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ज्ञान
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IV निश्चय व्यवहार सम्यग्ज्ञान
आस्तिक्य ही परमगुण है। किन्तु परद्रव्यमे वह आस्तिक्य केवल स्वानुभू तिरूप हो अथवा न भी हो। और भी दे ज्ञान/III/२/१ (मिथ्याष्टिका आगमज्ञान अकिंचित्कर
प.प्र./म् /२/८४ बोह णिमित्त सत्थु किल लोइ पढिज्जइ इत्थु । तेण वि मोहु ण जासु बरु सो किं मूढ ण तत्थु ।८४। इस लोकमें नियमसे ज्ञानके निमित्त शास्त्र पढे जाते है परन्तु शास्त्रके पढनेसे भी जिसको
उत्तम ज्ञान नहीं हुआ, वह क्या मूढ नहीं है । है ही। प.प्र/म् २/१९१ धोरु करन्तु वि तवचरणु सयल वि सत्थ मुणंतु । परमसमाहि-विवज्जियउ णवि देवरवइ सिउ संतु १९११- महा दुर्धर तपश्चरण करता हुआ और सब शास्त्रों को जानता हुआ भी, जो परम समाधिसे रहित है वह शान्तरूप शुद्धारमाको नहीं देख सकता। न.च.वृ/२८४ मे उद्धृत "णियदव्व जाणणळू इयर कहियं जिणेहि छदव्यं । तम्हा परछद्दव्वे जाणगभावो ण होइ सण्णाणं!"जिनेन्द्र भगवान्ने निजद्रव्यको जाननेके लिए ही अन्य छह द्रव्योका कथन किया है, अत' मात्र उन पररूप छ' द्रव्योंका जानना सम्यग्ज्ञान नहीं है। आराधनासार/मू/१११, ५४ अति करोतु तप. पालयतु संयमं पठतु सकलशास्त्राणि । यावन्न ध्यायत्यात्मानं तावन्न मोक्षो जिनो भवति १११। सकलशास्त्रसेवितां सूरिसंघानदृढयतु च तपश्चाभ्यस्तु स्फीतयोगम् । चरतु विनयवृत्ति बुध्यतां विश्वतत्त्वं यदि विषयविलास सर्वमेतन्न किचित ।।४।" तप करो, सयम पालो, सकल शास्त्रोंको पढो परन्तु जबतक आत्माको नहीं ध्याता तबतक मोक्ष नहीं होता ।११। सकलशास्त्रों का सेवन करनेमें भले आचार्य संघको दृढ करो, भले हो योगमे दृढ होकर तपका अभ्यास करो, विनयवृत्तिका आचरण करो, विश्वके तत्त्वोको जान जाओ, परन्तु यदि विषय विलास है तो सबका सब अकिचित्कर है ॥५४॥ यो.सा. अ/७/१३ आत्मध्यानरतिज्ञेयं विद्वत्तायाः परं फलम् । अशेषशास्त्रशास्तृत्वं संसारोऽभाषि धीधन' १४३।-- विद्वान् पुरुषोंने आत्मध्यानमें प्रेम होना विद्वत्ताका उत्कृष्ट फल बतलाया है और आत्मध्यानमे प्रेम न होकर केवल अनेक शास्त्रोंको पढ़ लेना संसार कहा है । (प्रसा /त, प्र/२७१) स. सा/आ/२७७ नाचारादिशब्दश्रुतमेकान्तेन ज्ञानस्याश्रयः, तत्सद्भावेऽप्यभव्यानां शुद्धारमाभावेन ज्ञानस्याभावात मात्र आचाररांगादि शब्द श्रुत हो (एकान्तसे ) ज्ञानका आश्रय नहीं है, क्योकि उसके सद्भावमे भी अभव्योंको शुद्धात्माके अभावके कारण ज्ञानका
अभाव है। का. अ/मू/४६६ जो णवि जाणदि अप्पं णाणसरूवं सरीरदी भिण्णं ।
सो णवि जाण दि सत्य आगमपाढं कुणतो वि ।४६६/- जो ज्ञानस्वरूप आत्माको शरीरसे भिन्न नही जानता वह आगमका पठनपाठन करते हुए भी शास्त्रको नहीं जानता। स, सा/ता. वृ/ १०१, पुद्गलपरिणामः... "व्याप्यव्यापकभावेन... न करोति...इति यो जानाति...निर्विकल्पसमाधौ स्थितः सन् स ज्ञानी भवति। न च परिज्ञान मात्रेणेव । - 'आत्मा व्याप्यव्यापकभावसे पुद्गलका परिणाम नहीं करता है' यह बात निर्विकल्प समाधिमें स्थित होकर जो जानता है वह ज्ञानी होता है। परिज्ञान मात्रसे
नहीं। प्र. सा. ता. वृ/२३७ जोवस्यापि परमागमाधारेण सकलपदार्थ ज्ञेया
कारकरावलम्बितविशदे कज्ञानरूपं स्वात्मानं जानतोऽपि ममात्मैवोपादेय इति निश्चयरूपं यदि श्रद्धानं नास्ति तदास्य प्रदीपस्थानीय आगम किं करोति न किमपि । = परमागमके आधारसे, सकलपदार्थोके ज्ञेयाकारसे अवलम्बित विशद एक ज्ञानरूप निजआत्माको जानकर भी यदि मेरी यह आत्मा ही उपादेय है ऐसा निश्चयरूप श्वद्वान न हुआ तो उस जोवको प्रदीपस्थानीय यह आगम भी
