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:२७ : उदय : धर्म-दिवाकर का
। श्री जैन दिवाकर-स्मृति-न्य ॥
गया। तब श्रावक संघ ने प्रार्थना की-प्लेग के कारण अनेक श्रावक चले गए हैं। प्लेग की भीषणता बढ़ती ही जा रही है। इसलिए आपसे करबद्ध प्रार्थना है कि आपश्री यहाँ से विहार कर जाएँ तो उत्तम रहे।'
आप रतलाम से विहार करके पंचेड पधारे। वहां ठाकुर साहब रघुनाथसिंहजी तथा उनके सुयोग्य बन्धु चैनसिंहजी जैनधर्म से परिचित हुए। आपके प्रवचनों से प्रभावित होकर उन्होंने कितने ही जानवरों की हिंसा का त्याग कर दिया । अन्य लोगों पर भी काफी प्रभाव पड़ा। मांसाहारियों ने मांस भक्षण त्यागा, शराबियों ने मदिरा का त्याग किया और धर्मप्रेमी बने।
ग्यारहवाँ चातुर्मास (सं० १९६३) : कानोड़ रतलाम से आप कई गांवों में होते हुए मांडलगढ़ की ओर जा रहे थे। मार्ग में लोगों ने कहा-'महाराज साहब ! इस रास्ते में कुछ दूर आगे जाकर लोग बन्दूकें लेकर झाड़ियों में छिपे बैठे रहते हैं। वे लोगों को लूट लेते हैं। उन्हें मार डालते हैं। आप इधर से न जाएँ ।' महाराज ने सहज स्मितपूर्वक उत्तर दिया-'हमारे पास है ही क्या जो वे लूटेंगे।' फिर भी साथ में श्रावक थे वे गांव से चौकीदार को लिवाने गए और आप निर्भय होकर गांव पहुँच गए। मार्ग के लुटेरों का इनकी ओर आँख उठाने तक का साहस न हुआ। वहाँ से आप बेगुं पधारे। वहाँ समाचार मिला कि आपकी सांसारिक नाते से सगी मौसी प्रवतिनी रत्नाजी महाराज ने संथारा ले लिया है। शीघ्र गति से विहार करके आप सरवाणिया, नीमच, मल्हारगढ़ होते हुए जावरा पधारे। वहाँ आपको आर्याजी रत्नाजी महाराज के स्वर्गवास का समाचार मिला । आप पुनः मन्दसौर होते हुए मल्हारगढ़ पधारे । वहाँ के लोगों के अधिक आग्रह पर कुछ दिन रुककर नारायणगढ़ पधारे। वहाँ श्वेताम्बर मन्दिरमार्गी सम्प्रदाय के सन्त अमीविजयजी महाराज के साथ वार्तालाप हुआ । वहाँ से आप जावद पधारे। जावद में पूज्यश्री श्रीलालजी महाराज विराज रहे थे। उनके साथ अन्य संत भी थे। वहाँ समाचार मिला कि कंजेडा में एक भाई दीक्षा लेना चाहता है। पूज्यश्री ने आपको कंजेडा जाकर उस भाई को प्रेरित करने का आदेश दिया। आप कंजेड़ा पहुँचे, उस भाई की वैराग्य भावना को उत्प्रेरित किया। तदनन्तर भाटखेडी होते हुए मणासे पधारे। वहाँ आपके उपदेश से प्रभावित होकर श्री कजोड़ीमल ने दीक्षा ग्रहण करने का विचार प्रगट किया । महाराज साहब ने विलम्ब न करने की प्रेरणा दी।
वहां से विहार करके नीमच, बड़ी सादड़ी होते हुए आपश्री कानोड पधारे और वहीं चातुर्मास किया। यहाँ आपश्री की प्रेरणा से लोगों में झगड़ा होते-होते रुक गया। झगडा रथ निकलने पर हो रहा था। मार्ग में व्याख्यान हो रहा था। कुछ लोग रथ निकालना चाहते थे और दूसरे लोग उसे रोक रहे थे। आपकी प्रेरणा से लोग शांत हो गए।
बारहवाँ चातुर्मास (सं० १९६४): जावरा सं० १६६४ का चातुर्मास आपने जावरा में किया। वहाँ मणासे से वैरागी कजोड़ीमलजी आये। उन्होंने परिवार की आज्ञा न मिलने पर भी साधुवेश धारण कर लिया।
तेरहवाँ चातुर्मास (१९६५): मन्दसौर जावरा चातुर्मास पूर्ण होने के बाद आप कजोड़ीमलजी को साथ लेकर निम्बाहेडा गए । कजोड़ीमलजी की पत्नी आपके उपदेश से इतनी प्रभावित हुई कि उसने अपने पति को दीक्षा लेने हेतु अनुमति पत्र लिख दिया। तदनन्तर आप डग, बड़ौद, सारंगपुर, सीहोर, भोपाल आदि स्थानों में होते हए देवास पधारे । देवास में रतलाम निवासी श्री अमरचन्दजी पीतलिया का निमन्त्रण
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