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काल
मनुष्य हरिवर्ष के मनुष्योंके समान होते हैं। तदनन्तर क्रमसे हानि होनेपर दो कोहाकोड़ी सागरोपम प्रमाण सुषमध्यमा काल प्राप्त होता है । इसके प्रारम्भ में मनुष्य हैमवतकके मनुष्योंके समान होते हैं । तदनन्तर क्रमसे हानि होकर ब्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागरका दुषमसुषमा काल प्राप्त होता है। इसके प्रारम्भमें मनुष्य विदेह क्षेत्रके मनुष्योंके समान होते हैं। तदनन्तर क्रमसे हानि होकर इक्कीस हजार वर्षका दुष्षमा काल प्राप्त होता है । तदनन्तर क्रमसे हानि होकर इक्कीस हजार वर्ष का अतिदुषमा काल प्राप्त होता है। इसी प्रकार उत्सर्पिणी भी इससे विपरीत क्रमसे जानना चाहिए। (ति.प./ ४/३१७-३१६)
अवसर्पिणीके छह भेदोंमें क्रमसे जीवोंकी वृद्धि होती जाती है
दुस्सममुपवेस्स पढमसम
ति./४/१६१२-२६१३ अक्सप्पिणी यम्मि नियतिदिवणसी वही जीवाण धोवकालम्मि । १६९२० कमसोबत विकासे मनुयतिरियाणमपि संखा तत्तो उस्स夏 पिणिए तिदए टूटंति पुवं वा । १६९३ । = अवसर्पिणी कालमें दुष्यमषमा कालके प्रारम्भिक प्रथम समयमें थोड़े ही समयके भीतर विकलेन्द्रियोंकी उत्पत्ति और जीवोंकी वृद्धि होने लगती है ।१६१२ इस प्रकार क्रमसे तीन कालोंमें मनुष्य और तिच जीवोंकी संख्या बढती ही रहती है। फिर इसके पश्चात उत्सर्पिणीके पहले तीन कालों में भी पहले के समान ही वे जीव वर्तमान रहते हैं । १६१३।
१०. उत्सर्पिणीके छह कालों में जीवोंकी क्रमिक हानि व कल्पवृक्षों की क्रमिक वृद्धि
ति.प./४/१६०८-१६११ उस्सप्पिणीए अज्जाखंडे अदिदुस्समस्स पढमखगे। होति हु परतिरिवाणं जीवा सम्माणि धोवाणि १६०८॥ ततो कमसो बहवा मणुवा तेरिच्छसयल वियलक्खा । उप्पज्जंति हु जाव य दुस्सम समस्स चरिमो त्ति । १६०६। णासंति एक्कसमए वियलक्खा - गिणिकुलभेया तुरिमस्स पचमसमए कप्पतरूणं पि उप्पी १६१० पचिति मधुन तिरिया पेसियमेसा जहणभोगलिर्द । तेतियमेत्ता होति हू तकाले भरहलेसम्म । १६११ - उत्सर्पिणी कालके आर्यखण्डमै अतिदुपमा कालके प्रथम क्षणमें मनुष्य और लिचोंमें से सब जीन थोड़े होते हैं । १६० इसके पश्चात फिर क्रमसे दुष्यमसुषमा कालके अन्त तक बहससे मनुष्य और सकलेन्दिय एवं विकलेन्द्रियतियंच जीव उत्पन्न होते हैं । १६०१। तत्पश्चात् एक समय में विकलेन्द्रिय प्राणियोंके समूह व कुतभेद नष्ट हो जाते है तथा चतुर्थ कालके प्रथम समय में कापवृक्षोंकी भी उत्पत्ति हो जाती है । १६१०१ जितने मनुष्य और तियंच जघन्य भोगभूमि में प्रवेश करते हैं उतने ही इस काल के भीतर भरतक्षेत्र में होते हैं । १६११।
११. युगका प्रारम्भ व उसका क्रम
सि.५ /१/७० साले पाविरुद्ध सहोदरनिनो अभिजस्स पढमजोए जुगस्स आदी इमस्स पुढं 1901 -श्रावण कृष्णा पड़िवाके दिन मुहूर्त के रहते हुए सूर्यका शुभ उदय होनेपर अभिजित् नक्षत्र के प्रथम योग में इस युगका प्रारम्भ हुआ, यह स्पष्ट है। ति.प./०/३३०-३४० आसापुणिमीए जुगणिष्यसी दु साबने किण्हे अभिजिमि चंदजोगे पाडिदिवसम्मि पारंभो ||३०| पणव रिसे दुमणोगं दविखन्तराय उसु च असण आदिचरितं ॥५४७| पल्लस्सासंखभागं दक्खिण अयणस्स होदि परिमाणं । तेत्तियमेत्तं उत्तरअयणं उसुपं च तदुगुणं । ५४८| आषाढ़
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४. उत्सर्पिणी आदि काल निर्देश