क्या करे। पं. ध/उ./४६३ स्वात्मानुभूतिमात्र स्थादास्तिक्यं परमो गुणः । भवेन्मा
वा परद्रध्ये ज्ञानमात्र परत्वतः ।४६३ केवल स्वात्माकी अनुभूतिरूप
२ व्यवहार सम्यग्ज्ञान निर्देश १. व्यवहारज्ञान निश्चयका साधन है तथा इसका
कारण न. च वृ/२६७ ( उद्धृत) उक्तं चान्यत्र ग्रन्थे-दब्बसुयादो भावं तत्तो उहयं हवेइ संवेदं । तत्तो संवित्ती खलु केवलणाणं हवे तत्तो २६७/"-अन्यत्र ग्रन्थमे कहा भी है कि द्रव्य श्रुतके अभ्याससे भाव होते हैं, उससे बाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकारका संवेदन होता है,
उससे शुद्धात्माकी संवित्ति होती है और उससे केवलज्ञान होता है। द्र.सं./टी/४२/१८३/६. तेनैव विकल्परूपव्यवहारज्ञानेन साध्यं निश्चयज्ञानं कथ्यते।-निर्विकल्प तसंवेदनज्ञानमेव निश्चय ज्ञान भण्यते (पृ० १८४६४)। उस विकल्परूप व्यवहार ज्ञानके द्वारा साध्य निश्चय ज्ञानका कथन करते है। निर्विकल्प स्वस वेदन ज्ञानको ही निश्चयज्ञान कहते है। (और भो दे० समयसार)।
२. आगमज्ञानको सम्यग्ज्ञान कहना उपचार है प्र सा/त. प्र/३४ श्रुतं हि तावत्सूत्रम् । तज्ज्ञप्तिहि ज्ञानम् । श्रुतं तु तत्कारणत्वात् ज्ञानत्वेनोपर्यत एव ।"= श्रुत ही सूत्र है। उस (शब्द ब्रह्मरूप सूत्र ) की ज्ञप्ति सो ज्ञान है । श्रुत ( सूत्र) उसका कारण होनेसे ज्ञानके रूपमें उपचारसे ही कहा जाता है। ३. व्यवहारज्ञान प्राप्तिका प्रयोजन स. सा/मू/४१५ जो समयपाहुडमिणं पढिउण अत्थतच्चओ णाउं ।
अत्थे वट्टी चेया सो होही उत्तम सोवरवं ॥४१५॥ ॥ जो आत्मा इस समयप्राभृतको पढकर अर्थ और तत्त्वको जानकर उसके अर्थ मे स्थित होगा, वह उत्तम सौख्यस्वरूप होगा। प्र. सा/मू ८८, १५४, २३२ जो मोहरागदोसो गिहणदि उपलब्भ जोण्हमुबदेस । सो सव्वदुक्खमोक्वं पाव दि अचिरेण कालेण । सम्भावणिबद्धं सव्वसहावं तिहा समक्खादं । जाणदि जो सवियपंण मुहदि सो अण्णद वियम्मि १५४। एयग्गदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स अत्येसु । णिच्छित्ती आगमदो आगम चेट्ठा ततो चेट्ठा ।२३२॥ -जो जिनेन्द्रके उपदेशको प्राप्त करके मोह, राग, द्वेषको हनता है वह अल्पकाल में सर्व दुःखोसे मुक्त होता है ।८८। जो जीव उस अस्तित्वनिष्पन्न तीन प्रकारसे कथित द्रव्यस्वभावको जानता है वह अन्य द्रव्यमें मोहको प्राप्त नहीं होता ।१५४. श्रमण एकाग्रताको प्राप्त होता है, एकाग्रता पदार्थों के निश्चयवानके होती है, निश्चय आगम द्वारा होता है अत' आगममें व्यापार मुख्य है ।२३२॥ प्र. सामू/१२६ कत्सा करणं कम्मं फलं च अप्प त्ति णिच्छिदो समणो । परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्ध'।१२६। - यदि श्रमण कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा है, ऐसा निश्चयवाला होता हुआ अन्य रूप परिणमित न ही हो तो वह शुद्ध आत्माको
उपलब्ध करता है । (प्र. सा/मू/१६०). पं. का/मू/१०३ एवं पवयणसारं पंचत्थियसंगहं वियाणित्ता । जो मुयदि रागदोसे सा गाहदि दुक्खपरिमोक्वं ।१०३।" - इस प्रकार प्रवचनके सारभूत 'पंचास्तिकायसंग्रह' को जानकर जो रागद्वेषको छोडता है वह दुःखसे परिमुक्त होता है। न. च, वृ/२८४ मे उद्धृत-णियदबजाणण? इयरं कहियं जिणेहि छहव्वं ।-निज द्रव्यको जाननेके लिए ही जिनेन्द्र भगवान्ने अन्य छह द्रव्योंका कथन किया है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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