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निर्देशक महोदय, श्री डॉ. सागरमलजी को जाता है। उन्होंने
अपनी तमाम व्यस्तताओं एवं उत्तरदायित्वों से समय निकालकर मेरा निरन्तर मार्गदर्शन किया तथा आध्यात्मिक विषय को स्पष्ट करके सरल तथा सुगम बनाया। डॉ. साहब परम प्रखर व्यक्तित्व के धनी प्रकाण्ड विद्वान होकर भी अत्यन्त सरल, सहज, सहृदय एवं उदार हैं। वे अर्थ एवं यश की लिप्सा से पूर्णतः मुक्त हैं। उन्होंने मुझे सर्वदा अधिकाधिक मूल ग्रन्थों का अनुशीलन कर प्रमाणों एवं युक्तियों के आधार पर शोधकार्य करने का निर्देश दिया। आपने अपने स्वास्थ्य की चिन्ता किये बिना अधिकाधिक समय निकालकर निस्वार्थ सेवाएँ प्रदान की तथा शोधकार्य को पूर्णता तक पहुँचाया। आपकी इस महती उदारता, सहज अनुकम्पा तथा ज्ञानानुराग के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं।
उन्होंने शोध विषय को अधिकाधिक प्रासंगिक एवं उपादेय बनाने हेतु सतत मार्गदर्शन किया। डॉ. सागरमलजी अत्यन्त सरल, सहज, उदार तथा निःस्वार्थ सेवाभावी हैं। यद्यपि वे नामस्पृहा के लेशमात्र भी अभिलाषी नहीं हैं; तथापि इस शोधकार्य के सूत्रधार होने से उनका नाम प्रस्तुत कृति के साथ स्वतः ही जुड़ गया है। वे मेरे शोध-प्रबन्ध के मात्र निदेशक ही नहीं है, वरन् मेरे आत्मविश्वास के प्रतिष्ठापक भी हैं। उन्होंने मुझे सदैव परिश्रमपूर्वक शोधकार्य करने की प्रेरणा प्रदान की। इस वृद्धावस्था में भी आपने शारीरिक कष्टों की परवाह किये बिना नियमित मार्गदर्शन तथा कार्यावलोकन करके प्रस्तुत शोधकार्य को पूर्णता प्रदान की। इस हेतु मैं आपके प्रति हृदय के अन्तस्तल से भावभीनी कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ।
स्वाध्याय संयुक्त, सरलता, सहजता की प्रतिमूर्ति, यथानाम तथा गुणों से सुशोभित, जैनदर्शन के गहन अध्येता डॉ. ज्ञानजी जैन को मैं विस्मृत नहीं कर सकती हूं। क्योंकि ग्रंथ चेन्नई प्रेस में छप रहा था और हमारा चातुर्मास बेंगलौर था इसी दरमियान प्रुफ लेकर सहज़ ही जाना-आना होता रहा और अपना अमूल्य समय प्रदानकर इस कृति में त्रुटियाँ न रह जायें, उस पर पूरा-पूरा ध्यान केन्द्रित करते हुए सम्पादन किया। आपके निर्मल, निश्चल सहयोग के प्रति मैं तहे दिल से सविनय प्रणत हूं।
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