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ज्ञान
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III सम्यक् व मिथ्या ज्ञान
पं. स./प्रा /१/११७.जाणइं तिकालसहिए दव्वगुणपज्जए बहुब्भेए । पच्चक्रवं
च परोवरवं अणेण णाण त्तिणं विति ।११७ = जिसके द्वारा जीव त्रिकालविषयक सर्व द्रव्य, उनके समस्त गुण और उनकी बहुत भेदवाली पर्यायोंको प्रत्यक्ष और परोक्षरूपसे जानता है. उसे निश्चयसे ज्ञानीजन ज्ञान कहते है । (ध. १/१,१,४/गा ६१/१४४), (पं.त. स./२/ २९३), (गो, जी/मू./२६६/६४८) स. सा/पं.जयचन्द/७४ मिथ्यात्व जानेके बाद उसे विज्ञान कहा जाता __ है। (और भी दे. ज्ञानीका लक्षण) ३. सम्यक् व मिथ्याज्ञान सम्बन्धी शंका-समाधान व समन्वय १. तीनों अज्ञानोंमें कौन-कौन-सा मिथ्यात्व घटित होता है श्लो. वा. ४/१/३१/१३/११८/६ मतौ श्रुते च त्रिविधं मिथ्यात्वं बोद्धव्यं मतेरिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तकत्वनियमाव । श्रुतस्यानिन्द्रियनिमित्तकत्व नियमाइ द्विविधमवधौ संशयाद्विना विपर्ययानध्यवसायाधित्यर्थः। = मतिज्ञान और श्रुतज्ञानमें तोनो प्रकारका मिथ्यात्व ( संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय) समझ लेना चाहिए । क्यों कि मतिज्ञानके निमित्तकारण इन्द्रिय और अनिन्द्रिय हैं ऐसा नियम है तथा श्रुतज्ञानका निमित्त नियमसे अनिन्द्रिय माना गया है। किन्तु अवधिज्ञानमें संशयके बिना केवल विपर्यय व अनध्यवसाय सम्भवते है ( क्योकि यह इन्द्रिय अनिन्द्रियकी अपेक्षा न करके केवल आत्मासे उत्पन्न होता है और संशय ज्ञान इन्द्रिय व अनिन्द्रियके बिना उत्पन्न नही हो सकता।) .. अज्ञान कहनेसे क्या यहाँ ज्ञानका अभाव इष्ट है ध.७/२,१,४४/८४/१० एत्य चोदओ भणदि-अण्णाणमिदि बुत्ते किं णाणस्स अभावो घेप्पदि आहो ण घेप्पदि त्ति । णाइल्लो पक्खो मदिणाणाभावे मदिपुव्वं सुदमि दि कट्टु सुदणाणस्स वि अभावप्पसंगादो। ण चेदं पिताणमभावे सबणाणाणमभावप्पसंगादो। णाणाभावे ण दसणं पि दोण्णमण्णोणाविणाभावादो। णाणदं सणाभावे ण जीवो वि, तस्स तल्लक्खणत्तादो त्ति। ण विदियपक्रवो वि, पडिसेहस्स फलाभावप्पसंगादो त्ति। एत्थ परिहारो बुच्चदे–ण पढमपक्रवदोससंभवो, पसज्जपडिसेहेण एस्थ पओजणाभावा। ण विदियपक्रनुतदोसो वि, अप्पे हितो विदिरित्तासेसदव्वोतु सविहिबहसंठिएसु पडिसेहस्स फलभाबुवलंभादो। किमळं पुण सम्माइट्ठीणाणस्स पडिसेहो ण कीरदे। प्रश्न-अज्ञान कहनेपर क्या ज्ञानका अभाव ग्रहण किया है या नहीं किया है। प्रथम पक्ष तो बन नहीं सकता, क्योंकि मतिज्ञानका अभाव माननेपर ‘मतिपूर्वक ही श्रुत होता है। इसलिए श्रुतज्ञानके अभावका भी प्रसंग आ जायेगा । और ऐसा भी नही माना जा सकता है, क्योंकि, मति और श्रृत दोनों ज्ञानों के अभावमें सभी ज्ञानोके अभावका प्रसंग आ जाता है। ज्ञानके अभावमें दर्शन भी नहीं हो सकता, क्योंकि ज्ञान और दर्शन इन दोनोका अविनाभावी सम्बन्ध है। और ज्ञान और दर्शनके अभावमें जीत्र भी नहीं रहता, क्योंकि जीवका तो ज्ञान और दर्शन ही लक्षण है । दूसरा पक्ष भी स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि, यदि अज्ञान कहनेपर ज्ञानका अभाव न माना जाये तोफिर प्रतिषेधके फलाभावका प्रमग आ जाता है । उत्तर-प्रथम पक्ष में कहे गये दोषको प्रस्तुत पक्ष में सम्भावना नहीं है, क्योकि यहॉपर प्रसज्यप्रतिषेध अर्थात अभाव मात्रसे प्रयोजन नहीं है। दूसरे पक्षमें कहा गया दोष भी नही आता, क्योकि, यहाँ जो अज्ञान शब्दसे ज्ञानका प्रतिषेध किया गया है, उसकी, आत्माको छोड अन्य समीपवर्ती प्रदेश में स्थित समस्त द्रव्योमे स्व व पर
