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शान
प्र.सं./टी./५/२/२१०/१९१ तस्यैव शुद्धात्मनो निरुपाधिस्वसंवेदनक्षमभेदज्ञानेन मिध्यात्वरागादिपरभावेभ्य पृथक्परिच्छेदनं सम्यग्ज्ञान :उस शुद्धात्माको उपाधिरहित स्वसंवेदनरूप भेदज्ञानद्वारा मिध्यारागादि परभावोसे भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है ।
द्र. सं /टी./४०/१६३/११ तस्यैव सुखस्य समस्त विभावेभ्यः पृथक् परिच्छेदनं सम्यग्ज्ञानम् | उसी (अतीन्द्रिय) सुखका रागादि समस्त विभावोंसे स्वसंवेदन ज्ञानद्वारा भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है । दे० अनुभव /९/२ (स्मसंवेदनका लक्षण)।
३. मिध्याज्ञान सामान्यका लक्षण
स.सि /१/३१/१३७/३ विपर्ययो मिथ्येत्यर्थः । कुतः पुनरेषां विपर्यय' । मिथ्यादर्शनेन सहैकार्थ समयायात् सरजस्ककटुकालाडुगतदुग्ध्वस ('मतिश्रुता विपर्ययश्च ) हस सूत्रमे जाये हुए विपर्यय शब्दका अर्थ मिथ्या है । मति श्रुत व अवधि ये तीनों ज्ञान मिथ्या भी हैं. और सम्यक् भी। प्रश्न- ये विपर्यय क्यों है ? उत्तर - क्योंकि मिथ्यादर्शन के साथ एक आत्मा में इनका समवाय पाया जाता है। जिस प्रकार रज सहित कडवी तू बडी में रखा दूध कडवा हो जाता है उसी प्रकार मिथ्यादर्शनके निमित्तसे ये मिथ्या हो जाते हैं । ( रा. वा./१/३१/१/११/३० ) ।
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श्लो. वा. ४/१/३१/८/१९५ स च सामान्यतो मिथ्याज्ञानमत्रोपवर्ण्यते । किन संगृहीयते सूत्र में विपर्यय शब्द सामान्य रूप से सभी मिथ्याज्ञानो स्वरूप होता हुआ मिथ्याज्ञानके संशय विपर्यय और अनध्यवसाय इन तीन भेदोंके संग्रह करनेके लिए दिया गया है।
घ. १२/४,२,८,१०/२८६/५ बौद्ध-नैयायिक-सांख्य-मीमांसक - चार्वाक - वैशेषिकादिदर्शनरुच्यतुविद ज्ञानं मिथ्याज्ञानम् -
नया
यिक, सांख्य, मीमांसक, चार्वाक और वैशेषिक आदि दर्शनोंकी रुचिसे सम्बद्ध ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाता है ।
न. च. वृ / २३८ ण मुणह वत्थुसहावं अहविवरीयं णिखक्खदो मुणइ । तं इह मिच्छणाणं विवरीयं सम्मरूव खु । २३८ | = जो वस्तुके स्वभावको नहीं पहचानता है अथवा उलटा पहिचानता है या निरपेक्ष पहिचानता है वह मिथ्याज्ञान है। इससे विपरीत सम्यग्ज्ञान होता है ।
नि. सा/ ता. वृ/११ तत्रैवावस्तुनि वस्तुबुद्धिर्मिप्याज्ञानं । अथवा स्वात्मपरिज्ञानविमुखत्वमेव मिध्याज्ञान उसी (अर्हन्तमार्ग से प्रतिकूल मार्ग में ) कही हुई अवस्तुमें वस्तुबुद्धि वह मिथ्याज्ञान है, अथवा निजात्माके परिज्ञानसे विमुखता वही मिथ्याज्ञान है । द्र. सं/ टी / ५ /१४/१० अष्टविकल्पमध्ये मतिश्रुतावधयो मिथ्यात्वोदयवशाद्विपरीताभिनिवेशरूपाण्यज्ञानानि भवन्ति उन आठ प्रकारके ज्ञानमति श्रुत, तथा अवधि ये तीन ज्ञान मिथ्यात्व के उदयसे विपरीत अभिनिवेशरूप अज्ञान होते है ।
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२. सम्यक व मिथ्याज्ञान निर्देश
१. सम्यग्ज्ञानके आठ अंगका नाम निर्देश
सू. आ./२६६ काले विगए उहाले महगाने सहेब हिन पंज अन्य तदुभयं पापाचारी दुअविहो [२०] स्वाध्यायका मनवचन कायसे शास्त्रका विनय, यत्न करना पूजासत्कारादिसे पाठादिक करना, तथा गुरु या शास्त्रका नाम न छिपाना, वर्ण पद वाक्यको शुद्ध पढना, अनेकान्त स्वरूप अर्थ को ठीक ठीक समझना, तथा अर्थको ठीक ठीक समझते हुए पाठादिक शुद्ध पढना इस प्रकार (क्रम से काल, विनय, उपधान, बहुमान, तथा निह्नव, व्यञ्जन शुद्धि, अर्थ
