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चारित्र
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१. चारित्र निर्देश
र. क. श्रा/४६ हिसानृतचौर्येभ्यो मैथुन सेवापरिग्रहाभ्यां च। पाप -
प्रणालिकाभ्यो विरति. संज्ञस्य चारित्रं ४३ = हिसा, असत्य, चोरी, तथा मैथुन सेवा और परिग्रह इन पाँचों पापोकी प्रणालियोसे विरक्त होना चारित्र है । (ध. ६/१,६-१,२२/४०/५), (नि. सा./ता.वृ./५२), (मो. पा/टी./३७,३८/३२८) यो. सा./अ/८/६५ कारणं निवृतेरेतच्चारित्रं व्यवहारतः ।।१५।
बतादिका आचरण करना व्यवहार चारित्र है। पु. सि. उ./३६ चारित्रं भवति यतः समस्तसावद्ययोगपरिहरणात् । सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत् ।३१। -समस्त पापयुक्त मन, बचन, कायके त्यागसे सम्पूर्ण कषायोसे रहित अतएव निर्मल परपदार्थोसे विरक्ततारूप चारित्र होता है। इसलिए वह
चारित्र आत्माका स्वभाव है। भ आ./वि./६/३३/१ एवं स्वाध्यायो ध्यानं च अविर तिप्रमादकषायत्यजनरूपतया। इत्थं चारित्राराधनयोक्तया...। = अविरति, प्रमाद, कषायोका त्याग स्वाध्याय करनेसे तथा ध्यान करनेसे होता है, इस वास्ते वे भी चारित्र रूप हैं। द्र सं./मू./४५ असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं । वद
समिदिगुत्तिरूवववहारणयादु जिण भणियं ।४५। -अशुभ कार्योसे निवृत्त होना और शुभकार्यों में प्रवृत्त होना है, उसको चारित्र जानना चाहिए । व्यवहार नयसे उस चारित्रको व्रत, समिति और गुप्तिस्वरूप कहा है। त. अनु./२७ चेतसा वचसा तन्वा कृतानुमतकारितै । पापक्रियाणां यस्त्याग, सञ्चारित्रमुषन्ति तत् ।२७। मनसे, वचनसे, कायसे, कृत कारित अनुमोदनाके द्वारा जो पापरूप क्रियाओंका त्याग है उसको सम्यग्चारित्र कहते हैं। १३. सराग वीतराग चारित्र निर्देश
५. स्वात्मामें स्थिरता चारित्र है पं. का./मू./१६२ जे चरदिणाणी पेच्छदि अप्पाणं अप्पणा अणण्णमय ।
सो चारित्तं गाणं दंसणमिदि णिच्छिदो होदि ।१६। - जो (आत्मा) अनन्यमय आत्माको आत्मासे आचरता है वह आत्मा ही
चारित्र है। मो. पा./मू./८३ णिच्छयणयस्स एवं अप्पम्मि अप्पणे सुरदो। सो होदि
हु सुचरित्तो जोइ सो लहइ णिव्याणं ।३। -जो आत्मा आत्मा ही विषे आपहीकै अथि भले प्रकार रत होय है। यो योगी ध्यानी मुनि
सम्यग्चारित्रवान् भया संता निर्वाण · पावै है। स. सा./आ./१५५ रागादिपरिहरणं चरणं । = रागादिकका परिहार करना
त्रित्र है । (ध १३/३५८/२) प. प्र./मू./२/३० जाणवि मण्णवि अप्पपरु जो परभाउ चएहि । सो णियसुद्धउ भावडउ णाणिहि चरणु हवेड्।३०। - अपनी आत्माको जानकर व उसका श्रद्धान करके जो परभावको छोड़ता है, वह निजात्माका शुद्धभाव चारित्र होता है। (मो. पा./न./३७) मोक्ष. पचाशत्/मू /४५ निराकुलत्वजं सौरव्य स्वयमेवावतिष्ठतः । यदात्मनैव संवेद्य चारित्रं निश्चयात्मकम् ।४५ =आत्मा द्वारा संवेद्य जो निराकुलताजनक सुख सहज ही आता है, वह निश्चयात्मक
चारित्र है। न. च. वृ./३५४ सामण्णे णियबोहे बियलियपरभावपरमसम्भावे । तत्था
राहणजुत्तो भणिओ खलु सुद्धचारित्ती। = परभावोसे रहित परम स्वभावरूप सामान्य निज बोधमें अर्थात शुद्धचैतन्य स्वभावमें तत्त्वाराधना युक्त होनेवाला शुद्ध चारित्री कहलाता है। यो. सा.अ./८/६५ विविक्तचेतनध्यान जायते परमार्थतः । --निश्चयनयसे विविक्त चेतनध्यान-निश्चय चारित्र मोक्षका कारण है। (प्र.
