________________
२५०
२. गुप्ति निर्देश द्रव्यान्तरसे द्रव्यान्तरमें परिणाम हो नहीं सकता। और इस प्रकार गरोद्गारो गिरः सविकथादरः। हंकारादिक्रिया वा स्याद्वारगुप्तेकायकी क्रियासे निवृत्ति हो जानेसे आत्माको कायगुप्ति हो जाती स्तद्वदत्ययः ।१६०।- (मनोगुप्तिका स्वरूप पहिले तीन प्रकारसे बताया है, परन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेसे तो जा चुका है-रागादिकके त्यागरूप, समय या शास्त्रके अभ्यासरूप, सम्पूर्ण आत्माओंमे कायगुप्ति माननी पड़ेगी ( क्योंकि सभीमें शरीर और तीसरा समीचीन ध्यानरूप। इन्हीं तीन प्रकारोंको ध्यानमें की परिणति होनी सम्मव नहीं है ) उत्तर-यहाँ शरीर सम्बन्धी जो रखकर यहाँ मनोगुप्तिके क्रमसे तीन प्रकारके अतिचार बताये गये क्रिया होती है उसको 'काय' कहना चाहिए। (शरीरको नहीं)।
हैं। )-रागद्वेषादिरूप कषाय व मोह रूप परिणामों में वर्तन, इस क्रियाको कारणभूत जो आत्माकी क्रिया (या परिस्पन्दन या
शब्दार्थज्ञानकी विपरीतता, आर्त रौद्र थ्यान ।१६। चेष्टा) होती है उसको कायक्रिया कहना चाहिए ऐसी क्रियासे
(पहिले वचनगुप्तिके दो लक्षण बताये हैं-दुर्वचनका त्याग व मौन निवृत्ति होना यह कायगुप्ति है । प्रश्न-कायोत्सर्गको कायगुप्ति कहा
धारण । यहाँ उन्हींकी अपेक्षा वचनगुप्तिके दो प्रकारसे अतिचार गया है । उत्तर-तहाँ शरीरगत ममताका परिहार कायगुप्ति है ऐसा समझना चाहिए । शरीरका त्याग नहीं, क्योंकि आयुकी शृंखलासे
बताये गये है)-भाषासमितिके प्रकरणमें बताये गये कर्कशादि जकड़े हुए शरीरका त्याग करना शक्य न होनेसे इस प्रकार कायोत्सर्ग
वचनों का उच्चारण अथवा विकथा करना यह पहिला अतिचार है। ही असम्भव है। यहाँ गुप्ति शब्दका निवृत्ति' ऐसा अर्थ सूत्रकारको
और मुरवसे हुंकारादिके द्वारा अथवा खकार करके यद्वा हाथ और इष्ट है। प्रश्न-कायोत्सर्गमें शरीरकी जो निश्चलता होती है उसे
भृकुटिचालन क्रियाओंके द्वारा इङ्गित करना दूसरा अतिचार कायगुप्ति कहें तो ? उत्तर-तो गाथामें "कायकी क्रियासे निवृत्ति"
है।१६० ऐसा कहना निष्फल हो जायेगा। प्रश्न कायोत्सर्ग ही कायगुप्ति है ऐसा
* व्यवहार व निश्चय गुप्तिमें आस्रव व संवरके अंश कहें तो 1 उत्तर-नहीं, क्योंकि, शरीर विषयक ममत्व रहितपनाकी दे० संबर /२। अपेक्षासे कायोत्सर्ग ( शब्द ) की प्रवृत्ति होती है। यदि इतना (मात्र
२. सम्यग्गुप्ति ही गुप्ति है ममतारहितपना) ही अर्थ कायगुप्तिका माना जायगा तो भागना, जाना, कूदना आदि क्रियायों में प्राणीको भी कायगुप्ति माननी पड़ेगी पू.सि.उ./२०२ सम्यग्दण्डो वपुषः सम्यग्दण्डस्तथा च वचनस्य। मनसः (क्योंकि उन क्रियाओंको करते समय कायके प्रति ममत्व नहीं होता सम्यग्दण्डो गुप्तीनां त्रितयमेव गम्यम् । शरीरका भले प्रकारहै। प्रश्न-तब 'शरीरको क्रियाका त्याग करना कायगुप्ति है ऐसा पाप कार्योसे वश करना तथा वचनका भले प्रकार अवरोध करना, मान लें उत्तर-नहीं, क्योंकि, ऐसा माननेसे मूच्छित व अचेत
और मनका सम्यकतया निरोध करना. इन तीनों गुप्तियों को जानना व्यक्तिको भी कायगुप्ति माननी पड़ेगी। प्रश्न-(तम काय गुप्ति चाहिए । अर्थात् ख्याति लाभ पूजादिकी वांछाके बिना मनवचनकिसे कहें :) उत्तर-व्यभिचार निवृत्ति के लिए दोनों रूप ही काय- कायकी स्वेच्छाओं का निरोध करना ही व्यवहार गुप्ति कहलाती है। गुप्ति मानना चाहिए-कर्मादानकी निमित्तभूत सकल कायकी क्रियासे (भ.आ/वि/११५/२६६/२०) निवृत्तिको तथा साथ साथ कायगत ममताके स्यागको भी।