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III सम्यक् मिथ्या ज्ञान
शुद्धि, तदुभय शुद्धि; इन आठ अंगोंका विचार रखकर स्वाध्याय करना मै) ज्ञानाधारके आठ भेद है। (और भी दे० विनय /२/६ (पु. सि. उ. ३६) १
२. सम्यग्ज्ञानकी भावनाएँ
पु. २९/१६ मा सानुप्रेक्षणं परिवर्तन सम्रदेशनं चेति ज्ञातव्या ज्ञानभावना | ६| जैन शास्त्रोंका स्वयं पढना, दूसरों से पूछना, पदार्थ के स्वरूपका चिन्तवन करना, श्लोक आदि कण्ठ करना तथा समीचीन धर्मका उपदेश देना ये पॉच ज्ञानको भावनाएँ जाननी चाहिए।
नोट- (इन्हीं त.सू./६/२४ मे स्वाध्याय के भेद कहकर गिनाया है।)
३. पाँचों ज्ञानों में सम्यग्मिथ्यापनेका नियम त.सू./१/१,११ मतिभूताधिमनः पर्वतानि ज्ञानम्
मतिश्रुता विपर्ययश्च ॥ ३१॥ मति श्रुत अवधि मनपर्यय व केवल ये पाँच ज्ञान हैं। इनमें से मति श्रुत और अवधि ये तीन मिथ्या भी होते है और सम्यक भी शेष दो सम्यक ही होते है | ११ | स्लोवा./४/१/३१/३-१०/११४ मादयः समाख्यातास्तएवेत्यवधा रणात् गृह्यते कदाचिन्न मन परयकेवले ॥३॥ नियमेन तयोः सम्यग्भावनिर्णयत सदा । मिथ्यात्व कारणाभावाद्विशुद्धात्मनि सम्भवाद 181 मताविज्ञान किं तु स्यात्कदाचन। मिथ्येति ते व निर्दिष्टा विपर्यय इहाङ्गिनाम् || समुच्चिनोति चस्तेषां सम्यक्त्वं व्यवहारिक मुख्यं तदनुक्ती तु तेषां मिध्यात्वमेव हि ते विपर्यय एवेति सूत्रे चेन्नावधार्यते । चशब्दमन्तरेणापि सदा सम्यवत्वमत्वतः | १०|-मति आदि तीन ज्ञान ही मिथ्या रूप होते है: मनःपर्यय व केवलज्ञान नहीं, ऐसी सूचना देनेके लिए ही सूत्र में अवधारणार्थ 'च' शब्दका प्रयोग किया है 1३1 - वे दोनो ज्ञान नियम से सम्प ही होते हैं, क्योंकि मिध्यात्व के कारणभूत मोहनीयकर्मका अभाव होनेसे विशुद्धात्मामें ही सम्भव है |४| मति, श्रुत व अवधि ये तोन ज्ञान तो कभी कभी मिथ्या हो जाते है। इसी कारण सूत्रमे उन्हें विपर्यय भी कहा है 191 'च' शब्द से ऐसा भी संग्रह हो जाता है कि यद्यपि मिध्यादृहिके भी मति आदि ज्ञान व्यवहारमें समीचीन कहे जाते है, परन्तु मुख्यरूपसे तो वे मिथ्या ही हैं | यदि सूत्रमें च शब्दका ग्रहण न किया जाता तो वे तीनों भी सदा सम्यकरूप समझे जा सकते वे विपर्यय और इन दोनो शब्दोंसे उनके मिथ्यापकी भी सूचना मिलती है | १०|
४. सम्यग्दर्शन पूर्वक हो सम्यग्ज्ञान होता है
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रसा./४७ सम्भविणा सण्णानं सच्चारित न होइ नियमेण सम्यग्दर्शनके बिना सम्यग्ज्ञान व सम्यचारित्र नियमसे नहीं होते हैं। स.सि / २ /१/७/२ कथमम्यहि हानस्य सम्यग्व्यपदेशहेतुत्वाद कथमभ्यर्हितत्वं । प्रश्न- सम्यग्दर्शन पूज्य क्यो है उत्तर- क्योकि सम्यग्दर्शनसे ज्ञानमें समीचीनता आती है। (पं. घ. / इ./७६७) । .सि./२९.३२त्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखितयत्नेन तस्मि सत्येव यतो भवति ज्ञानं चारित्रं च । २१। पृथगाराधनमिष्टं दर्शनसहभाविनोऽपि बोधस्य लक्षणभेदेन यतो नानाखं संभवरपनयो । ३२ = इन तीनों दर्शन ज्ञान चारित्रमें पहिले समस्त प्रकार के उपायोंसे सम्यग्दर्शन भलेप्रकार अंगीकार करना चाहिए, क्योंकि इसके अस्तित्व में ही सम्यग्ज्ञान और सम्यग्वारित्र होता है ॥२१॥ यद्यपि सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान ये दोनों एक साथ उत्पन्न होते हैं, तथापि इनमें लक्षण भेदसे पृथक्ता सम्भव है ॥ ३२ ॥
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