगवंशी राजा राजमल्लके मन्त्री थे, तथा एक महान योद्धा भी। आप आचार्य अजितसेनके शिष्य थे तथा स्वयं बहे सि द्वान्तवेत्ता थे। पीछेसे आ. नेभिचन्द्रके भी शिष्य रहे हैं। इन्हींके निमित्त गोमट्टसार ग्रन्थकी रचना हई थी ।निग्न रचनाएँ इनकी अपूर्व देन हैं-वीरमातण्डी (गोमट्टसारकी कन्नड वृत्ति); तत्त्वार्थ राजबार्तिक संग्रह; चारित्रसार; त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित । समय-१. राजा राजमल्ल (विसं. १०३१-१०४०) के समयके अनुसार आपका समय वि.श ११का, पूर्वाध (ईदा०१०-११ आता है। २. बाहबलि चरिन श्लोन ०४३ मे कल्की शक सं ६००(ई. १८१ मे बाहुबनी भगवान्की प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करानेका उल्लेख है । उसके अनुसार भी लगभग सही समय सिद्ध होता है, क्योंकि एक दृष्टि से कलको का राज्य वी नि १०८ मे प्रारम्भ हुआ था । (तो/४/२७) । ३. शक स० ६०० (ई. १७८) में लिखा इनका चामुण्डराय पुराण प्रसिद्ध है । (ती./४/२८)। ४. परन्तु थामस सी राइसके अनुसार इनके द्वारा मैसूर प्रान्त में विल्लाल नामक राज्यवश की स्थापना घरित नहीं हाती क्योंकि उस काअस्तित्व ई. ७१४ में पाया जाता है (जन साहित्य इति /पृ. २६७) । चामुंडराय पुराण-शक स ६०० (ई.६७८) में लिखित चामुंड
राय की एक कृति । (ती /४/२८) (म.पू /प्र. २०) । चार-चारकी संख्या कृति कहलाती है-दे० कृति । चारक्षेत्र-Motuon space (ज.प./प्र १०६) । चारण ऋद्धि-दे० ऋद्धि/४। चारणकट व गुफा-सुमेरु पर्वतके नन्दन आदिक वनोंके दक्षिण
मे स्थित यमदेवका कूट व गुफा-दे० लोक/७ ॥ चारित्र-चारित्र मोक्षमार्गका एक प्रधान अंग है। अभिप्रायके सम्यक् व मिथ्या होनेसे वह सम्यक व मिथ्या हो जाता है। निश्चय, व्यवहार सराग, वीतराग, स्थ, पर आदि भेदोसे वह अनेक प्रकार से निर्दिष्ट किया जाता है, परन्तु वास्तवमे वे सब भेद प्रभेद किसी न 'किसी एक वीतरागता रूप निश्चय चारित्रके पेटमे समा जाते हैं। ज्ञाता द्रष्टा मात्र साक्षीभाव या साम्यताका नाम वीतरागता है। प्रत्येक चारित्रमे उसका अंश अवश्य होता है। उसका सर्वथा लोप होनेपर केवल बाह्य बस्तुओका त्याग आदि चारित्र संज्ञाको प्राप्त नहीं होता। परन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं कि बाह्य बतत्याग आदि बिलकुल निरर्थक है, वह उस वीतरागताके अविनाभावी है तथा पूर्व भूमिका वालों को उसके साधक भी।
सम्यग्चारित्रके अतिचार-दे० व्रत समिति गुप्ति आदि । चारित्र जीरना स्वभाव है, पर संयम नहीं। चारित्र अविगमज ही होता है-दे० अधिगम । | शानके अतिरिक्त सर्व गुण निर्विकल्प है
--दे० गुण/२। चारित्रमे कथंचित् ज्ञानपना-दे० ज्ञान/१२। स्व-पर चारिन अथवा सम्यक् मिथ्याचारित्र नितेश
-भेद निर्देश। स्वपर चारित्रके लक्षण । सम्यक् व मिथ्याचारित्रके लक्षण । निश्चय व्यवहार चारित्र निर्देश (भेद निर्देश)। निश्चय चारित्रका लक्षण १. बाह्याम्गंतर क्रियासे निवृत्ति; २. ज्ञान व दर्शनकी
एकता, ३, साम्यता, ४. स्वरूपमे चरण; ५. स्वात्म
स्थिरता। १२ व्यवहार चारित्रका लक्षण ।
१५ सराग वीतराग चारित्र निर्देश व उनके लक्षण । स्वरूपाचरण व संयमाचरण चारित्र निर्देश ।
-दे० संयम/१ * संयमाचरणके दो मेद-सकल व देश चारित्र
--दे० स्वरूपाचरण स्वरूपाचरण बसम्यक्त्वाचरण चारित्र
-दे० स्वरूपाचरण अधिगत अनधिगत चारित्र निर्देश व लक्षण । २१ क्षायिकादि चारित्र निर्दैश व लक्षण उपशम व क्षायिक चारित्रकी विशेषताएँ--दे० श्रेणी। क्षायोपभिक चारित्रकी विशेषताएँ—दे० संयत। चारित्रमोहनीयकी उपशम व क्षपण विधि
-दे० उपशम क्षय। क्षायिक चारित्रमे भी कथंचित् मलका सद्भाव
-दे० केवली/२/२॥ सामायिकादि चारित्रपचक निर्देश । पांचोंके लक्षण
-दे० वह वह नाम । भक्त प्रत्याख्यान, इगिनी व प्रायोपगमन
-दे० सल्लेखना/३ । अथालन्द व जिनकल्प चारित्र-दे० वह यह नाम ।
चारित्र निर्देश
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चारित्रसामान्य निर्देश चरण व चारित्र सामान्यके लक्षण । चारित्रके एक दो आदि अनेको विकल्प चारित्रके १३ अंग। समिति गुशि व्रत आदिके लक्षण व निर्देश
-दे० वह वह नाम । ५ चारिक्की भावनाएँ।
मोक्षमागेमें चारित्रकी प्रधानता सयम मार्गणामें भाव संयम इष्ट है-दे० मार्गणा। चारित्र ही धर्म है। चारित्र साक्षात् मोक्षका कारण है। चारित्राराधनामें अन्य सब आराधनाएँ, गर्भित हैं रत्नत्रयमें कथंचित् भेद व अभेद-दे० मोक्षमार्ग/३४ । चारित्र सहित ही सम्यक्त्व ज्ञान व तप सार्थक है सम्यक्त्व होनेपर ज्ञान व वैराग्यकी शक्ति अवश्य
प्रगट हो जाती है -दे० सम्यग्दर्शन/I/४ ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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