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काल
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क्रमेण चेट नास्तिक्रमः वृष्यंशस्य सूक्ष्मत्वेन विभागाभावात् । स्तो वृद्धिमाद कोऽभ्यवश्यमनुसर्तव्य स प समयपदार्थ एव प्र. सा./त.प्र./९४३ विशेषास्तित्वरूप सामान्यास्तिरणमन्तरेणानुपपत्तेः ॥ अयमेव च समयपदार्थस्य सिद्धयति सद्भाव १. ( कालके अतिरिक्त) शेष समस्त धोके, प्रत्येक पर्याय समयत्तिका हेतुस्व कालको बतलाता है, क्योंकि उनके, समयविशिष्ट वृत्ति कारणान्तरसे साध्य होनेसे ( अर्थात् उनके समय से विशिष्ट परिणति अन्य कारणसे होते हैं, इसलिए ) स्वतः उनके वह ( समयवृत्ति हेतुत्व | संभवित नहीं है। (१३४) (पं.का प्र. ता. २३) । २. जीव और पुद्गलों के परिणामोंके द्वारा ( कालको ) समयादि पर्यायें व्यक्त होती हैं (१३६ / (प्र.सा./त.प्र./ १३६ ) । ३. यदि उत्पाद और बिनाश नृत्यंशके । काल रूप पर्याय) हो मान जाये तो प्रश्न होता है कि:-) ( ९ ) वे युगपद हैं या (२) क्रमश. १ ( १ ) यदि 'युगपद' कहा जाय तो युगपदपना पटित नहीं होता, क्योंकि एक ही समय एक के दो विरोधी धर्म नहीं होते। ( एक ही समय एक नृत्यंदके प्रकाश और अन्धकारको भाँति उत्पाद और विनाश-दो विरुद्ध धर्म नहीं होते । ) (२) यदि 'क्रमशः' कहा जाय तो क्रम नहीं बनता, क्योंकि वृत्त्यंशके सूक्ष्म होनेसे उसमें विभागका अभाव है इसलिए समयरूपी वृत्यंशके उत्पाद तथा विनाश होना अशक्य होनेसे ) कोई वृत्तिमान अवश्य दूँढना चाहिए और वह ( वृत्तिमान) काल पदार्थ ही है । ( १४२ ) । ४. सामान्य अस्तित्व के fear विशेष अस्तिeanी उत्पत्ति नहीं होती, वह ही समय पदार्थ के सद्भावकी सिद्धि करता है।
त. सा. / परि०/१/१. १७२ पर शोलापुर वाले पं० वंशीधरजोने काफी विस्तारसे युक्तियों द्वारा छहों द्रव्योंकी सिद्धि की है।
८. समय से अन्य कोई काल अन्य उपलब्ध नहीं
प्र. सा./त.प्र./ १४४ न च वृत्तिरेव केवला कालो भवितुमर्हति वृत्तेहि वृत्तिमन्तमन्तरेणानुपपछे मात्र वृद्धि ही काल नहीं हो सकती, क्योंकि वृत्तिमानके बिना वृत्ति नहीं हो सकती ।
पं. का./ता.वृ./२६/५५/८ समयरूप एव परमार्थ कालो न चान्यः कालाणुद्रव्यरूप इति । परिहारमाह-समयस्तावत्सूक्ष्मकालरूप प्रसिद्ध' स एव पर्याय न च द्रव्यम् । कथं पर्यायत्वमिति चेत् । उत्पन्नप्रध्वंसित्वापर्यायस्य "समओ उप्पण्णपद्ध सी" ति वचनात् । पर्यायस्तु द्रव्यं बिना न भवति द्रव्यं च निश्चयेनाविनश्वरं तच्च कालपर्यायस्योपादानकारणतं काला पुरूष कालद्रव्यमेव न च गतादि तदपि ... प्रश्न - समय रूप ही निश्चय कस्मात् । उपादानसदृशत्वात्कार्य... काल है, उस समयसे भिन्न अन्य कोई कालाणु द्रव्यरूप निश्चयकाल नहीं है 1 उत्तर - समय तो कालद्रव्यकी सूक्ष्म पर्याय है स्वयं द्रव्य नहीं है। प्रश्न - समय को पर्यायपना किस प्रकार प्राप्त है ? उत्तर = पर्याय उत्पत्ति विनाशवाली होती है “समय उत्पन्न प्रध्वंसी है" इस वचनसे समय पर्यायपना प्राप्त होता है और वह पर्याय द्रव्यके बिना नहीं होती, तथा द्रव्य निश्चयसे अनिश्वर होता है। इसलिए कालरूप पर्यायका उपादान कारणभूत कालानुरूप कालद्रव्य ही होना चाहिए न कि पुद्गलादि। क्योंकि, उपादान कारणके सदृश ही कार्य होता है। (पं.का./ता. २३/४६/८) (पं. प्र. / हो० / २ / २१/ १३६/९० ) (द्र.सं. बृ. टी / २१/६१/६ ) ।
९. समय आदि का उपादान कारण तो सूर्य परमाणु आदि हैं, कालद्रव्यसे क्या प्रयोजन:--
रा. वा./५/२२/७/४७७/२० आदित्यगतिनिमित्ता द्रव्याणां वर्तनेति; तन्नः किं कारणम् गतावपि सद्भावात् सवितुरपि मज्यायां भृतादि
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२. निश्चयकाल निर्देश व उसकी सिद्धि
