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सादि
गुणस्थान २४७
गुण्य ५. चौथे गुणस्थान तक दर्शनमोहकी तथा इससे ऊपर पर्यन्त प्राप्त हो हैं। बहुरि अपूर्वकरणादिक तीन उपशमधाले तीन
तीनको, उपशान्त कषायवाले दोय गुणस्थानकनिको प्राप्त हो है चारित्रमोहकी अपेक्षा प्रधान है
१५५६। वह कैसे सो आगे कोष्ठकोंमें दर्शाया है-इतना विशेष है कि गो.जी./मू /१२-१३/३५ एदे भावा णियमा दंसणमोहं पडुच्च भणिदा हु। उत्कृष्ट अनुभागके साथ आयुके बाँधनेपर (अप्रमत्तादि गुणस्थानौसे)
चारित्तं णत्थि जदो अविरद अंतेसु ठाणेसु ।१२। देसविरदे पमत्ते इदरे । अधस्तन गुणस्थानोंमें गमन नहीं होता है ।। य खओवसमिय भावो दु । सो खलु चरित्तमोहं पडुच्च भणियं तहा
नोट-निम्नमेंसे किसी भी गुणस्थानको प्राप्त कर सकता है। उवरि ।१३। - (मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्र और अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें क्रमशः जो औदयिक, पारिणामिक, क्षायोपशमिक व औपशमिकादि तीनो भाव बताये गये है। प्रा.११३) वे नियमसे दर्शन
गुणस्थान आरोहण क्रम अवरोहणक्रम मोहको आश्रय करके कहे गये हैं। प्रगटपर्ने जाते अविरतपर्यन्त च्यारि गुणस्थानविषै चारित्र नाहीं हैं। इस कारण ते चारित्रमोहका आश्रय- १ मिथ्यादृष्टि करि नाही कहे हैं ।१२। देशसंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत विषै अनादि उपशम सम्य, सहित क्षायोपशमिकभाव है, वह चारित्रमोहके आश्रयसे कहा गया है। तैसे
४,५,७ ही ऊपर भी अपूर्व करणादि गुणस्थाननिविर्षे चारित्रमोहको आश्रयकरि भाव जानने ॥१३॥
२. सासादन
मिश्र ६. संयत गुणस्थानोंका श्रेणी व अश्रेणी रूप विभाजन
असंयतरा.वा./४/१/१६/५८४/३० एतदादीनि गुणस्थानानि चारित्रमोहस्य
उपशम साम्य.
सासादन पूर्वक १ क्षयोपशमादुपशमात् क्षयाच्च भवन्ति ।
क्षायिक रा.बा./६/१/१८/५६०/७ इत ऊध्वं गुणस्थानाना चतुर्णा द्वे श्रेण्यौ भवत. क्षायोपशामिक उपशमकश्रेणी क्षपकश्रेणी चेति । = १. संयतासंयत आदि गुणस्थान
संयतासंयत
४,३,२,१ चारित्रमोहके क्षयोपशमसे अथवा उपशमसे अथवा क्षयसे उत्पन्न होते प्रमत्तसंयत
५,४,३,२,१ हैं। ( तहाँ भी) २. अप्रमत्त संयतसे ऊपरके चार गुणस्थान उपशम अप्रमत्त ,
६ (मृत्यु होनेपर देवोंमें या क्षपक श्रेणीमे ही होते हैं।
जन्म चौथा स्थान) ७. जितने परिणाम हैं उतने हो गुणस्थान क्यों नहीं
८ | अपूर्वकरण
(, , .)
ह अनिवृत्तिकरण ध.१/१,१,१७/१८४/८ यावन्त. परिणामास्तावन्त एवं गुणाः किन्न १० सूक्ष्मसापराय ११,१२ भवन्तीति चेन्न, तथा व्यवहारानुपपत्तौ द्रव्यार्थिकनयसमाश्रयणात् । | १२ उप-कषाय
१०६ ,, ,, ,,) प्रश्न-जितने परिणाम होते है उतने ही गुणस्थान क्यो नहीं होते १२ क्षीण है। उत्तर--नहीं, क्योंकि, जितने परिणाम होते हैं, उतने ही गुण- १३ सयोगी स्थान यदि माने जायें तो ( समझने समझाने या कहनेका ) व्यवहार
| १४ अयोगी
सिद्ध ही नहीं चल सकता है, इसलिए द्रव्याथिकनयको अपेक्षा नियत संख्यावाले ही गुणस्थान कहे गये है। ८. गुणस्थान निर्देशका कारण प्रयोजन
गुणहानि-१. गुणहानि श्रेढी व्यवहार-दे० गणित/II/६/१२. षट्
गुण हानि वृद्धि-दे० षट्गुण हानि वृद्धि। रा.वा./६/१/१०/५८८/६ तस्य संवरस्य विभावनाथ गुणस्थानविभागवचन
गुणा-Multiplication (ध.५/प्र./२७) क्रियते। =संवरके स्वरूपका विशेष परिज्ञान करनेके लिए चौदह गुणस्थानोंका विवेचन आवश्यक है।
गुणाधिक
स.सि /9/११/३४६/६ सम्यग्ज्ञानादिभिः प्रकृष्टा गुणाधिकाः । - जो २. गुणस्थानों सम्बन्धी कुछ नियम
सम्यग्ज्ञानादि गुणों में बढे-चढे हैं वे गुणाधिक कहलाते है।
गुणारोपण-दे० प्रतिष्ठा विधान । १. गुणस्थानों में परस्पर आरोहण व अवरोहण सम्बन्धी
गुणार्थिक-गुणार्थिक नयनिर्देशका निषेध -(दे० नय/I/१६) नियम
गुणित-गुणकार विधिमें गुण्य गशिको गुणकार द्वारा गुणित कहा गो.क /मू./५५६-५५६/७६०.७६२ चदुरेक्कदुपण पंच य छत्तिगठाणागि
__जाता है-दे० गणित/II/१/५ । अप्पमत्ता। तिसु उवसमगे संतेत्ति य तियतिय दोण्णि गच्छति
गुणित कमाशिक-दे० क्षपित । १५५६। सासणपमत्तर्वज्जं अपमत्ततं समल्लियइ मिच्छो। मिच्छत्त बिदियगणो मिस्सो पढ़मं चउत्थं च ५५७। अविरदसम्मा देसो
-की अपेक्षा वस्तुमें भेदाभेद-दे० सप्तभंगी/५१८१ पमत्तपरिहीणमपमत्ततं । छट्ठाणाणि पमत्तो छट्ठगुणं अप्पमत्तो दु
गी नय-दे० नय//५। १५५८। उवसामगा दु सेढि आरोहंति य पडंति य कमेण । उवसामगेनु
गुणोत्तर श्रेढी-Geometrical Progression (ज.प./प्र.१०६)। भरिदो देवतमत्तं समल्लियई ।५५६। ध १२/४,२.७,१६/२०/१३ उक्कस्साणुभागेण सह आउवबंधे संजदासंज
इस संबन्धी प्रक्रियाएँ (दे० गणित /11/2/५)। दादिहेडिमगुणट्ठाणाणं गमणाभावादो। मिथ्यादृष्ट्यादिक निज निज गुण्य-जिस राशिको किसी अन्य राशि द्वारा गुणा किया जाये गुणस्थानको छे. अनुक्रमते ४,१.२.५.५,६,३ गुणस्थाननिको अप्रमत्त
-दे० गणित /II/१/५॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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