________________
ज्ञान
२५६
ज्ञानका सूचीपत्र
स्वभाव भेदसे ही भेद ज्ञानकी सिद्धि है। संशा लक्षण प्रयोजनकी अपेक्षा अभेदमें भी भेद । परके साथ एकत्वका अभिप्राय-दे० कारक/२ । दो द्रव्योमें अथवा जीत्र व शरीरमें भेद-दे० कारक/२ । निश्चय सम्यग्दर्शन ही भेद शान है।
-दे० सम्यग्दर्शन II/१।
प्रमाण स्वयं प्रमेय भी है। निश्चय व व्यवहार दोनों शान कथंचित् स्वपर
प्रकाशक है। ज्ञानके स्व-प्रकाशकत्वमें हेतु। ज्ञानके पर-प्रकाशकत्वकी सिद्धि । शान व दर्शन दोनों सम्बन्धी स्वपरप्रकाशकत्वमें हेतु
व समन्वय । -दे० दर्शनं (उपयोग)/२। निश्चयसे स्वप्रकाशक और व्यवहारसे परप्रकाशक
कहनेका समन्वय -दे० केवलज्ञान/६ । स्व व पर दोनोंको जाने विना वस्तुका निश्चय ही नही हो सकता-दे० सप्तभंगी/४/१॥ ज्ञानके पाँचों भेदों सम्बन्धी पॉचों ज्ञानोंके लक्षण व विषय --दे० वह वह नाम । शानके पॉचों भेद पर्याय हैं। पाँचों शानोंका अधिगमज व निसर्गजपना।
-दे० अधिगम। २ | पाँचों भेद ज्ञानसामान्यके अंश है।
पॉचोंका ज्ञानसामान्यके अंश होनेमें शंका । मति आदि शान केवलज्ञानके अंश हैं। मति आदिका केवलशानके अंश होनेमें विधि साधक
शंका समाधान। मति आदि शान केवलशानके अंश नहीं हैं। मति आदिका केवलज्ञानके अंश होने व न होनेका
समन्वय। ८ सामान्य ज्ञान केवलज्ञानके बराबर है। ९ | पाँचों शानोंको जाननेका प्रयोजन ।
पांचों शानोंका स्वामित्व । | एक जीवमें युगपत् सम्भव ज्ञान । शान मार्गणामें आयके अनुसार ही व्यय होनेका नियम
-दे० मार्गणा। शानमार्गणामें गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीवसमास आदिके स्वामित्व विषयक २० प्ररूपणाएँ-दे० सत् । शानमार्गणा सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ ।
-दे०वह वह नाम। कौन ज्ञानसे मरकर कहाँ उत्पन्न हो ऐसी गति अगति प्ररूपणा
-दे०जन्म/६॥
सम्यक मिथ्याज्ञान भेद लक्षण सम्यक् व मिथ्याको अपेक्षा शानके भेद । सम्यग्ज्ञानका लक्षण । ( चार अपेक्षाओंसे) । मिथ्याज्ञान सामान्यका लक्षण । श्रुत आदि ज्ञान व अशानोके लक्षण
-दे०वह वह नाम । सम्यक् व मिथ्याज्ञान निर्देश सम्यग्ज्ञानके आठ अगोंका नाम निर्देश । आठ अंगोंके लक्षण आदि ।-दे० वह वह नाम । सम्यग्ज्ञानके अतिचार-दे० आगम/१ ।
सम्यग्ज्ञानकी भावनाएँ। ३ । पाँचों ज्ञानोंमें सम्यक् मिथ्यापनेका नियम । * | शानके साथ सम्यक् विशेषणका सार्थक्य ।
-दे० ज्ञान/I11/१/२ में सम्यग्ज्ञानका लक्षण/२ । सम्यग्ज्ञानमें चारित्रकी सार्थकता-द्रे, चारित्र/२ । सम्यग्दशन पूर्वक ही सम्यग्शान होता है। सम्यग्दर्शन भी कथंचित् शान पूर्वक होता है। सम्यग्दर्शनके साथ सम्यग्ज्ञानकी व्याप्ति है पर शानके साथ सम्यग्दर्शनकी नहीं। सम्यक्त्व हो जानेपर पूर्वका ही मिथ्याशान सम्यक्
हो जाता है। वास्तवमे,शान मिथ्या नहीं होता, मिथ्यात्वके कारण
ही मिथ्या कहलाता है। मिथ्यादृष्टिका शास्त्रज्ञान भी मिथ्या है। मिथ्यादृष्टिका ठीक-ठीक जानना भी मिथ्या है।
-दे० ऊपर नं०८। सम्यग्ज्ञानमें भी कदाचित् संशयादि-दे० नि शंकित । सम्यग्दृष्टिका कुशास्त्रज्ञान भी कथंचित् सम्यक है। सम्यग्दृष्टि ही सम्यक्त्व व मिथ्यात्वको जानता है। भूतार्थ प्रकाशक ही शानका लक्षण है
-दे० ज्ञान/I/१ सम्यग्ज्ञानको ही शात संज्ञा है। मिथ्याशानकी अशान संज्ञा है-दे० अज्ञान/२ । सम्यक् व मिथ्याशानोंकी प्रामाणिकता व अप्रामाणिकता
-दे० प्रमाण/४/२। शाब्दिक सम्यग्शान
-दे० आगम।
१० |
II भेद व अभेद ज्ञान
भेद व अभेद ज्ञान निर्देश भेद ज्ञानका लक्षण । अभेद शानका लक्षण। भेद शानका तात्पर्य षट्कारकी निषेध । भेद ज्ञानका प्रयोजन। -दे० ज्ञान/IV/३/१
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org