व्यवहारविषयभूतायां क्रिमेत्येवं रूढायां वर्तनावर्णनाथ समेतुना अन्येन कालेन भवितव्य प्रश्न- आदित्य-सूर्यकी गति द्रव्योंमे वर्तना हो जावे ? उत्तर- ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि सूर्य की गतिमे भी 'भृत वर्तमान भविष्यत' आदि कालिक व्यवहार देखे जाते है । वह भी एक क्रिया है उसकी वर्तनामें भी किसी अन्यको हेतु मानना ही चाहिए। यही कात है (पं.का./ता. ५.२५/५१/१६)।
द्र. सं. वृ / टी०/२१/६२/२ अथ मतं समयादिकालपर्यायाणां कालद्रव्यमुपादानकारणं न भवति; किन्तु समयोत्पत्तौ मन्दगतिपरिणतपुद्गलपरमाणुता निमेषकालोपत्तो नपुट चिट तथैव घटिकाकालपर्यायोपत्ती घटिका सामग्री राजसभाजन पुरुषहस्तादिव्यापारो, दिवसपर्याये तु दिनकर बिम्बमुपादानकारणमिति नैव यथा तदुलोपादानकारणी रपन्नस्य सदोदनपर्यायस्य कृष्णादिवर्णा सुरभ्यसुरभिगन्ध-स्निग्धरूक्षादिस्पर्शमधुरादिरस विशेषरूपा गुणर दृश्यन्ते । तथागतपरमाणुनयनपुट विघटन भाजपुरुषव्यापाराविदिनकरविरू पुद्गलपर्यायैरुपादानभूतैः समुत्पन्नानां
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समयनिमिषत्रटिकादिकालयाणामपि शुक्लकृष्णादिगुणाः प्राप्नु वन्ति न च तथा । प्रश्न- समय, घडी आदि कालपर्यायोंका उपादान कारण काल द्रव्य नहीं है किन्तु समय रूप काल पर्यायकी उत्पत्ति में मन्दगति से परिणत पुद्गल परमाणु उपादान कारण है; तथा निमेषरूप काल पर्यायकी उत्पत्ति में नेत्रोंके पुटोंका विघटन अर्थात् पलकका गिरना-उठना उपादान कारण है; ऐसे ही घडी रूप काल पर्यायकी उत्पत्ति में घडीकी सामग्रीरूप जलका कटोरा और पुरुषके हाथ आदिका व्यापार उपादान कारण है; दिन रूप कालपर्यायकी उत्पत्तिमें सूर्यका बिम्ब उपादान कारण है। उत्तर-ऐसा नहीं है, जिस तरह चावल रूप उपादान कारणसे उत्पन्न भात पर्यायके उपादान कारणमें प्राप्त गुणो के समान ही सफेद, कालादि वर्ण, अच्छी या बुरी गन्ध; चिकना अथवा रूखा आदि स्पर्श; मीठा आदि इत्यादि विशेष गुण दोख पड़ते हैं, वैसे ही उगल परमाणु, नेत्र, पलक, विघटन, जल कटोरा, पुरुष व्यापार आदि तथा सूर्यका बिम्ब इन रूप जो उपादानभूत पुद्गलपर्याय है उनसे उत्पन्न हुए समय, निमिष, घडी, दिन आदि जो काल पर्याय है उनके भी सफेद, काला आदि गुण मिलने चाहिए, परन्तु समय, घड़ी आदिमें ये गुण नहीं दीख पड़ते हैं । ( रा. वा./५/२२/२६-२७/४८२-४८४ में सविस्तार कवि)।
पं. का/ता.वृ./२६/५४ / १६ यद्यपि निश्चयेन द्रव्यकालस्य पर्यायस्तथापि व्यवहारेण परमाणुजलादिपुद्गलद्रव्यं प्रतीत्याश्रित्य निमित्तीकृत्य भव उत्पन्नो जात इत्यभिधीयते । =यद्यपि निश्चय से ( समय ) द्रव्य कालकी पर्याय है, तथापि व्यवहारसे परमाणु जलादि पुद्गलद्रव्य के जायते अर्थात दयको निमित करके प्रगट होती है, ऐसा जानना चाहिए। (द्र.सं./टी./१७/९३४)
१०. परमाणु आदिकी गति में भी धर्म आदि द्रव्य निमित है, काल द्रव्यसे क्या प्रयोजन
रा.वा./५/२२/८/४७७/२४ आकाशप्रदेशनिमित्ता वर्तना नान्यस्तद्धेतुः कालोऽस्तीति; तन्न; कि कारणम् । तां प्रत्यधिकरणभावाद् भाजनवद यथा भाजनं तण्डुलानामधिकरणं न तु देव पचति तेजसो हि स व्यापार तथा आकाशमप्यादित्यगत्यादिवर्तनायामधिकरणं न तु तदेव निर्वर्तयति । कालस्य हि स व्यापारः । =! - प्रश्न- आकाश प्रदेश के निमित्तसे द्रव्योंमें) वर्तना होती है। अन्य कोई 'काल' नामक उसका हेतु नही है उत्तर ऐसा नहीं है, क्योंकि जैसे वर्तन चावलों का आधार है, पर पाकके लिए तो अग्निका व्यापार ही चाहिए, उसी तरह आकाश वर्तमावाले द्रव्योंका आधार तो हो
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