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ज्ञान
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Iज्ञान सामान्य
इसलिए इन्द्रियोंसे ज्ञानको उत्पत्ति मान लेनेपर उनसे जीवकी भी उत्पत्तिका प्रसंग प्राप्त होता है। प्रश्न-यदि यह प्रसंग प्राप्त होता है तो होओ। उत्तर-नहीं; क्योंकि अनेकान्तात्मक जात्यन्तर भावको प्राप्त और ज्ञानदर्शन लक्षणवाले जीवमें एकान्तवादियोद्वारा माने गये सर्वथा उत्पाद व्यय व ध्र वत्वका अभाव है।
जीव होते हैं । (मू.आ./२२८ ) (पं.का /मू./४१); (रा.बा./६/७/११/ ६०४/८) (द्र.सं./टो./४२) ।
२. प्रत्यक्ष परोक्षकी अपेक्षा भेद ध. १/१,९,११६/पृ./पं. तदपि ज्ञानं द्विविधम् प्रत्यक्ष परोक्षमिति । परोक्ष द्विविधम, मतिः श्रुतमिति । (३५३/१२) । प्रत्यक्षं त्रिविधम्, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञानं, केवलज्ञानमिति । (१५८५१) १४ वह ज्ञान दो प्रकारका है-प्रत्यक्ष और परोक्ष । परोक्षके दो भेद हैं-मतिज्ञान व श्रुतज्ञान । प्रत्यक्षके तीन भेद हैं-अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान । (विशेष देखो प्रमाण/१ तथा प्रत्यक्ष व परोक्ष)।
३. निक्षेपोंकी अपेक्षा भेद घ.९/४,१,४५/१८४/७ णामट्ठवणादव्यभावभेएण चविहं णाणं ।-नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे ज्ञान चार प्रकारका है-(विशेष दे०निक्षेप। ४. विभिन्न अपेक्षाओंसे मेद रा.वा./१/६/५/३४/२६ चैतन्यशक्तविकारौ ज्ञानाकारो ज्ञेयाकारश्च । रा.वा./२/५/१४/४१/२ सामान्यादेकं ज्ञानम् प्रत्यक्षपरोक्षभेदार द्विधा. द्रव्यगुणपर्यायविषयभेदाद विधा नामादिविकल्पाच्चतुर्धा, मत्यादिभेदात् पञ्चधा इत्येवं संख्येयासंख्येयानन्तविकल्पं च भवति ज्ञेयाकारपरिणतिभेदात्। -चैतन्य शक्तिके दो आकार हैं-ज्ञानाकार और झेयाकार ।...सामान्यरूपसे ज्ञान एक है, प्रत्यक्ष व परोक्षके भेदसे दो प्रकारका है, द्रव्य गुण पर्याय रूप विषयभेदसे तीन प्रकारका है। नामादि निक्षेपोंके भेदसे चार प्रकारका है। मति आदिकी अपेक्षा पाँच प्रकारका है। इस प्रकार ज्ञेयाकार परिणतिके भेदसे संख्यात असंख्यात व अनन्त विकल्प होते हैं। द्र.सं./टी./४२/१८३/५ संक्षेपेण हेयोपादेयभेदेन द्विधा व्यवहारज्ञानमिति । संक्षेपसे हेय व उपादेय भेदोंसे व्यवहार झान दो प्रकारका है।
३. ज्ञानका स्वपर प्रकाशकपना
.. स्वपर प्रकाशकपनेकी अपेक्षा ज्ञानका लक्षण प्र.सा/त.प्र/१२४ स्वपरविभागेनावस्थिते विश्वं विकल्पस्तदाकाराव
भासनं । यस्तु मुकुरुहृदयाभाग इव युगपदवभासमानस्वपराकारार्थविकल्पस्तन ज्ञान -स्वपरके विभागपूर्वक अवस्थित विश्व 'अर्थ' है। उसके आकारोंका अवभासन 'विकल्प' है। और दर्पणके निजविस्तारको भाँति जिसमें एक ही साथ स्व-पराकार अवभासित होते हैं, ऐसा अर्थ विकल्प 'ज्ञान' है । (पं.ध/पू/५४१) (पं.ध/उ./३६१, ८३७)।
२. स्वपर प्रकाशक ज्ञान ही प्रमाण है स.सि/१/१०/६८/४ यथा घटादीनां प्रकाशने प्रदीपो हेतुः स्वस्वरूपप्रका
शनेऽपि स एव, न प्रकाशान्तरं मृग्य तथा प्रमाणमपीति अवश्य चैतदभ्युपगन्तव्यम् । जिस प्रकार घटादि पदार्थोके प्रकाश करने में दीपक हेतु है, और अपने स्वरूपके प्रकाश करने में भी वही हेतु है. इसके लिए प्रकाशान्तर नहीं ढूंढना पड़ता। उसी प्रकार प्रमाण भी
है, यह बात अवश्य मान लेनी चाहिए । (रा.वा/१/१०/२/१६/२३)। . प.मु/१/१ स्वापूर्थिव्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाण /१/-स्व व अपूर्व (पहिलेसे जिसका निश्चय न हो ऐसे ) पदार्थ का निश्चय करानेवाला
