________________
गणित
२३१
II गणित (प्रक्रियाएँ)
अपने अपने योग्य अन्तर्महत के जेते समय होइ तितना गुणहानिका आयाम जानना । यथा
६. मिश्रित श्रेणी व्यवहारकी प्रक्रियाएँ जैसे a+(a+d)rt(a+2d):-...
{+(1-1)dan-1 T. =(4r.T.),"-1
गुणहानि न०
गुणहानि आयाम
समय
७. द्वीप समुद्रोंमें चन्द्र-सूर्यादिका प्रमाण निकालनेकी प्रक्रिया
५१२ ४८०
२४०
४४८
२०८
Home Rd.
३८४ ३५२ ३२० २८८
१४४
सर्व द्रव्य
| ३२०० १६००
।
८००
४००
२००
१००
|
चय३२ । १६ । ८
४
२
१
(ध.६/१६-६,६/९५४); (गो जी /भाषा/५/१५८)
ज.प./१२/१४-६१ मध्य लोकमे एक द्वीप व एक सागरके क्रमसे जम्बूद्वीप व लवणसागरसे लेकर स्वयंभूरमण द्वीप व स्वयंभूरमण सागर पर्यत असरल्यात द्वीप सागर स्थित है। अगला अगला द्वीप या सागर पिछले पिछलेकी अपेक्षा दूने दूने विस्तारवाला है।
तहाँ प्रथम ही अढाई द्वीपके पाँच स्थानोमे तो २,४,१२,४२ व ७२ चन्द्र व इतने ही सूर्य है। इससे आगे अर्थात मानुषोत्तर पर्वतके परभागमे स्वयंभूरमण सागर पर्यंत प्रत्येक द्वीप व सागर में चन्द्र व सूर्योके अनेकों अनेको वलय है। प्रत्येक वलयमें अनेको चन्द्र व सूर्य है। सर्वत्र सूर्यों की सख्या चन्द्रों के समान है।
तहाँ आदि स्थान अर्थात पुष्कराध द्वीपमे आधा द्वीप होनेके कारण १६ के आधे ८ वलय है परन्तु इससे आगे अन्त पर्यंत १६ के दुगुने, चौगुने आदि क्रमसे वृद्धि गत होते गये हैं। अर्थात पूर्वोक्त श्रेणी नं०२ (देरखो गणित 10/५/३) के अनुसार गुणन क्रमसे वृद्धिगत है। यहाँ गुणकार २ है।
तहाँ भी प्रत्येक द्वीप या सागरके प्रथम बलयमें अपनेसे पूर्व द्वीप या सागरके प्रथम वलयसे दुने दूने चन्द्र होते है। तत्पश्चात् उसीके अन्तिम बलय पर्यत ४ चयरूप वृद्धि क्रमसे वृद्धिगत होते गये है। तिनका प्रमाण निकालने सम्बन्धी प्रक्रियाएं -
पूष्करार्ध द्वीपके ८ वलयोंके कुल चन्द्र तो क्यों कि १५४, १४८, १५२ "इस प्रकार केवल संकलन व्यवहार श्रेढोके अनुसार वृद्धिगत हए है अत: तहाँ उसी सम्बन्धी प्रक्रियाका प्रयोग किया गया है। अर्थात--
२. गुणहानि सिद्धान्त विषयक शब्दोंका परिचय
सर्वधन - [{ गच्छ-१४ चय } + मुख गच्छ
-[{१४४ } +rad] x ८ = ९२६४
परन्तु शेष द्वीप समुद्रोमें आदि (मुरब ) व गच्छ उत्तरोत्तर दुगुने दुगुने होते है और चय सर्वत्र चार है। इस प्रकार संकलच व्यवहार और श्रेणी व्यवहार दोनोंका प्रयोग किया गया है। (विशेष देखो यहाँ हो अर्थात् ग्रन्थमे ही)
प्रमाण-१. (गो.जी./भाषा/५६/१५५/१२); २. (गो.क./भाषा/१२२/११०५);
३. (गो.क /भाषा/६५५/११८१), ४. (गो.क /भाषा/१०५-६०६/१०८२); ५ (ल.सा/जी प्र/४३/७७)। प्रमाण नं० १. प्रथम गुणहानि-अपनी अपनी द्वितीयादि वर्गणाके वर्ग विर्षे अपनी
अपनी प्रथम वर्गणाके वर्गत एक एक अविभागप्रतिच्छेद बंधता अनुक्रमैं जानना। ऐसे स्पर्धकनिके समूहका नाम प्रथम
गुणहानि है। हिती गणानि स प गानिके
प तितीजेता रूप पाइये है तिनितें एक एक चय प्रमाण घटते द्वितीयादि बर्गणानिविषै बर्ग जानने। ऐसे क्रमतें जहाँ प्रथम गुणहानिका प्रथम वर्गणाके वर्गनितें आधा जिस वर्गणाविर्षे वर्ग होइ तहाँ तै दूसरी गुणहानिका प्रारम्म भया। तहाँ-द्रव्य चय आदिका
प्रमाण आधा आधा जानना। १. नाना गुहानि-इस क्रमतें जेती गुण हानि सर्व कर्म परमाणूनिविषै
पाइए तिनिके समूहका नाम नाना गुणहानि है। (जैसे उपरोक्त
यंत्रमें नाना गुणहानि छह है।)। १. गुणहानि आयाम-एक गुणहानिविषै अनंत वर्गणा पाइये (अथवा
जितना द्रव्य या काल एक गुणहानिविष पाइए) सो गुणहानि
आयाम जानना। १. दो गुणहानि-याको (गुणहानि आयामको) दूना कीए जो प्रमाण
होइ सो दो गुणहानि है। * ज्योढगुणहानि या द्वयर्धगुणहानि -(गुणहानि आयामको ड्योढा
कीए जो प्रमाण होड)। १ अन्योन्याभ्यस्त राशि-नानागुण हानि प्रमाण दुये मांडि परस्पर
गुण जो प्रमाण होइ सो अन्योन्याभ्यस्त राशि है। २ निषेकहार-निषेकच्छेद कहिए दो गुणहानि।। । अनुकृष्टि - प्रतिसमयपरिणामखण्डानि-प्रति समय परिणामोमें जो
रखण्ड उपलब्ध होते है वे अनुकृष्टि कहलाते हैं ( अर्थात मुख्य गुण हानि के प्रत्येक समयके अन्तर्गत इनकी पृथक् पृथक् उत्तर गुण-हानि रूप रचना होती है ) । (दे० करण/१/३)।
६. गुणहानि रूप श्रेणीव्यवहार निर्देश
१. गुणहानि सामान्य व गुणहानि आयाम निर्देश ध ६/१,६-६६/१५१/१० पढमणिसेओ अवठ्ठिदहाणीए जेत्तियमद्धाणं गंतूण अद्ध होदि तमद्धाणं गुणहाणि त्ति उच्चदि । -प्रथम निषेक अवस्थित हानिसे जितनी दूर जाकर आधा होता है उस अध्वान (अन्तराल या कालको ) 'गुणहानि' कहते है। गो.जी./भाषा/२५३/५२६ पूर्व पूर्व गुणहानितें उत्तर उत्तर गुणहानिविषै
गुणहानिका वा निषेकनिका द्रव्य दणा दूणा घटता होइ है, तातै गुणहानि नाम जानना । • गुण हानि यथायोग्य अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org