३. प्रवृत्तिके निग्रहके अर्थ ही गुप्तिका ग्रहण है २. गुप्ति निर्देश
स.सि/६/६/४१२/२ किमर्थमिदमुच्यते। आद्य प्रवृत्तिनिग्रहार्थव ।
-प्रश्न-यह किसलिए कहा है । उत्तर-संवरका प्रथम कारण (गुप्ति) १. मन वचन कायगुप्तिके अतिचार
प्रवृत्तिका निग्रह करनेके लिए कहा है । (रा.वा/६/६/१/५६६/१८) भ.आ./वि./१६/६२/१० असमाहितचित्ततया कायक्रियानिवृत्तिः कायगु- ४. वास्तव में आत्मसमाधिका नाम ही गति है प्तेरतिचारः। एकपादादिस्थानं वा जनसंचरणदेशे, अशुभध्यानाभिनि
प.प्र/मू/२/३८ अच्छइ जित्तउ कालु मुणि अप्प-सरूवि णिलीणु । संवर विष्टस्य वा निश्चलता । आप्ताभासप्रतिबिम्बाभिमुखतावातदाराधना
णिज्जर जाणि तुहुँ सयल-वियप्प विहीणु ॥३८॥ व्यापृत इवावस्थानं । सचित्तभूमौ संपतत्सु समंततः अशेषेषु महति
प्र.प/टी/१/१५/ निश्चयेन परमाराध्यत्वाद्वीतरागनिर्विकल्पत्रिगुप्तपरमवा वाते हरितेषु रोषाद्वा दत्तूष्णी अवस्था निश्चला स्थिति. कायो
समाधिकाले स्वशुद्धात्मस्वभाव एव देव इति । १. मुनिराज जगतक त्सर्गः। कायगुप्तिरित्यस्मिन्पले शरीरममताया अपरित्यागः कायो
शुद्धात्मस्वरूपमें लीन हुआ रहता है उस समय हे शिष्य ! तू समस्त त्सर्गदोषो वा कायगुप्तेरतिचारः । रागादिसहिता स्वाध्याये वृत्तिर्म
विकल्प समूहोंसे रहित उस मुनिको संवर निर्जरा स्वरूप जान नोगुप्तेरतिचारः । मनकी एकाग्र ताके बिना शरीरकी चेष्टाएँ बन्द
1३८२. निश्चयनयकर परम आराधने योग्य वीतराग निर्विकल्प करना कायगुप्तिका अतिचार है। जहाँ लोक भ्रमण करते हैं ऐसे त्रिगुप्तिगुप्त परमसमाधिकालमें निज शुद्धात्मस्वभाव ही देव है। स्थानमें एक पाँव ऊपर कर खड़े रहना, एक हाथ ऊपर कर खड़े
५. मनोगुप्ति व शौच धर्ममें अन्तर रहना, मनमें अशुभ संकल्प करते हुए अनिश्चल रहना, आप्ताभास
रा.वा/8/4/१६५/३० स्यादेतत्-मनोगुप्तौ शौचमन्तर्भवतीति पृथगस्य हरिहरादिककी प्रतिमाके सामने मानो उसकी आराधना ही कर रहे हों इस ढंगसे खड़े रहना या बैठना । सचित्त जमीनपर जहाँ कि
ग्रहणमनर्थ कमिति; तन्नः किं कारणम् । तत्र मानसपरिस्पन्दप्रति
षेधात् । तत्रासमर्थेषु परकीयेषु वस्तुषु अनिष्टप्रणिधानोपरमार्थबोज अंकुरादिक पड़े हैं ऐसे स्थलपर रोषसे, वा दर्पसे निश्चल बैठना अथवा खड़े रहना, ये कायगुप्तिके अतिचार है। कायोत्सर्गको भी
मिदमुच्यते । = प्रश्न-मनोगुप्तिमें ही शौच धर्मका अन्तर्भाव हो गुप्ति कहते हैं, अतः शरीरममताका त्याग न करना, किंवा कायो
जाता है, अतः इसका पृथक् ग्रहण करना अनर्थक है। उत्तर-नहीं, त्सर्गके दोषोंको (दे० व्युत्सर्ग/१) न त्यागना ये भी कायगुप्तिके
क्योंकि, मनोगुप्तिमें मनके व्यापारका सर्वथा निरोध किया जाता अतिचार हैं। (अन.ध/४/१६१)
है । जो पूर्ण मनोनिग्रहमें असमर्थ हैं । पर-वस्तुओं सम्बन्धी अनिष्ट रागादिक विकार सहित स्वाध्यायमें प्रवृत्त होना, मनोगुप्तिके अति
विचारों को शान्तिके लिए शौच धर्मका उपदेश है। चार हैं।
६. गुप्ति समिति व दशधर्ममें अन्तर अन. घ/४/१५६-१६० रागाद्यनुवृत्तिा शब्दार्थज्ञानवैपरीत्य वा। स.सि/६/६/४१२/२ किमर्थमिदमुच्यते । आद्य ( गुप्तादि ) प्रवृत्तिनिग्रहादुष्प्रणिधानं वा स्यान्मलो यथास्वं मनोगुप्तेः ।१५। कर्कश्यादि- र्थम् । तत्रासमर्थानां प्रवृत्त्युपायप्रदर्शनार्थ द्वितीयम् ( एषणादि ) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org