विवेकके अभावरूप सफलता पायी जाती है। अर्थात स्व पर विवेकसे रहित जो पदार्थ ज्ञान होता है उसे हो यहाँ अज्ञान कहा है। प्रश्न-- तो यहाँ सम्यग्दृष्टिके ज्ञानका भी प्रतिषेध क्यो न किया जाय। उत्तर-दे० ज्ञान/III/२/८ ।
३. मिथ्याज्ञानकी अज्ञान संज्ञा कैसे है? ध. १/१.१,४/१४२/४ कथं पुनस्तेऽज्ञानिन इति चेन्न, मिथ्यात्वोदयात्प्रतिभासितेऽपि वस्तुनि संशयविपर्ययानध्यवसायानिवृत्तितरतेषामज्ञानितोक्त. । एवं सति दर्शनावस्थायां ज्ञानाभावः स्यादिति चेन्नैष दोषः, इष्टत्वात ।...एतेन संशयविपर्ययानध्यवसायावस्थासु ज्ञानाभाव. प्रतिपादित. स्यात्, शुद्धनविवक्षाया तत्त्वार्थोपलम्भकं ज्ञानम् । ततो मिथ्यादृष्टयो न ज्ञानिनः । = प्रश्न-यदि सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि दोनों के प्रकाशमे ( ज्ञानसामान्यमे ) समानत पायी जाती है, तो फिर मिथ्यादृष्टि जीव अज्ञानी कैसे हो सकते है। उत्तर-यह शंका ठीक नही है, क्योकि मिथ्यात्वकर्म के उदयसे वस्तुके प्रतिभासित होनेपर भी सशय, विपर य और अनध्यवसायकी निवृत्ति नहीं होनेसे मिथ्याष्टियोको अज्ञानी कहा है। प्रश्न- इस तरह मिथ्यादृष्टियोको अज्ञानी माननेपर दर्शनोपयोगकी अवस्थामें ज्ञानका अभाव प्राप्त हो जायेगा। उत्तर-यह कोई दोष नहीं, क्योकि, दर्शनोपयोगकी अवस्थामे ज्ञानोपयोगका अभाव इष्ट ही है। यहाँ संशय विपर्यय
और अनध्यवसायरूप अवस्थामें ज्ञानका अभाव प्रतिपादित हो जाता है। कारण कि शुद्धनिश्चयनयको विवक्षामे बरतुस्वरूपका 'उपलम्भ करानेवाले धर्मको हो ज्ञान कहा है। अतः मिथ्यादृष्टि जीव ज्ञानी नहीं हो सकते हैं। ध/१७,४५/२२४/३ कध मिच्छादिट्ठिणाणस्स अण्णाणत्तं । णाणक्जाकरणादो। किं णाणकज्जं । णादत्थसद्दहणं । ण ते मिच्छादिलिम्हि अत्यि । तदो णाणमेत्र अणाण, अण्णहा जोबविणासप्पसगा । अवगयदवधम्मणाहसु मिच्छादिद्विम्हि सद्दहणमुवतंभए चे ण, अत्तागमपयत्थसद्दणणविरहियस्स दवधम्मणासु जहठसद्दहणविरोहा । ण च एस ववहारो लोगे अपसिद्धो, पुत्तजमकुणते पुत्ते वि लोगे अपुत्तवहारदसणादो। प्रश्न-मिथ्यादृष्टि जीवों के ज्ञानको अज्ञानपना कैसे कहा । उत्तर-क्यो कि, उनका ज्ञान ज्ञानका कार्य नहीं करता है। प्रश्न-ज्ञानका कार्य क्या है । उत्तर-जाने हुए पदार्थका श्रद्धान करना ज्ञानका कार्य है। इस प्रकारका ज्ञान मिश्यावृष्टि जीवमे पाया नहीं जाता है। इसलिए उनके ज्ञानको ही अज्ञान कहा है। अन्यथा जीवके अभावका प्रसंग प्राप्त होगा। प्रश्न--दयाधर्मको जाननेवाले ज्ञानियों में वर्तमान मिथ्यादृष्टि जीवमें तो श्रद्धान पाया जाता है । उत्तर-नहीं, क्योंकि. दयाधर्म के ज्ञाताओ मे भी, आप्त आगम और पदार्थ के प्रति श्रद्धानसे रहित जीवके यथार्थ श्रद्धानके होनेका विरोध है । ज्ञानका कार्य नहीं करनेपर ज्ञानमे अज्ञानका उपबहार लोकमे अप्रसिद्ध भी नहीं है, क्योकि, पुत्र के कार्यको नहीं करनेवाले पुत्रमें भी लोकके भीतर अपुत्र कहनेका व्यवहार देखा जाता है । (ध.१/१,१,११५/ ३५३/७)।
४. मिथ्याज्ञान क्षायोपशमिक कैसे है?
ध.७/२ १.१५/८६/७ कधं मदिअण्णाणिम्स खवोवस मिया लद्धो । मदिअण्णाणावरणम्स देसघादिफयाणमुदएण मदिअणाणित्तवलं भादो। जदि देसघादिफयाणमुदएण अण्णाणित्तं होदि तो तस्स ओदइयत्तं पसज्जदे। ण, सम्बधादिफद्दयाणमुदयाभावा। कधं पुण खओवसमियत्तं (दे०क्षयोपशम/१ में क्षयोपशमके लक्षण) =प्रश्न-मति अज्ञानी जोबके क्षायोपशामिक लब्धि कैसे मानी जा सकती है। उत्तर- क्योकि, उस जीवके मति अज्ञानावरण कर्मके देशघाती स्पर्धको के उत्पये मति अज्ञानिव पाया जाता है। प्रश्न-यदि
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