ज्ञान प्रमाण है। (सि.वि/म१/३/१२) । प्रमाणनयतत्त्वालोकालं कार-स्वपरव्यवसायि ज्ञान प्रमाणम् । स्व-पर
व्यवसायी ज्ञानको प्रमाण कहते है। न.दी/१/६२८/२२ तस्मात्स्वपरावभासनसमर्थ सविकल्पकमगृहीतग्राहक
सम्यग्ज्ञानमेवाज्ञानमर्थे निवर्त यत्प्रमाणमित्याहतं मतम् । अत. यही निष्कर्ष निकला कि अपने तथा परका प्रकाश करनेवाला सविकल्पक और अपूर्वार्थ ग्राही सम्यग्ज्ञान ही पदार्थोंके अज्ञानको दूर करनेमें समर्थ है। इसलिए वही पमाण है। इस तरह जैन मत सिद्ध हुआ।
३. प्रमाण स्वयं प्रमेय भी है ग.वा./१/१०/१३/५०/३२ तत' सिद्धमेतत -- प्रमेयम् नियमात प्रमेयम्, प्रमाणं तु स्यात्प्रमाणं स्यात्प्रमेयम् इति।= निष्कर्ष यह है कि 'प्रमेय' नियमसे प्रमेय ही है, किन्तु 'प्रमाण' प्रमाण भी है और प्रमेय भी। विशेष दे० प्रमाण ४. निश्चय व व्यवहार दोनों ज्ञान कथंचित् स्वपर प्रकाशक हैं नि.सा/ता.वृ/१५६ अत्र ज्ञानिन. स्वपरस्वरूपप्रकाशकत्वं कथं चिदुक्तम् । ...पराश्रितो व्यवहारः इति वचनात् ।. ज्ञानस्य धर्मोऽयं तावत् स्वपरप्रकाशकत्वं प्रदीपवद । घटादिप्रमिते. प्रकाशो दीपस्तावद्भिन्नावपि स्वयं प्रकाशस्वरूपत्वात स्वं परं च प्रकाशयति । आत्मापि व्यवहारेण जगत्त्रयं कालत्रयं च परं ज्योति.स्वरूपत्वात स्वयंप्रकाशात्मकमात्मानं च प्रकाशयति । अथ निश्चयपक्षेऽपि स्वपरप्रकाशकत्वमस्त्येवेति सततनिरुपरागनिरंजनस्वभावनिरतत्वात् स्वाश्रितो निश्चय. इति वचनाद । सहजज्ञानं तावत आत्मन' सकाशात संज्ञालक्षणप्रयोजनेन भिन्नाभिधानलक्षणलक्षितमपि भिन्नं भवति न वस्तुवृत्त्या चेति । अतः कारणात एतदात्मगतदर्शनसुखचारित्रादिक
२. ज्ञान निर्देश
१. ज्ञानकी सत्ता इन्द्रियोंसे निरपेक्ष है क.पा/१/१,१/६३४/४६/४ करणजणिदत्तादो णेदं णाणं केवलणाणमिदि
चे; ण; करणवावारादो पुव्वं णाणाभावेण जीवाभावप्पसंगादो । अत्थि तत्थणाणसामण्ण' ण णाणविसेसो तेण जीवाभावो ण होदि ति चेण; तब्भावलक्रवणसामण्णादो पुधभुदणाणविसेसाणुवलं भादो । - प्रश्नइन्द्रियोस उत्पन्न होनेके कारण मतिज्ञान आदिको केवलज्ञान (के अंश --दे० आगे ज्ञान /I/8/) नहीं कहा जा सकता ? उत्तर-नहीं, क्योंकि यदि ज्ञान इन्द्रियोंसे ही पैदा होता है, ऐसा मान लिया जाये, तो इन्द्रिय व्यापारके पहिले जीवके गुणस्वरूप ज्ञानका अभाव हो जानेसे गुणी जीवके भी अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। प्रश्न-इन्द्रिय व्यापारके पहिले जीवमें ज्ञानसामान्य रहता है, ज्ञानविशेष नहीं, अत. जीवका अभाव नहीं प्राप्त होता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, तद्भावलक्षण सामान्य से अर्थात् ज्ञानसामान्यसे ज्ञान विशेष पृथग्भूत
नहीं पाया जाता है। क.पा/१/१-१/१४/३ जीवदव्वस्स इंदिएहितो उप्पत्ती मा होउ णाम, किंतु
तत्तो णाणमुप्पज्जदि त्ति चे; ण; जोववदिरित्तणाणाभावेण जीवस्स वि उप्पत्तिप्पसंगादो । होदु च, ण: अणेयंतप्पयस्य जीवदव्वस्स पत्तजच्चंतरभावस्स णाणदसणलक्रवणस्स एअंतवाइविसईकय-उप्पायवयधुत्ताणमभावादो।-प्रश्न-इन्द्रियोसे जीव द्रव्यकी उत्पत्ति मत होओ, किन्तु उनसे ज्ञानको उत्पत्ति होती है, यह अवश्य मान्य है। उत्तर-नहीं, क्योकि, जीवसे अतिरिक्त ज्ञान नहीं पाया जाता है,
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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