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मासकी पूर्णिमाकै दिन पाँच वर्ष प्रमाण युगकी पूर्णता और श्रमणकृष्णा प्रतिपके दिन अभिजित नक्षत्र के साथ चन्द्रमाका योग होनेपर उस युगका प्रारम्भ होता है ।५३०| इस प्रकार उत्सर्पिणीके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तक पाँच परिमित युगों में सूर्योके दक्षिण व उत्तर अयन तथा विषुवोंको ले आना चाहिए । ५४७| दक्षिण अयनका प्रमाण पत्यका असंख्यातवाँ भाग और इतना ही उत्तर अयनका भी प्रमाण है। विषुपोंका प्रमाण इससे दूना है । ५४८
वि. प. ४/१५५८-२३६३ पोक्रमेचा सलिल गरिसंति दिवाणि सत्त सहजगणं यज्जग्गिणिए दडवा भूमी सयला वि सीमता होदि ११६६१ वरिति खीरमेचा खीरज तेसियाणि दिवसाणि खीरजहिं भरिदा सच्छाया होदि सा भूमी | १५५६॥ तत्तो अमिदपयोदा अनिद गरिसंति सतदिवसाणि अनिवेण सितार महिए जाति लिगोमादी | १५६०। ता रसजलवाहा दिव्वरसं परिसंति सत्तदिदिबरसेगा उण्णा रसवंता होंति ते सव्ये १६१ विविहरसो सहिभरिदा घूमी सुरसादपरिषदा होदि ततो सीयशगंध णादित्ता णिस्सर ति णरतिरिया | १६६२ । फलमूलदलप्पहृदि छहिदा खादति मस्तपदी । जग्गा गोधम्मपरा परतिरिया बणपसे । १५६३॥ - उत्सर्पिणी कालके प्रारम्भने सात दिन तक पुष्कर मे खोदक जलको बरसाते हैं, जिससे बज्राग्निसे जली हुई सम्पूर्ण पृथिवी शीतल हो जाती है । ९५५८० क्षीर मेघ उतने हो दिन तक क्षीर जख वर्षा करते हैं, इस प्रकार क्षीर जलसे भरी हुई यह पृथिवी उत्तम कान्तिसे युक्त हो जाती है । १५५१ | इसके पश्चात् सात दिन तक अमृतमेव अमृतको वर्षा करते हैं। इस प्रकार अमृत से अभिषित भूमिपर लतागुण्म इत्यादि उगने लगते हैं । १५६०। उस समय रसमेष सात दिन तक दिव्य रसकी वर्षा करते हैं। इस दिव्य रससे परिपूर्ण वे सम रसवाते हो जाते हैं । १६६११ विविध रसपूर्ण औषधियों से भरी हुई भूमि सुस्वाद परिणत हो जाती है पश्चात् शीतल गन्धको ग्रहण कर वे मनुष्य और तिच गुफाओंसे बाहर निकलते हैं । १५६२| उस समय मनुष्य पशुओं जैसा आचरण करते हुए क्षुधित होकर वृक्षोंके फल मूल व पत्ते बादिको खाते हैं । १६६३।
१२. हुंडावसर्पिणी कालकी विशेषताएँ
सि.प./४/१६१५-१६२३ असंख्यात अवसर्पिणी कालकी शलाकाओंके बीत जानेपर प्रसिद्ध एक हुण्डावसर्पिणी आती है; उसके चिह्न ये हैं - १. इस हुण्डावसर्पिणी काल के भीतर सुषमदुष्षमा कालकी स्थिति में से कुछ कालके अवशिष्ट रहनेपर भी वर्षा आदिक पड़ने लगती है और विकलेन्द्रिय जीमोंकी उत्पत्ति होने लगती है । १६१९६० २. इसके अतिरिक्त इसी कालमे कल्पवृक्षोंका अन्त और कर्मभूमिका व्यापार प्रारम्भ हो जाता है । ३. उस कालमें प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती भी उत्पन्न हो जाते हैं । १६१७१४, चक्रवर्तीका विजय भंग ५. और थोडेसे जीवोंका मोक्ष गमन भी होता है। ६. इसके अतिरिक्त चक्रवर्तीसे की गयी द्विजोंके वंशकी उत्पत्ति भी होती है | १६९८ । ७. दुष्षमसुषमा कालमें ५८ ही शलाका पुरुष होते हैं। ८. और नौवें | पन्द्रहवेंकी बजाय ] से सोलहवें तीर्थंकर तक सात तीने धर्मको उचित होती है | १६१६ (त्रि.सा./८१४) ६. ग्यारह रुद्र और कलहप्रिय नौ नारद होते हैं । १०. तथा इसके अतिरिक्त सातवें, तेईसवें और अन्तिम तीर्थकरके उपसर्ग भी होता है । १६२० ११. तृतीय, चतुर्थ व पंचम कालमें उत्तम धर्मको नष्ट करनेवाले विविध प्रकार के दुष्ट पापिष्ठ कुदेन और कुलिंगी भी दिखने लगते हैं । १२. तथा चाण्डाल, शबर, पाण (श्वपच), पुलिंद, लाहल, और किरात इत्यादि जातियों उत्पन्न होती है। १३. तथा दुषम कालमें ४२ कल्फी व उपकल्की होते हैं। १४. अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूवृद्धि (भूकंप 1 ) और वज्राग्नि आदिका गिरना, इत्यादि विचित्र
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