सा./ता. वृ/२४४/३३६/१७ ) का. अ./7/१९ अप्पसरूवं वत्यु चत्तं रायादिएहिं दोसेहि । सज्झाणम्मि णिलीण त जाणसु उत्तम चरणं हा = रागादि दोषोसे रहित शुभ ध्यानमें लीन आत्मस्वरूप वस्तुको उत्कृष्ट चारित्र जानों नि. सा./ता. वृ./५५ स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपं सहजनिश्चयचारित्रम् ।
-निज स्वरूपमें अविचल स्थितिरूप सहज निश्चय चारित्र है। (नि. सा/ता. वृ/३) प्र.सा./ता. वृ./६/७/१४ आत्माधीनज्ञानसुखस्वभावे शुद्धारमद्रव्ये यनि- श्चलनिर्विकारानुभूतिरूपमवस्थानं, तल्लक्षणनिश्चयचारित्राज्जीवस्य समुत्पद्यते। - आत्माधीन ज्ञान व सुखस्वभावरूप शुद्वात्म द्रव्यमें निश्चल निर्विकार अनुभूतिरूप जो अवस्थान है, वही निश्चय चारित्रका लक्षण है। (स. सा./ता, वृ./३८), (सा.सा./ता.व./१५५), (द्र. सं./टी./४६/११७/८) द्र. सं /टी./१०/१६३/१३ संकल्पविकल्पजालत्यागेन तत्रैव सुखे रतस्य
संतुष्टस्य तृप्तस्यैकाकारपरमसमरसीभावेन द्रवीभूतचित्तस्य पुनः पुनः स्थिरीकरणं सम्यक्चारित्रम् । समस्त संकल्प विकल्पोके त्याग द्वारा, उसी (बीतराग) सुख में सन्तुष्ट तृप्त तथा एकाकार परम समता भावमे द्रवीभूत चित्तका पुन पुन. स्थिर करना सम्यकचारित्र है। (प. प्र./टी./२/३० को उत्थानिका)
१२. व्यवहार चारित्रका लक्षण स./सा./मू./३८६ णिच्चं पञ्चक्रवाणं कुव्वइ णिच्च पडिकम्मदि यो य । णिच्च आलोचेयइ सो हु चारित्तं हवइ चेया 1३८६। =जो सदा प्रत्याख्यान करता है, सदा प्रतिक्रमण करता है और सदा आलोचना
करता है, वह आत्मा वास्तव में चारित्र है ।३८६। भ. आ./मू /8/४५ कायव्यमिणमकाययत्ति णाऊण होइ परिहारो।
-यह करने योग्य कार्य है ऐसा ज्ञान होनेके अनन्तर अकर्तव्यका त्याग करना चारित्र है।
[वह चारित्र अन्य प्रकारसे भी दो भेद रूप कहा जाता हैसराग व वीतराग। शुभोपयोगी साधुका व्रत, समिति, गुप्तिके विकल्पोंरूप चारित्र सराग है, और शुद्धोपयोगी साधुके वीतराग सवेदनरूप ज्ञाता द्रष्टा भाव वीतराग चारित्र है।] १४. सराग चारित्रका लक्षण स, सि./६/१२/३३१/२ संसारकारणविनिवृत्ति प्रत्यागूर्णोऽक्षीणाशयः सराग इत्युच्यते। प्राणीन्द्रियेष्वशुभप्रवृत्तविरतिः संयमः । सरागस्य संयमः सरागो वा संयमः सरागसंयमः । = जो संसारके कारणों के त्यागके प्रति उत्सुक है, परन्तु जिसके मनसे रागके संस्कार नष्ट नहीं हुए हैं, वह सराग कहलाता है। प्राणी और इन्द्रियों के विषयमें अशुभ प्रवृत्तिके त्यागको संयम कहते हैं ।सरागी जीवका संयम सराग है। (रा. वा./६/१२/५-६/५२२/२१) न, च, वृ./३३४ मूलुत्तरसमणण्णुणा धारण कहणं च पंच आयारो। सो ही तहव सणिट्ठा सरायचरिया हवइ एवं ।३३४। -श्रमण जो मूल व उत्तर गुणोंको धारण करता है तथा पंचाचारों का क्थन करता है अर्थात उपदेश आदि देता है, और आठ प्रकारकी शुद्धियोंमें निष्ठ रहता है, वह उसका सराग चारित्र है। द्र. सं./मू./४५/१६४ वीतरागचारित्रस्य साधक सरागचारित्रं प्रतिपाद
यति ।.."असुहादो विणिवत्ती सुहे पवित्तीय जाण चारित्त । बदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणयादु जिणभणियं ।४।-वीतराग चारित्रके परम्परा साधक सराग चारित्रको कहते हैं-जो अशुभ कार्यसे निवृत्त होना और शुभकार्य में प्रवृत्त होना है, उसको चारित्र जानना
चाहिए, व्यवहार नयसे उसको व्रत, समिति, गुप्ति स्वरूप कहा है। प्र. सा./ता.वृ./२३०/३१५/१० तत्रासमर्थः पुरुष'-शुद्धात्मभावना
सहकारिभूतं किमपि प्रासुकाहारज्ञानोपकरणादिकं गृह्णातीत्यपवादो 'व्यवहारनय'एकदेशपरित्यागस्तथा चापहृतसंयमः सरागचारित्रं
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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